भारत के एनपीए और वैश्विक परिदृश्य | 13 Jun 2018
संदर्भ
बैंकों के सामने गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (NPA) के मुद्दे कई महीनों से सुर्ख़ियों में बने हुए हैं और तथ्य यह है कि अभी भी इस मुद्दे पर अनिश्चितता की स्थिति बनी हुई है कि इन सभी को मान्यता मिली है या नहीं| इस संदर्भ में यह देखना महत्त्वपूर्ण है कि भारतीय बैंकिंग प्रणाली वैश्विक मापदंड पर कहाँ खड़ी है क्योंकि एनपीए के परिणामस्वरूप अतीत में कई निर्णय किये गए जो दूरदर्शिता की दृष्टि से गलत थे।
- बैंकिंग प्रणाली में उधार संचालन इस बात से जुड़ा हुआ है कि अर्थव्यवस्था कैसे व्यवहार करेगी। यदि अर्थव्यवस्था तेज़ी से बढ़ रही है, तो यह माना जाता है कि भविष्य में भी यह प्रबल बनी रहेगी।
- इसलिये समस्या यह है कि उम्मीदों के अनुरूप अर्थव्यवस्था हमेशा अच्छी तरह से प्रगतिशील प्रतीत होती है लेकिन यह समझने की बात है कि कब परिस्थितियाँ बदल जाती हैं, निर्णय धुँधला दिखाई देने लगता है और सिस्टम में त्रुटियाँ आ जाती है क्योंकि क्रेडिट मूल्यांकन गलत हो जाता है।
व्यापार चक्र
- जब व्यापार चक्र उत्साही होते हैं और ब्याज दरें कम होती हैं, तो कंपनियाँ बड़े निवेश के लिये आगे आती हैं और बैंक उत्साह में होते हैं क्योंकि सब कुछ व्यावहारिक लगता है।
- वित्त वर्ष 2008 और वित्त वर्ष 2012 के बीच बैंक क्रेडिट में औसत वृद्धि 19 प्रतिशत प्रतिवर्ष थी, जब रेपो दर पहली बार 7.75% से घटकर 5 प्रतिशत हो गई थी, जो वित्त वर्ष 2012 तक 8.5 प्रतिशत हो गई थी।
- इन चरणों के दौरान ब्याज लागत को भी रोक दिया गया क्योंकि यह माना जाता है कि यह लागत का एक छोटा सा घटक है और इसे तेज़ी से बढ़ने वाली टॉपलाइन के साथ अवशोषित किया जा सकता है।
- उन वर्षों में कॉर्पोरेट बिक्री वृद्धि आवर्ती आधार पर 15-20 प्रतिशत औसत थी।
- यह आश्चर्य की बात नहीं है कि इस अवधि के दौरान बैंक क्रेडिट 19 प्रतिशत की औसत वार्षिक दर के साथ तेज़ी से बढ़ गया।
- तब अर्थव्यवस्था प्राकृतिक संसाधन के क्षेत्रों में विभिन्न विवादों से प्रभावित हुई थी, विशेष रूप से, निवेश को विफल कर दिया गया और स्थगित परियोजनाओं में वृद्धि हुई क्योंकि नौकरशाह निर्णय लेने को तैयार नहीं थे।
- बाद में बैंक क्रेडिट वृद्धि धीमी हुई और वित्त वर्ष 2013 तथा वित्त वर्ष 2016 के बीच औसत वृद्धि दर 11 प्रतिशत तक पहुँच गई।
- इसलिये इस अतियथार्थवाद (surrealism) को ध्वस्त कर दिया गया क्योंकि अर्थव्यवस्था की गति धीमी हो गई (जीडीपी वृद्धि भी विभिन्न आधार वर्षों के साथ इन दो अवधि के लिये लगभग 1 प्रतिशत प्रतिवर्ष गिर गई)|
- कई देशों में तेज़ी से विकास हुआ 1980 और 1990 के दशक के साथ-साथ चीन में पूर्वी एशियाई अर्थव्यवस्थाओं ने चीन की निवेश-संचालित मॉडल के आधार पर 10 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि दर्ज की|
- 10 प्रतिशत के साथ भारत उच्च एनपीए वाले देशों के 'असंतोषजनक' लीग में शामिल है। ग्रीस, इटली, पुर्तगाल, आयरलैंड और रूस सबसे अधिक समस्याग्रस्त हैं।
- सबसे दिलचस्प बात यह है कि ये शीर्ष चार देश PIIGS समूह का हिस्सा थे, जो 2010 के यूरो संकट का प्रतीक था।
- स्पेन 4.5 प्रतिशत के अनुपात से दूर हो गया है, जबकि शेष अभी भी उन्हें फिर से रोकने के लिये संघर्ष कर रहे हैं।
- एक चीज़ जो मौजूद है वह यह है कि ब्राज़ील और अर्जेंटीना जैसे कुछ लैटिन अमेरिकी राष्ट्र इस मोर्चे पर काफी बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं, जबकि तुर्की के समक्ष मुद्रा और विकास के मामले में अन्य चुनौतियाँ भी हैं, जिनका अनुपात 3 प्रतिशत से कम है।
- कॉरपोरेट ऋण पुनर्गठन के तहत विभिन्न छद्म रूप उपलब्ध होने के बावजूद भारत के एनपीए लगभग 3 प्रतिशत थे।
- हालाँकि, आरबीआई ने 2016 में संपत्ति गुणवत्ता की मान्यता संबंधी अवधारणा के बारे में बताया था, इसलिये बैंकों ने सिस्टम पर ज़ोर दिया।
- अमेरिका, ब्रिटेन, जापान और जर्मनी जैसी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं वाले विकसित देशों में 2 प्रतिशत से कम एनपीए अनुपात के साथ मज़बूत बैंकिंग सिस्टम हैं, जबकि इस मामले में चीन 1.7 प्रतिशत पर है।
- एनपीए मुद्दा सिर्फ प्रतिकूल पोर्टफोलियो के साथ समाप्त नहीं होता है| चूँकि प्रावधानों की त्वरित पहचान पर ये उपाय किये गए हैं फिर भी बैंकों की लाभप्रदता प्रभावित हुई है।
- भारतीय बैंकों के लिये 0.33 प्रतिशत पर परिसंपत्तियों की वापसी बहुत से विकसित देशों के लिये तुलनीय है। हालाँकि, इससे एक भ्रामक निष्कर्ष निकल सकता है कि भारतीय बैंकिंग प्रणाली उनके समतुल्य है।
- पश्चिमी बैंक छोटी ब्याज दर पर काम करते हैं जिनके बैलेंस शीट अधिक फैले हुए होते हैं जो परिसंपत्ति पर रिटर्न कम करता है। इसी प्रकार, पूंजी की एक बड़ी मात्रा शुद्ध मूल्य पर रिटर्न को कम करती है।
- इसका मतलब है कि यदि भारतीय बैंकों द्वारा ब्याज दर में कमी की गई है तो वर्तमान स्तर पर लाभप्रदता को बनाए नहीं रखा जाएगा।
- इस प्रकार जमाधारकों के साथ ही उधारकर्त्ता प्रतिकूल ब्याज दर परिगणना का सामना कर रहे हैं।
निष्कर्ष
- उम्मीद है कि आईबीसी (दिवालिया और दिवालियापन संहिता) को अपने मकसद में खरा उतरने के लिये उसमें कुछ बदलाव किये जाएंगे और उसका पालन करने के लिये समुचित कदम उठाए जाएंगे।
- यह महत्त्वपूर्ण है क्योंकि भारत में रिकवरी दर 15-20 फीसदी कम है, जबकि सिस्टम को समय-समय पर 50-75 फीसदी की तरफ बढ़ने की ज़रूरत है।
- सिस्टम को और एक साल के लिये संघर्ष करना पड़ सकता है, लेकिन 201 9-20 वित्तीय रूप से उज्ज्वल हो सकता है।