आयातित मुद्रास्फीति | 09 Sep 2019
संदर्भ
कमज़ोर स्थानीय और वैश्विक आर्थिक संकेतकों के प्रभाव से भारतीय रुपए की स्थिति 72 रुपए प्रति डॉलर तक पहुँच गई है। बीते कुछ दिनों में घरेलू मुद्रा के कमज़ोर होने से भारतीय अर्थव्यवस्था पर आयातित मुद्रास्फीति (Imported Inflation) के बादल मंडरा रहे हैं।
कमज़ोर हैं अर्थव्यवस्था के हालात
- वर्तमान में भारत काफी कमज़ोर आर्थिक स्थिति का सामना कर रहा है, वित्तीय वर्ष 2019-20 की पहली तिमाही में देश की GDP वृद्धि दर विगत 6 वर्षों के सबसे न्यूनतम स्तर अर्थात् 5 प्रतिशत पर पहुँच गई है।
- देश की घरेलू मांग में भी काफी कमी देखने को मिली है, लगभग सभी सेक्टर स्लोडाउन (Slowdown) का सामना कर रहे हैं। देश के ऑटोमोबाइल सेक्टर व एफएमसीजी (FMCG) सेक्टर सहित कई अन्य क्षेत्रों के उत्पादन में गिरावट देखी गई है।
- वहीं राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कारकों के प्रभाव से भारत की मुद्रा की स्थिति भी काफी कमज़ोर हो रही है। विशेषज्ञों के अनुसार, यदि भारतीय रुपए में गिरावट इसी प्रकार जारी रहती है, तो मुद्रास्फीति पर इसका काफी असर पड़ेगा।
- आँकड़ों के अनुसार, घरेलू मुद्रा इस साल अब तक लगभग 2.72 प्रतिशत तक गिर गई है।
क्या होती है आयातित मुद्रास्फीति?
- जब आयातित वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि के कारण किसी देश में सामान्य मूल्य स्तर बढ़ जाता है, तो इसे आयातित मुद्रास्फीति (Imported Inflation) कहा जाता है।
- हालाँकि सदैव ऐसा नहीं होता कि आयातित वस्तुओं की कीमत में वृद्धि के कारण ही आयातित मुद्रास्फीति में वृद्धि हो। कभी-कभी घरेलू मुद्रा के मूल्यह्रास (Depreciation) के कारण भी आयातित मुद्रास्फीति बढ़ सकती है।
- उदाहरण के लिये यदि किसी विशेष अवधि में अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपए में 20 प्रतिशत की गिरावट आती है, तो तेल की कीमत भी उसी अनुपात से बढ़ेगी और मूल्य स्तर तथा मुद्रास्फीति को प्रभावित करेगी।
- भारत कच्चे तेल की अपनी ज़रूरतों का लगभग 80 प्रतिशत हिस्सा आयात करता है। यदि अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमतों में वृद्धि होती है तो स्वाभाविक है कि भारत को अधिक कीमत चुकानी होगी, जिसके कारण देश का व्यापार घाटा (Trade Deficit) बढ़ सकता है।
व्यापार घाटा
आयात और निर्यात के अंतर को व्यापार संतुलन (Balance of Trade) कहते हैं। जब कोई देश निर्यात की तुलना में आयात अधिक करता है तो उसे व्यापार घाटे (Trade Deficit) का सामना करना पड़ता है।
आयातित मुद्रास्फीति के कारण
- घरेलू मुद्रा का मूल्यह्रास : आयातित मुद्रास्फीति का सबसे बड़ा कारण है घरेलू मुद्रा के मूल्य में गिरावट होती है। विदेशी मुद्रा बाज़ार में मुद्रा का जितना अधिक मूल्यह्रास होता है, आयात की कीमत भी उतनी ही अधिक होती है और परिणामस्वरूप देश के बाहर वस्तुओं और सेवाओं को खरीदने के लिये अधिक धन की आवश्यकता होती है। जब देश में आयात करने वाली कंपनियों को अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में वस्तुएँ महँगी मिलेंगी तो वे भी उसी अनुपात में देश में वस्तुओं की कीमत में वृद्धि करेंगी और आम जनता के लिये वस्तु अपेक्षाकृत महँगी हो जाएगी।
मुद्रा के मूल्यह्रास का अर्थ
- विदेशी मुद्रा भंडार के घटने या बढ़ने का असर किसी भी देश की मुद्रा पर पड़ता है। चूँकि अमेरिकी डॉलर को अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा माना गया है जिसका अर्थ यह है कि निर्यात की जाने वाली सभी वस्तुओं की कीमत डॉलर में अदा की जाती है।
- अतः भारत की विदेशी मुद्रा में कमी का तात्पर्य यह है कि भारत द्वारा किये जाने वाले वस्तुओं के आयात मूल्य में वृद्धि तथा निर्यात मूल्य में कमी।
भारत के संदर्भ में आयातित मुद्रास्फीति
- भारत के आयात में दो प्रमुख योगदानकर्ता हैं: कच्चा तेल और सोना। सामान्यतः इन दोनों उत्पादों की कीमतों में वृद्धि से देश के आयात बिल में बढ़ोतरी होती है।
- यह उम्मीद की जा रही है कि वैश्विक स्तर पर सुस्ती के कारण कच्चे तेल की कीमतें कम बनी रहेंगी, परंतु सोने की अधिक मांग के कारण उसकी कीमतों में तेज़ी आ सकती है।
- उल्लेखनीय है कि सर्राफा बाज़ार में सोने की कीमत लगभग 1540 डॉलर प्रति औंस (1 औंस=28.3495 ग्राम) है, जो कि अपने सबसे अधिकतम स्तर पर है।
मुद्रास्फीति
(Inflation)
- जब मांग और आपूर्ति में असंतुलन पैदा होता है तो वस्तुओं और सेवाओं की कीमतें बढ़ जाती हैं। कीमतों में इस वृद्धि को मुद्रास्फीति कहते हैं। भारत अपनी मुद्रास्फीति की गणना दो मूल्य सूचकांकों के आधार पर करता है- थोक मूल्य सूचकांक (Wholesale Price Index- WPI) एवं उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (Consumer Price Index- CPI)।
- अत्यधिक मुद्रास्फीति अर्थव्यवस्था के लिये हानिकारक होती है, जबकि 2-3% की मुद्रास्फीति दर अर्थव्यवस्था के लिये ठीक होती है।
- मुद्रास्फीति मुख्यतः दो कारणों से होती है, मांगजनित कारक एवं लागतजनित कारक।
- अगर मांग के बढ़ने से वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि होती है तो वह मांगजनित मुद्रास्फीति (Demand-Pull Inflation) कहलाती है।
- अगर उत्पादन के कारकों (भूमि, पूंजी, श्रम, कच्चा माल आदि) की लागत में वृद्धि से वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि होती है तो वह लागतजनित मुद्रास्फीति (Cost-Push Inflation) कहलाती है।