ईज़ ऑफ डूइंग बिज़नेस को बढ़ावा देने हेतु सरकार और न्यायिक व्यवस्था के बीच समन्वित प्रयास | 06 Feb 2018

चर्चा में क्यों?
केंद्रीय वित्त एवं कॉरपोरेट मामलों के मंत्री अरुण जेटली द्वारा प्रस्तुत आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 के अंतर्गत व्यवसाय को आसान बनाने के लिये अपीलीय और न्याय क्षेत्रों में लंबित, विलंबित और अनिर्णीत मामलों के निपटान की ज़रूरत पर विशेष बल दिया गया है। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि इन स्थितियों से न केवल विवाद समाधान और संविदाओं के क्रियान्वयन में बाधा उत्पन्न होती है, बल्कि निवेश में भी कमी आती है, परियोजनाओं का क्रियान्वयन बाधित होता है, कर उगाही में अवरोध उत्पन्न होता है और अदालतों में मामलों पर खर्च बढ़ता है। यही कारण है कि आर्थिक सर्वेक्षण के अंतर्गत देश में आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिये सरकार और न्याय क्षेत्र के समन्वित प्रयासों के संबंध में सुझाव प्रस्तुत किये गए हैं।

प्रमुख बिंदु

  • आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक, भारत विश्व बैंक की ईज़ ऑफ डूइंग बिज़नेस (ईओडीबी),  2018 में पहली बार 30 स्थान उछलकर शीर्ष 100 देशों में शामिल हो गया है। 
  • इस रैंकिंग से सरकार द्वारा व्यापक संसूचकों (Detectors) के संदर्भ में किये जा रहे सुधारात्मक उपायों का पता चलता है।
  • भारत कराधान और शोधन अक्षमता से संबंधित संसूचकों में क्रमशः 53 और 33 स्थान ऊपर आया है, जो कराधान के क्षेत्र में किये गए प्रशासनिक सुधारों और शोधन अक्षमता एवं दिवालियापन संहिता (आईबीसी), 2016 को पारित किये जाने के कारण हुआ है।
  • इतना ही नहीं इसने अल्पांश निवेशकों के हितों को सुरक्षा प्रदान करने और रोज़गार शुरू कने की इच्छा रखने वाले व्यक्तियों को ऋण उपलब्ध कराने की दिशा में भी निरंतर प्रयास किये हैं। 
  • साथ ही सरकार द्वारा बिजली उपलब्ध कराने के क्षेत्र में किये गए सुधारों के कारण ईओडीबी, 2018 में बिजली पाने से संबंधित रैंकिंग में भारत 70 स्थान ऊपर आया है। हालाँकि सर्वेक्षण के मुताबिक, संविदाओं को अमलीजामा पहनाने से संबंधित संसूचकों के मामले में भारत लगातार पिछड़ रहा है।

पारदर्शी एवं न्यायिक व्यवस्था पर बल

  • सर्वेक्षण में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि आर्थिक वृद्धि और विकास में कारगर, दक्ष और संविदा को त्वरित लागू करने के महत्त्व की अनदेखी नहीं की जा सकती है।
  • सर्वेक्षण के मुताबिक, एक पारदर्शी और कुछ हद तक कानूनी एवं कार्यकारी व्यवस्था, जो दक्ष न्यायिक प्रणाली द्वारा समर्थित हो और नागरिकों के संपत्ति अधिकारों की उपयुक्त रूप में सुरक्षा करती हो, संविदाओं की पवित्रता को बनाए रखती हो तथा संविदा शामिल पक्षकारों के अधिकारों तथा उत्तरदायित्वों को लागू करती हो, व्यवसाय एवं व्यवसाय की पूर्वापेक्षा है।
  • सरकार ने संविदा प्रवर्तन व्यवस्था में सुधार लाने के लिये अनेक उपाय किये हैं। इनमें से कुछ उपाय निम्नलिखित हैं-
    ► अप्रयुक्त हो चुके 1,000 से अधिक कानूनों को समाप्त कर दिया गया है।
    ► मध्यस्थता तथा संरक्षण अधिनियम (Arbitration and Protection Act), 2015, 2015 में संशोधन किया गया है।
    ► उच्च न्यायालय का वाणिज्यिक न्यायालय, वाणिज्यिक प्रभाग तथा वाणिज्यिक अपील प्रभाग अधिनियम, 2015 पारित किया गया है।
    ► लोक अदालत कार्यक्रम का विस्तार किया गया।
    ► न्यायपालिका ने महत्त्वपूर्ण नेशनल जुडिशियल डेटा ग्रिड (एनजेडीजी) का विस्तार किया है और जल्द ही प्रत्येक उच्च न्यायालय का डिजिटलीकरण कार्य भी सुनिश्चित कर दिया जाएगा।
    ► सर्वेक्षण में संकलित किये गए नए आँकड़ों के आधार पर निष्कर्षों को सामने रखने की कोशिश करता है, जो सरल और निरपेक्ष हैं।
  • उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालयों, आर्थिक ट्रिब्यूनलों और कर विभाग में आर्थिक अभियोजन से संबंधित मामलों के निपटान में देरी और उनके लंबित होने के मामले बड़ी संख्या में हैं और इनमें लगातार बढ़ोतरी हो रही है। इस क्रम में परियोजनाओं के अटकने, कानूनी लागत में बढ़ोतरी, कर राजस्व के लिये जूझने और निवेश में कमी के रूप में अर्थव्यवस्था को नुकसान हो रहा है।
  • मामलों के निपटान में देरी और उनके लंबित होने की वजह न्याय व्यवस्था पर काम का अधिक बोझ होना है, जिसके परिणास्वरूप क्षेत्राधिकार में विस्तार एवं न्यायालयों द्वारा हिदायत देने और स्थगन आदेश देने जैसे मामले सामने आते हैं।
  • कर से संबंधित अभियोजनों में अपील के प्रत्येक चरण में लगातार विफल होने के बावजूद सरकार द्वारा मुकदमेबाज़ी पर अड़े रहने से ऐसी स्थिति पैदा होती है।
    ► न्यायालयों और सरकार द्वारा मिलकर काम किया जाए तो स्थिति में पर्याप्त सुधार हो सकता है।
    ► आर्थिक सर्वेक्षण सुझाव देता है कि केंद्र सरकार द्वारा राज्यों को प्रोत्साहन आधारित प्रदर्शन के रूप में निचली अदालतों में लंबितता में कमी की दिशा में प्रयासों और प्रगति पर विचार किया जाना चाहिये।
    ► फाइलिंग, सेवा और अन्य डिलिवरी संबंधित समस्याओं पर व्यय को प्राथमिकता दी जा सकती है, जिनकी वजह से सबसे अधिक विलंब होता है। हालाँकि, समीक्षा में आगाह किया गया है कि मौजूदा क्षमता का पूरा इस्तेमाल किये बिना अतिरिक्त क्षमता का निर्माण प्रभावी नहीं होगा।

समस्या के समाधान हेतु सुझाव

  • सर्वेक्षण के मुताबिक, अर्थव्यवस्था के लिये बड़ी बाधा बन चुकी इस समस्या को दूर करने के लिये व्यापक सुधार और क्रमगत सुधारों के वास्ते सरकार और अदालतों को मिलकर काम करने की ज़रूरत है।
  • सर्वेक्षण के अंतर्गत इस संबंध में भी कुछ विशेष उपाय सुझाए गए हैं, जो इस प्रकार हैं-
    निचली अदालतों की न्यायिक क्षमता में विस्तार और उच्च न्यायालयों व उच्चतम न्यायालय पर मौजूदा बोझ में कमी।
    ► इसकी सफलता की कम दर को देखते हुए कर विभाग अपीलों की संख्या को सीमित करके स्व-नियंत्रण की दिशा में काम कर सकता है।
    ► न्यायिक व्यवस्था विशेषकर आधुनिकीकरण और डिजिटलीकरण पर सरकारी व्यय में खासी वृद्धि करना।
    ► उच्चतम न्यायालय की सफलता के आधार पर ज़्यादा विषय केंद्रित और चरण केंद्रित पीठ तैयार करना, जिससे अदालतों के लिये लंबित और विलंबितता से लड़ने में आंतरिक विशेषज्ञता विकसित करना संभव हो सके।
    ► अदालतें स्थगित मामलों को प्राथमिकता देने और सख्त समय-सीमा लागू करने पर विचार कर सकती हैं, जिसके भीतर अस्थायी आदेश वाले मामलों पर फैसला दिया जा सकता है। इनमें विशेष रूप से सरकारी बुनियादी ढाँचागत परियोजनाओं से जुड़े मामले शामिल होंगे।
    ► कोर्ट केस मैनेजमेंट और कोर्ट ऑटोमेशन सिस्टम में सुधार करना।

सर्वेक्षण में इस बात का उल्लेख किया गया कि जीएसटी के संदर्भ में हालिया अनुभव से यह स्पष्ट होता है कि केंद्र और राज्यों के बीच लंबवत सहयोग-सहयोगात्मक संघवाद से व्यापक आर्थिक नीतिगत बदलाव हुए हैं। सर्वेक्षण के मुताबिक, संभवतया उसकी क्षैतिज भिन्नता, जिसे सहयोगात्मक पृथक्ककरण कहा जा सकता है, जो एक न्यायपालिका और दूसरी ओर कार्यकारी/विधायिका के मध्य संबंधों पर लागू हो सकता है।