ईरान-सऊदी संघर्ष और भारत की भूमिका | 26 Apr 2018

चर्चा में क्यों?
आज़ादी के बाद 70 वर्षों के दौरान यदि देश की विदेश नीति की कोई विशेषता रही है, तो वह 'गुटनिरपेक्षता' (non-alignment) की नीति है। भारत ने अपने स्वयं के हितों के लिये अपने तटस्थ नियमों का पालन किया है और इन तटस्थ नियमों ने इसको अच्छी छवि भी प्रदान की है। शीत युद्ध के दौरान, ‘गुटनिरपेक्षता की नीति’ ने भारत की शीत युद्ध की गुटबंदी को अस्वीकार करने में और साथ ही दोनों महाशक्तियों – संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ के साथ राजनीतिक और सौह्रार्दपूर्ण संबंध को बनाए रखने में मदद की। तटस्थता ने भारत को किसी भी अंतर्राष्ट्रीय या क्षेत्रीय संघर्ष का पक्ष लेने से परहेज करने में भी मदद की। 

सऊदी अरब और ईरान की स्थिति

  • ऐसा ही एक क्षेत्रीय संघर्ष सऊदी अरब और ईरान के बीच चल रहा है। 1979 की ईरानी क्रांति के समय से ही शिया प्रभुत्व वाले ईरान तथा सुन्नी प्रभुत्व वाले सऊदी अरब में एक दूसरे के प्रति शत्रुता की स्थिति बनी हुई है।
  • पिछले चार दशकों में इन दोनों देशों के बीच तनाव में लगातार वृद्धि ही हुई है। इन दोनों देशों के सहयोगी राष्ट्रों का विशिष्ट समूह है और इन राष्ट्रों के एक दूसरे के साथ प्रतिकूल संबंध भी हैं। इसके कारण पश्चिम एशिया की भू-राजनीति काफी अस्थिर है।
  • भारत के लिये अच्छी बात यह है कि वह इस क्षेत्र में एक ‘निष्क्रिय खिलाड़ी’ बनकर दोनों देशों के साथ अच्छे संबंध बनाए रखने में सक्षम रहा है। ऐसा इसलिये है क्योंकि खुले तौर पर किसी एक देश का पक्ष लेना इसके राष्ट्रीय हित के लिये बेहद हानिकारक होगा।

भारत का हित

  • वास्तव में भारत का हित ईरान-सऊदी संघर्ष के समाधान में निहित है क्योंकि इन दोनों के बीच किसी भी प्रत्यक्ष संघर्ष का महत्त्वपूर्ण प्रभाव इस पर पड़ेगा। 
  • पहला, इस क्षेत्र में रहने वाले लाखों प्रवासी भारतीयों पर होगा, जो दोनों देशों के बीच युद्ध के कारण सीधे तौर पर प्रभावित होंगे। उनका जीवन दाँव पर होगा और यदि क्षेत्रीय संघर्ष से भारतीय नागरिकों को बचाने के लिये सरकार आगे आई तो यह सरकार के लिये एक बहुत कठिन कार्य होगा।
  • दूसरा, भारत को तेल और गैस की आपूर्ति के क्षेत्र में अरबों डॉलर का भारी वित्तीय नुकसान होगा। संघर्ष से तेल उत्पादन में बाधा आएगी, जिससे तेल की कीमतों में वृद्धि होगी, परिणामस्वरुप अन्य वस्तुओं और सामग्रियों की कीमतों पर असर पड़ेगा।
  • इसका परिवहन, विनिर्माण और परिष्करण सहित भारतीय अर्थव्यवस्था के कई अन्य क्षेत्रों पर एक बड़ा प्रभाव पड़ेगा। 
  • तीसरा, वर्तमान में इन दोनों देशों में भारत का बहुत अधिक धन दाँव पर लगा है। ईरान में, भारत ने चाबहार बंदरगाह के निर्माण में निवेश किया है, जो भारत के लिये अफगानिस्तान और संसाधन समृद्ध मध्य एशियाई देशों को पाकिस्तान से गुजरने के लिये एक पारगमन मार्ग को सुनिश्चित करता है।
  • इसके अलावा, अंतर्राष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण व्यापार गलियारा (International North-South Trade Corridor - INSTC) जो ईरान से गुज़रता है, में यूरोप में माल ढुलाई का समय आधे से कम करने और भारत के लाभ के लिये व्यापार लागत कम करने की क्षमता है।

आगे की रणनीति

  • कुछ महीनों में शुरू होने वाले INSTC के संचालन के साथ ईरान में भारत का धन और अधिक पैमाने पर दाँव पर लगा है। भारत INSTC परियोजना के संचालन के लिये पूरी तरह से प्रतिबद्ध है क्योंकि यदि यह परियोजना लाभदायक सिद्ध होती है, तो यह इस क्षेत्र में चीन की वन बेल्ट और वन रोड (One Belt and One Road - OBOR) पहल का जवाब हो सकता है।
  • लेकिन जब भारत ईरान को प्रलोभन दे रहा है, तो इसे यह भी सुनिश्चित करना चाहिये कि चीन इस क्षेत्र में भारी धन निवेश करने की क्षमता के साथ ईरान और सऊदी अरब को कोई प्रलोभन न देने पाए। यदि ऐसा होता है, तो भारत के व्यापार हित और बड़े आर्थिक हित अवश्य प्रभावित होंगे।
  • इसके अलावा, सऊदी अरब में भारत के धन की दावेदारी ईरान में दाँव पर लगे धन से कम नहीं है। सऊदी अरब, जो खाड़ी सहयोग परिषद देशों (Gulf Cooperation Council countries - GCC) का हिस्सा है, के साथ भारत के देर से ही सही लेकिन अच्छे सौह्रार्दपूर्ण संबंध हैं।
  • अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में उभरती हुई शक्ति के रूप में भारत के उदय के साथ देशों के बीच द्विपक्षीय संबंध मज़बूत हो रहे हैं।
  • सऊदी ने भारत की स्थिति को पहचाना है तथा सहयोग करने के लिये इसे चुना है। भारत के लिये यह एक 'win-win' situation (दोनों के लिये फायदेमंद स्थिति) है क्योंकि ईरान और सऊदी अरब दोनों भारत के साथ अच्छे संबंध बनाए रखना चाहते हैं। 
  • भारत ने अतीत में कई बार प्रतिद्वंद्वियों के बीच हस्तक्षेप करने की अपनी सफलतापूर्ण क्षमता का प्रदर्शन किया है। उदाहरण के लिये यह इज़राइल के साथ-साथ फिलिस्तीन और अमेरिका के साथ-साथ रूस के साथ संबंधों को बनाए रखने में कामयाब रहा है।
  • इन उदाहरणों के कारण यह दुनिया में 'संतुलन शक्ति' (balancing power) के रूप में जाना जाता है। ईरान और सऊदी दोनों जानते हैं कि भारत कभी भी एक को छोड़कर दूसरे को नहीं चुनना चाहेगा।

निष्कर्ष
ये वो आदर्श स्थिति है जिसे भारत संचालित करना चाहता है लेकिन सवाल यह उठता है कि अगर ईरान और सऊदी अरब के बीच कोई युद्ध या बड़ा संघर्ष हुआ तो भारत का कदम क्या होगा और क्या होना चाहिये? उस समय भारत को कुछ ‘कुशल कूटनीति’ (deft diplomacy) की आवश्यकता होगी, ताकि ईरान और सऊदी दोनों यह समझें कि उनमें से किसी एक के साथ नई दिल्ली के संबंध दूसरे की कीमत पर नहीं बन सकते हैं। इसके आर्थिक हित ऐसा प्रदर्शित करने में ही व्यापक हैं। आज, जबकि अमेरिका और अन्य देशों ने ईरान पर दबाव बढ़ाया है, भारत द्वारा तेहरान को यह प्रदर्शित करने की आवश्यकता है कि यह उसका मित्र है, लेकिन कोई विशिष्ट वचन देने की आवश्यकता नहीं है। भारत के तटस्थ दृष्टिकोण ने अतीत में अच्छी तरह से काम किया है और भविष्य में भी अच्छी तरह से काम करना चाहिये।