शासन व्यवस्था
उपासना स्थल अधिनियम, 1991 की व्याख्या
- 02 Dec 2024
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प्रिलिम्स के लिये:भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, न्यायिक समीक्षा, धर्मनिरपेक्षता मेन्स के लिये:उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991, संबंधित प्रावधान, धर्मनिरपेक्षता की रक्षा में न्यायपालिका की भूमिका |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
उपासना स्थलों के धार्मिक स्वरूप को संरक्षित रखने वाला उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991, जारी कानूनी संबंधी चुनौतियों के बीच विवादास्पद बना हुआ है।
- उत्तर प्रदेश के संभल में शाही जामा मस्जिद विवाद ने अधिनियम की प्रयोज्यता पर बहस को पुनः छेड़ दिया है।
शाही जामा मस्जिद विवाद क्या है?
- विवाद की पृष्ठभूमि: याचिकाकर्त्ताओं का दावा है कि संभल में 16 वीं शताब्दी की जामा मस्जिद एक प्राचीन हरिहर मंदिर (हिंदू मंदिर) के स्थल पर बनाई गई थी।
- मुगल सम्राट बाबर के अधीन एक सेनापति मीर हिंदू बेग द्वारा लगभग वर्ष 1528 में निर्मित इस मस्जिद में गुंबद और मेहराब के साथ विशिष्ट पत्थर की चिनाई की गई है, जो लाल बलुआ पत्थर से निर्मित अन्य मुगल मस्जिदों से भिन्न है।
- इसके इतिहास और स्थापत्य के कारण इसके संबंध पूर्व संरचनाओं के समान होने की अटकलें लगाई जा रही हैं, जिनमें एक संभावित हिंदू मंदिर भी शामिल है।
- यह वाराणसी, मथुरा और धार में हुए ऐसे ही विवादों से मिलता-जुलता है। याचिकाकर्त्ताओं ने इस स्थल के ऐतिहासिक और धार्मिक स्वरूप को निर्धारित करने के लिये सर्वेक्षण की मांग की है।
- न्यायपालिका की भागीदारी: संभल ज़िला न्यायालय ने दावों की पुष्टि के लिये शांतिपूर्ण सर्वेक्षण का आदेश दिया। हालाँकि दूसरे सर्वेक्षण के परिणामस्वरूप हिंसक झड़पें भी देखने को मिली।
- मस्जिद की कानूनी स्थिति: शाही जामा मस्जिद प्राचीन स्मारक संरक्षण अधिनियम, 1904 के तहत एक संरक्षित स्मारक है। इसे भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) द्वारा राष्ट्रीय महत्त्व के स्मारक के रूप में सूचीबद्ध किया गया है।
- शाही जामा मस्जिद और उपासना स्थल अधिनियम, 1991: उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 इस विवाद के केंद्र में है।
- अधिनियम में प्रावधान किया गया है कि उपासना स्थलों का धार्मिक स्वरूप, जैसा कि वे 15 अगस्त 1947 को थे, संरक्षित किया जाना चाहिये तथा ऐसे स्थानों की धार्मिक पहचान में किसी भी प्रकार के परिवर्तन पर रोक लगाई गई है।
- शाही जामा मस्जिद विवाद में मस्जिद के धार्मिक स्वरूप को परिवर्तित करने की मांग करके अधिनियम के प्रावधानों को चुनौती दी गई है।
उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 क्या है?
- परिचय: उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 का उद्देश्य उपासना स्थलों की धार्मिक स्थिति को संरक्षित रखना तथा विभिन्न धार्मिक संप्रदायों के बीच या एक ही संप्रदाय के भीतर धर्मांतरण को रोकना है।
- इस अधिनियम का उद्देश्य इन स्थानों के धार्मिक चरित्र को स्थिर रखते हुए तथा ऐसे धर्मांतरण से उत्पन्न विवादों को रोककर सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखना है।
- अधिनियम के प्रमुख प्रावधान
- धारा 3: किसी भी उपासना स्थल को, पूर्णतः या आंशिक रूप से, एक धार्मिक संप्रदाय से दूसरे धार्मिक संप्रदाय में परिवर्तित करने पर रोक लगाती है।
- धारा 4(1): यह अनिवार्य करता है कि उपासना स्थल की धार्मिक पहचान 15 अगस्त 1947 की स्थिति से अपरिवर्तित रहनी चाहिये। धार्मिक चरित्र को बदलने का कोई भी प्रयास निषिद्ध है।
- धारा 4(2): यह विधेयक 15 अगस्त 1947 से पहले किसी उपासना स्थल के धार्मिक स्वरूप के परिवर्तन से संबंधित सभी चल रही कानूनी कार्यवाहियों को समाप्त करता है, तथा ऐसे स्थानों की धार्मिक स्थिति को चुनौती देने वाले नए मामलों को शुरू करने पर रोक लगाता है।
- धारा 5 (अपवाद): अयोध्या विवाद (बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि), जिसे अधिनियम से छूट दी गई।
- अयोध्या विवाद के अलावा, अधिनियम में निम्नलिखित को भी छूट दी गई है: कोई भी उपासना स्थल जो प्राचीन और ऐतिहासिक स्मारक है, या प्राचीन स्मारक तथा पुरातत्व स्थल और अवशेष अधिनियम, 1958 के अंतर्गत आने वाला कोई पुरातात्त्विक स्थल है।
- ऐसे मामले जो पहले ही आपसी समझौते से सुलझा लिये गए हों या निपटा दिये गए हों।
- अधिनियम के लागू होने से पहले हुए धर्मांतरण।
- धारा 6 (दंड): अधिनियम में उल्लंघन के लिये कठोर दंड का प्रावधान किया गया है, जिसमें तीन वर्ष तक का कारावास और उपासना स्थल के धार्मिक चरित्र को बदलने का प्रयास करने पर ज़ुर्माना शामिल है।
- सर्वोच्च न्यायालय की व्याख्या: मई 2022 में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि उपासना स्थलों के धार्मिक चरित्र की जाँच की अनुमति दी जा सकती है, बशर्ते कि ऐसी जाँच से धार्मिक चरित्र में कोई बदलाव न हो।
उपासना स्थल अधिनियम, 1991 के संबंध में क्या चिंताएँ हैं?
- न्यायिक समीक्षा को सीमित करना: इस अधिनियम को न्यायिक समीक्षा को सीमित करने तथा विवादों को सुलझाने में न्यायपालिका की भूमिका को संभावित रूप से कमज़ोर करने के लिये चुनौती दी गई है।
- पूर्वव्यापी निर्धारित तिथि: अधिनियम की पूर्वव्यापी निर्धारित तिथि 15 अगस्त 1947 है, को तर्कहीन बताते हुए इसकी आलोचना की गई है, जिससे कुछ धार्मिक समुदायों के अधिकारों का उल्लंघन की संभावना है।
- कानूनी चुनौतियाँ: इस अधिनियम के विरुद्ध कई याचिकाएँ दायर की गई हैं, जिसमें याचिकाकर्त्ताओं ने तर्क दिया है कि यह हिंदुओं, जैनियों, बौद्धों और सिखों को उपासना स्थलों पर पुनः दावा करने से रोकता है, जिनके बारे में उनका मानना है कि ऐतिहासिक शासकों द्वारा उन पर "आक्रमण" या "अतिक्रमण" किया गया था।
- कुछ विवादों के संदर्भ में छूट: राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मामले को इस अधिनियम से छूट दिये जाने से असंगतता के साथ कुछ विवादों के चयनात्मक विधिक उपचार की संभावना के बारे में चिंताएँ पैदा हुई हैं।
- सांप्रदायिक तनाव में वृद्धि: इस अधिनियम से संबंधित विधिक एवं सामाजिक बहसें कभी-कभी व्यापक सांप्रदायिक मुद्दों से संबंधित होती हैं।
- आलोचकों का तर्क है कि इस अधिनियम को चुनौती देने से सांप्रदायिक तनाव (विशेषकर मस्जिदों, मंदिरों एवं चर्चों जैसे संवेदनशील स्थलों के संदर्भ में) बढ़ने की संभावना है।
- धर्मनिरपेक्षता पर प्रभाव: इस अधिनियम का उद्देश्य धार्मिक सद्भाव को बनाए रखते हुए भारत की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति की रक्षा करना था, लेकिन इसके आलोचकों का मानना है कि यह अनजाने में ऐतिहासिक स्थलों पर कुछ धार्मिक समुदायों के दावों को दबाने की अनुमति दे सकता है, जिससे राष्ट्र के धर्मनिरपेक्ष ढाँचे को नुकसान पहुँचेगा।
- राजनीतिक और सामाजिक निहितार्थ: इस अधिनियम का प्रायः राजनीतिक और धार्मिक परिचर्चाओं में उल्लेख किया जाता है, जिससे यह चिंता उत्पन्न होती है कि धार्मिक मुद्दों का इस्तेमाल विभाजन को बढ़ावा देने या राजनीतिक कारणों के लिये समर्थन जुटाने के लिये किया जा सकता है।
- वर्तमान में चल रहे कुछ विवादों के कारण सामाजिक अशांति उत्पन्न हुई है, धार्मिक स्थल पर दावों को लेकर विरोध प्रदर्शन और सांप्रदायिक तनाव उत्पन्न हुए हैं, जो ऐसे मुद्दों पर गहरे सामाजिक विभाजन को दर्शाता है।
आगे की राह
- कानूनी स्पष्टता की आवश्यकता: अधिनियम के प्रावधानों की अलग-अलग व्याख्याओं के साथ, उच्चतम न्यायालय द्वारा उपासना स्थल अधिनियम की प्रयोज्यता पर स्पष्ट और निश्चित दिशानिर्देश प्रदान करने की अत्यधिक आवश्यकता है।
- स्थानीय न्यायालय के अतिरेक को रोकना: संवेदनशील धार्मिक मामलों में स्थानीय न्यायालयों के हस्तक्षेप की बढ़ती आवृत्ति, अधीनस्थ न्यायालयों की अधिकारिता सीमाओं की गहन जाँच की मांग करती है।
- उच्चतम न्यायालय को ऐसे मामलों की निगरानी में अपनी भूमिका पर बल देना चाहिये जिनके व्यापक सामाजिक या राजनीतिक निहितार्थ हो सकते हैं।
- कानूनी मामलों का राजनीतिकरण न करना: धार्मिक स्थलों पर कानूनी चुनौतियों को राजनीतिक प्रभाव से मुक्त रखा जाना चाहिये, ताकि वैचारिक या चुनावी उद्देश्यों के लिये उनका दुरुपयोग न हो, न्यायपालिका की विश्वसनीयता और धार्मिक संस्थाओं की पवित्रता सुनिश्चित हो सके।
- एकता पर ध्यान देना: राजनीतिक दलों और नागरिक समाज दोनों को विभाजन के बजाय एकता को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है। साझा सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत पर बल देने की आवश्यकता है, जो भारत को धर्म से परे एक साथ बाँधती है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: धार्मिक स्थलों से संबंधित विवादों को सुलझाने में न्यायपालिका की भूमिका, विशेष रूप से हाल ही में उपासना स्थल अधिनियम को मिली चुनौतियों के आलोक में, का आकलन कीजिये। |