भारतीय अर्थव्यवस्था
समावेशी विकास को बढ़ावा देने के लिये भारत को सख्त मज़दूरी नीति लागू करने की ज़रुरत : आईएलओ
- 21 Aug 2018
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चर्चा में क्यों?
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (International Labour Organization- ILO) द्वारा प्रकाशित इंडिया वेज रिपोर्ट : वेज पॉलिसीज़ फॉर डिसेंट वर्क एंड इंक्लूसिव ग्रोथ में कहा गया है कि भारत में पिछले दो दशकों में सालाना 7% की औसत जीडीपी दर होने के बावज़ूद वेतन में कमी और असमानता की स्थिति बनी हुई है।
वेतन वृद्धि के बावज़ूद असमानता
- NSSO के अनुमानों से भी यह संकेत मिलता है कि 1993-94 और 2011-12 के बीच वास्तविक औसत दैनिक मज़दूरी दोगुनी हो गई है।
- सबसे कमज़ोर श्रेणी जिसमें ग्रामीण मज़दूर, अनौपचारिक रोज़गार, अनौपचारिक मज़दूर, महिला कर्मचारी और निम्न आय वाले कारोबारी शामिल हैं, के वेतन में तेज़ी से वृद्धि हुई है। इसके बावजूद भी वेतन में काफी असमानताएँ बनी हुई हैं।
- राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (NSSO) के रोज़गार और बेरोज़गारी सर्वेक्षण (Employment and Unemployment Survey- EUS) के अनुसार, 2011-12 में भारत में औसत मज़दूरी लगभग 247 रुपए प्रतिदिन और आकस्मिक श्रमिकों की औसत मज़दूरी अनुमानतः 143 रुपए प्रतिदिन थी।
- केवल शहरी क्षेत्र के सीमित नियमित/वेतनभोगी कर्मचारियों और उच्च कौशल वाले पेशेवरों ने औसत से अधिक वेतन प्राप्त किया।
रोज़गार के पैटर्न में मामूली बदलाव
- भारत की आर्थिक वृद्धि के परिणामस्वरूप गरीबी में गिरावट आई है, सेवा तथा उद्योग क्षेत्र में श्रमिकों के बढ़ते अनुपात के साथ रोज़गार पैटर्न में मामूली बदलाव आया है।
- श्रमिकों का एक बड़ा हिस्सा (47%) कृषि क्षेत्र में नियोजित होने के बावजूद अर्थव्यवस्था अभी भी अनौपचारिकता और विभाजन का सामना कर रहा है।
- 2011-12 के आँकड़ों के अनुसार, भारत में नियोजित कुल 51% से अधिक लोग, स्व-रोज़गार में नियोजित थे और 62% मज़दूरों को अनौपचारिक श्रमिकों के रूप में नियुक्त किया गया था।
- यद्यपि संगठित क्षेत्र के रोज़गार में वृद्धि देखी गई है लेकिन इस क्षेत्र में भी कई नौकरियाँ अनियमित या अनौपचारिक प्रकृति की ही रही हैं।
मज़दूरी में असमानता की उच्च दर
- 2004-05 के बाद से भारत में कुल मज़दूरी असमानता में कुछ हद तक कमी आने के बावजूद यह दर उच्च बनी हुई है।
- कुल मज़दूरी असमानता में यह गिरावट काफी हद तक 1993-94 और 2011-12 के बीच अनियमित श्रमिकों की मज़दूरी दोगुनी होने की वज़ह से हुई है।
- फिर भी, 1993-94 और 2004-05 के बीच नियमित श्रमिकों की मज़दूरी असमानता में होने वाली तेज़ वृद्धि 2011-12 में स्थिर हो गई।
लैंगिक आधार पर वेतन में भेदभाव
- 1993-94 में लैंगिक आधार पर वेतन में अंतर 48% था जो 2011-12 में घटकर 34% पर पहुँच गया लेकिन अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुसार, मज़दूरी में लैंगिक आधार पर किया जाने वाला अंतर अभी भी बना हुआ है।
- मज़दूरी में यह असमानता नियमित, अनियमित, शहरी और ग्रामीण सभी प्रकार के श्रमिकों के बीच है।
- ग्रामीण अर्थव्यवस्था में अनियमित श्रमिकों के रूप में कार्यरत महिलाओं की मज़दूरी सबसे कम (शहरी नियमित पुरुष श्रमिकों की कमाई का 22%) है।
- हालाँकि, औसत श्रम उत्पादकता (जिसकी गणना प्रति कर्मचारी GDP के आधार पर की जाती है) 1981 के 38.5% से घटकर 2013 में 35.4% हो गई।
समावेशी विकास के लिये सख्त मज़दूरी नियमों को लागू करने की आवश्यकता
- हालाँकि भारत 1948 में न्यूनतम मज़दूरी अधिनियम के माध्यम से पहली बार न्यूनतम मज़दूरी तय करने वाले देशों में से एक था फिर भी सभी श्रमिकों के लिये व्यापक न्यूनतम मज़दूरी तय करने के मामले में चुनौतियाँ अभी भी मौजूद हैं क्योंकि भारत में न्यूनतम मज़दूरी निर्धारित करने की प्रणाली काफी जटिल है।
- कर्मचारियों के लिये राज्य सरकारों द्वारा न्यूनतम मज़दूरी निर्धारित की जाती है और इसने देश भर में 1709 विभिन्न दरों का नेतृत्व किया है। चूँकि कवरेज पूरा नहीं हुआ है, इसलिये ये दरें लगभग 66% दैनिक श्रमिकों पर लागू होती हैं।
- 1990 के दशक में एक राष्ट्रीय न्यूनतम मज़दूरी स्तर पेश किया गया था जो 2017 में बढ़कर 176 रुपए प्रतिदिन के स्तर पर पहुँच गया लेकिन 1970 के दशक से अब तक कई दौर की चर्चाओं के बावज़ूद यह न्यूनतम मज़दूरी स्तर कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं है।
- 2009-10 में लगभग 15% वेतनभोगी श्रमिकों और 41% अनियमित श्रमिकों ने इस संकेतक ‘राष्ट्रीय न्यूनतम मज़दूरी’ से कम मज़दूरी प्राप्त की।
- पुरुषों के मुकाबले महिलाओं के लिये कम वेतन की दर के अलावा लगभग 62 मिलियन श्रमिक ऐसे हैं जिन्हें राष्ट्रीय न्यूनतम मज़दूरी से कम भुगतान किया जाता है।
न्यूनतम मज़दूरी प्रणाली में सुधार की सिफारिशें
रिपोर्ट में न्यूनतम मज़दूरी प्रणाली में सुधार के लिये कई सिफारिशें की गई हैं। इनमें से कुछ इस प्रकार हैं-
- रोज़गार के संबंध में सभी श्रमिकों को कानूनी कवरेज प्रदान करना।
- न्यूनतम मज़दूरी प्रणालियों पर सामाजिक भागीदारों के साथ पूर्ण परामर्श सुनिश्चित करना।
- नियमित साक्ष्य-आधारित समायोजन करना।
- न्यूनतम मज़दूरी संरचनाओं को क्रमिक रूप से समेकित करना और सरल बनाना।
- अधिक सुनिश्चितता के लिये न्यूनतम मज़दूरी कानून को प्रभावी रूप से लागू करना।
- यह समय-समय पर और नियमित आधार पर सांख्यिकीय डेटा संग्रह करने की भी मांग करता है।
समुचित कार्य और समावेशी विकास के लिये सिफारिशें
यह रिपोर्ट समुचित कार्य और समावेशी विकास को प्राप्त करने के लिये कई अन्य पूरक कार्यों की भी सिफारिश करती है। जो इस प्रकार हैं-
- श्रम उत्पादकता को बढ़ावा देने और टिकाऊ उद्यमों के विकास के लिये कौशल विकास को बढ़ावा देना।
- समान कार्य के लिये बराबर वेतन को बढ़ावा देना।
- अनौपचारिक अर्थव्यवस्था को औपचारिक बनाना।
- श्रमिकों के लिये सामाजिक सुरक्षा को मज़बूत करना शामिल है।
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन
(International Labour Organization - ILO)
- यह ‘संयुक्त राष्ट्र’ की एक विशिष्ट एजेंसी है, जो श्रम-संबंधी समस्याओं/मामलों, मुख्य रूप से अंतर्राष्ट्रीय श्रम मानक, सामाजिक संरक्षा तथा सभी के लिये कार्य अवसर जैसे मामलों को देखती है।
- यह संयुक्त राष्ट्र की अन्य एजेंसियों से इतर एक त्रिपक्षीय एजेंसी है, अर्थात् इसके पास एक ‘त्रिपक्षीय शासी संरचना’ (Tripartite Governing Structure) है, जो सरकारों, नियोक्ताओं तथा कर्मचारियों का (सामान्यतः 2:1:1 के अनुपात में) इस अंतर्राष्ट्रीय मंच पर प्रतिनिधित्व करती है।
- यह संस्था अंतर्राष्ट्रीय श्रम कानूनों का उल्लंघन करने वाली संस्थाओं के खिलाफ शिकायतों को पंजीकृत तो कर सकती है, किंतु यह सरकारों पर प्रतिबंध आरोपित नहीं कर सकती है।
- इस संगठन की स्थापना प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् ‘लीग ऑफ नेशन्स’ (League of Nations) की एक एजेंसी के रूप में सन् 1919 में की गई थी। भारत इस संगठन का एक संस्थापक सदस्य रहा है।
- इस संगठन का मुख्यालय स्विट्ज़रलैंड के जेनेवा में स्थित है।
- वर्तमान में 187 देश इस संगठन के सदस्य हैं, जिनमें से 186 देश संयुक्त राष्ट्र के 193 सदस्य देशों में से हैं तथा एक अन्य दक्षिणी प्रशांत महासागर में अवस्थित ‘कुक्स द्वीप’ (Cook's Island) है।
- ध्यातव्य है कि वर्ष 1969 में इसे प्रतिष्ठित ‘नोबेल शांति पुरस्कार’ प्रदान किया गया था।