तेल और गैस की बड़ी कंपनियों का एकीकरण ठीक नहीं। | 03 Jul 2017

संदर्भ
सरकार देश की तेल और गैस की बड़ी कंपनियों के एकीकरण पर फिर से विचार कर रही है। हालाँकि पिछले कुछ अनुभवों से पता चलता है कि एकीकरण से वांछित परिणाम सामने नहीं आए हैं। 

प्रमुख बिंदु 

  • वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अपने चौथे बजट भाषण में फिर से एक एकीकृत तेल और गैस क्षेत्र के विचार की समीक्षा प्रस्तुत किया था। हालाँकि पहली बार इस विचार को अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के दौरान 1998 में लाया गया था। परन्तु उस प्रस्ताव को एलपीजी, पेट्रोल, केरोसिन आदि जैसे ज़रूरी सामानों के वितरण में एकाधिकार परिदृश्य को बढ़ावा देने के आधार पर खारिज कर दिया गया था। 
  • उसके पश्चात् 2005 में यूपीए सरकार द्वारा बनाई गई कृष्णामूर्ति समिति ने उस प्रस्ताव को  यह मानते हुये खारिज कर दिया कि यह विचार तेल और गैस क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा और मानवशक्ति को कम करेगा।
  • लेकिन वर्तमान में सरकार इस पर पुनः विचार कर रही है।  श्री जेटली ने इसके लिये पाँच प्रमुख कारण बताए हैं, जैसे - उच्च जोखिम उठाने की बेहतर क्षमता, बचत का लाभ उठाने, शेयरधारक मूल्य अधिक बनाने, निवेश निर्णय बेहतर लेने और विश्व स्तर पर अधिक सक्षम होने। 

विलय कहाँ तक उचित ?

  • परन्तु वैश्विक स्तर पर नज़र डालने से यह स्पष्ट होता है कि शीर्ष अंतरराष्ट्रीय तेल कंपनियों की तुलना में भारतीय कंपनियाँ आकार में बहुत छोटी हैं।  सरकारी फर्मों को मजबूत करने का सरकार का ट्रैक रिकॉर्ड भी अच्छा नहीं रहा है। 2007 में एयर इंडिया और भारतीय एयरलाइंस के विलय के बाद विमानन क्षेत्र को जो बड़ा झटका लगा था उससे वह अभी तक पूरी तरह से उबर नहीं पाई है। 
  • तेल और गैस क्षेत्र में न्यूनतम राजनीतिक हस्तक्षेप और उदारीकरण ने एकीकरण के मुकाबले अधिक शेयरधारक मूल्य बनाने में बेहतर प्रदर्शन किया है। 
  • ओएनजीसी द्वारा कर्ज-ग्रस्त गुजरात स्टेट पेट्रोलियम कॉरपोरेशन को सहायता दिए जाने के निर्णय को राजनीतिक हस्तक्षेप का नतीजा बताया गया है। तेल कंपनियों पर ऐसे आरोपों और अक्षमताओं के मद्देनजर, किसी एक इकाई को पूर्ण स्वायत्तता देने से राष्ट्र की ऊर्जा सुरक्षा को खतरा हो सकता है। 

रोज़गार

  • एकीकरण को लेकर एक अन्य चिंता रोज़गार पैदा करने की है। 
  • कृष्णमूर्ति समिति ने पहले ही यह अनुमान लगाया था कि इस तरह के एकीकरण के परिणामस्वरूप जनशक्ति में कमी होगी। ऐसे समय में जब सरकार नौकरी सृजन के साथ संघर्ष कर रही है, तब बड़ी कंपनियों के पुनर्गठन के कारण नौकरी के नुकसान का औचित्य साबित करना मुश्किल होगा। 
  • अधिक जोखिम लेने के लिये किसी कंपनी की क्षमता उसके पास उपलब्ध पूंजी की मात्रा पर निर्भर करती है। भारत की सभी छह प्रमुख तेल कंपनियों के वित्तीय प्रदर्शन से पता चलता है कि उनके पास न्यूनतम आवश्यकता से अधिक पूंजी है। 
  • केवल आकार एकमात्र ऐसा कारक नहीं है जो ऑफशोर परियोजनाओं के अधिग्रहण की सुविधा प्रदान करता है। आयरलैंड की टॉलो ऑयल, जिसके पास  3.62 अरब डॉलर की बाजार पूंजी है, कई देशों में स्थानीय तेल कंपनियों के साथ कंसोर्टिया बनाकर अपना विस्तार कर रही है। इसलिए, कंपनियों को अपने आकार की कमियों को दूर करने के लिये बेहतर रणनीति, तकनीकों और प्रबंधन के तरीकों पर ध्यान केंद्रित करनी चाहिए। 

प्रतिस्पर्धा नहीं

  • भारतीय तेल बाजार में आज कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है, और आईओसीएल, एचपीसीएल और बीपीसीएल का वर्चस्व है। अतीत में कड़ी प्रतिस्पर्धा में लगाम लगाने का  विमानन और बैंकिंग क्षेत्रों पर प्रतिकूल प्रभाव को हम देख चुके हैं। इसलिए, तेल और गैस क्षेत्र के एकीकरण से संबंधित किसी भी निर्णय पर  सावधानी से विचार किया जाना चाहिए।