IT (Information Technology) एक्ट की धारा 66 A | 08 Jan 2019

चर्चा में क्यों?


हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court - SC) ने केंद्र सरकार की एक याचिका पर प्रतिक्रिया देते हुए राज्यों पर आरोप लगाया कि (SC द्वारा) 2015 में IT अधिनियम की धारा 66A को समाप्त करने के बावजूद विभिन्न राज्यों में अभी भी सोशल मीडिया पर भाषण देने की स्वंतत्रता के विरुद्ध FIR (First Information Report) दर्ज की जा रही है।

महत्त्वपूर्ण बिंदु

  • याचिका में कहा गया कि इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन (Internet Freedom Foundation) द्वारा प्रदर्शित पेपर के अनुसार धारा 66 A के तहत लंबित मुकदमों को समाप्त नहीं किया गया था और आगे भी 2015 के SC के फैसले के बाद भी पुलिस द्वारा लगतार FIR दर्ज की गई।
  • इसमें यह भी बताया गया कि वास्तविक स्थिति कागज़ी स्थिति से बिलकुल अलग है, संभवतः इसका कारण यह है कि बहुत से अधिकारियों को सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बारे में पता ही नहीं होगा।
  • ट्रायल कोर्ट और अभियोजक द्वारा सक्रिय रूप से फैसले को लागू नहीं किया गया, जिसके कारण आरोपी व्यक्तियों पर धारा 66 A के आधार पर अदालती कार्यवाई चलती रही।

धारा 66 A की पृष्ठभूमि

  • धारा 66 A सूचना संबंधी अपराधों से संबंधित है जिसमें कंप्यूटर संसाधन या संचार उपकरण के माध्यम से कोई भी अपमानजनक या अवैध एवं खतरनाक सूचना भेजना एक दंडनीय अपराध है।
  • श्रेया सिंघल बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया के निर्णय में जस्टिस रोहिंटन एफ. नरीमन और जे. चेलमेश्वर ने धारा 66 A में एक कमज़ोर तथ्य पाया कि इसे अपरिभाषित कार्यों के आधार पर अपराध बनाया गया था, जैसे कि असुविधा, खतरा, बाधा और अपमान, जो संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत दिये गए अपवादों के बीच नहीं आते हैं, जो भाषण की स्वतंत्रता की गारंटी देता है।
  • अदालत ने यह भी पाया कि चुनौती यह पहचानने की थी कि रेखा कैसे निर्धारित करें। क्योंकि बाधा और अपमान जैसे शब्द व्यक्तिपरक बने हुए हैं।
  • इसके अलावा अदालत ने यह भी उल्लेख किया था कि धारा 66 A में समान उद्देश्य वाले कानून में अन्य वर्गों की तरह प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय नहीं थे, जैसे:

♦ कार्रवाई से पहले केंद्र की सहमति प्राप्त करने की आवश्यकता है।
♦ स्थानीय अधिकारी राजनीतिक से प्रेरित होकर स्वायत्त रूप से आगे बढ़ सकते हैं।

  • निर्णय में पाया गया कि धारा 66 A संविधान के अनुच्छेद 19 (भाषण की स्वंतत्रता) और 21 (जीवन के अधिकार) दोनों के विपरीत था। इसलिये इस पूरे प्रावधान को अदालत ने समाप्तं कर दिया।
  • उसके बाद सरकार ने एक विशेषज्ञ समिति (टी. के. विश्वनाथन समिति) की नियुक्ति की, जिसने अभद्र भाषा की चुनौती के लिये एक कानून प्रस्तावित किया।

स्रोत – द हिंदू