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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

रोहिंग्या मामले में ICJ की कार्रवाई

  • 27 Jan 2020
  • 8 min read

प्रीलिम्स के लिये:

अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय-ICJ,

मेन्स के लिये: 

रोहिंग्या समस्या, अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय का महत्त्व

चर्चा में क्यों?

वर्ष 2016-17 के दौरान म्याँमार के रखाइन प्रांत में रोहिंग्या मुस्लिमों के विरुद्ध हुई हिंसा के मामले में अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय (International Court of Justice-ICJ) ने 22 जनवरी, 2020 को (अंतिम फैसला आने तक रोहिंग्या लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये) कुछ अंतरिम निर्देश जारी किये हैं।

मुख्य बिंदु:

  • अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय (International Court of Justice-ICJ) ने म्याँमार में रोहिंग्या जनसंहार मामले में गाम्बिया द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए म्याँमार सरकार के लिये कुछ निर्देश जारी किये हैं।
  • न्यायालय ने म्याँमार को रोहिंग्या मुस्लिमों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये अनिवार्य एवं प्रभावी कदम उठाने के निर्देश दिये।
  • इसके साथ ही न्यायालय ने अपने आदेश में म्याँमार को नरसंहार के आरोपों से जुड़े साक्ष्यों की सुरक्षा सुनिश्चित करने को कहा।

क्या था मामला?

  • नवंबर 2019 में म्याँमार पर पश्चिमी अफ़्रीकी देश गाम्बिया (Republic of Gambia) ने नरसंहार पर संयुक्त राष्ट्र के समझौते (Genocide Convention) के उल्लंघन का आरोप लगाते हुए रोहिंग्या मामले को अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के समक्ष उठाया था।
  • गाम्बिया ने इस मामले में अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय से म्याँमार सरकार के खिलाफ 6 अंतरिम निर्देशों को जारी करने की मांग की थी, जिसमें म्याँमार सरकार द्वारा रोहिंग्या मामले की जाँच कर रही संयुक्त राष्ट्र की संस्था का सहयोग करना भी शामिल था।

नरसंहार पर संयुक्त राष्ट्र का समझौता (Genocide Convention): 

संयुक्त राष्ट्र महासभा में कनवेंशन ऑन द प्रिवेंशन एंड पनिशमेंट ऑफ द क्राइम ऑफ जेनोसाइड (Convention on the Prevention and Punishment of the Crime of Genocide) का मसौदा 9 दिसंबर, 1948 को प्रस्तुत किया गया था। 12 जनवरी, 1951 से यह समझौता सदस्य देशों पर लागू हुआ। इस समझौते का उद्देश्य युद्ध या अन्य परिस्थितियों में जनसंहार को रोकना और जनसंहार में शामिल लोगों/समूहों को दंडित कराना है।

  • इस मामले में 10 दिसंबर, 2019 को अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में अपने देश का पक्ष रखते हुए म्याँमार की राज्य सलाहकार आंग सान सू की ने गाम्बिया पर घटनाओं को गलत ढंग से प्रस्तुत करने का आरोप लगाया था।
  • सू की ने मामले को ‘आंतरिक संघर्ष’ की संज्ञा देते हुए इसे सेना द्वारा स्थानीय चरमपंथियों के खिलाफ की गई कार्रवाई बताया था।

अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के आदेश का म्याँमार पर प्रभाव:

  • यद्यपि म्याँमार के खिलाफ न्यायालय का कोई भी फैसला विश्वपटल पर म्याँमार की छवि धूमिल करता है परंतु मामले में न्यायालय द्वारा जारी अंतरिम निर्देश म्याँमार पर नरसंहार के आरोपों की पुष्टि नहीं करते हैं।
  • वास्तव में मामले में न्यायालय द्वारा किसी राष्ट्र के खिलाफ जारी अंतरिम निर्देश (जब तक कोई मामला लंबित हो) निरोधक आदेश मात्र हैं, इन्हें ज़्यादा-से-ज़्यादा प्रतिबंधों की तरह देखा जा सकता है।
  • अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय द्वारा किसी देश के खिलाफ एक बार जारी अंतरिम आदेश को चुनौती नहीं दी जा सकती और साथ ही सदस्य देश इनका पालन करने के लिये बाध्य होते हैं।
  • हालाँकि अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के फैसलों को लागू कराने की सीमा की बात विधि-विशेषज्ञों द्वारा अक्सर दोहराई जाती रही है।

न्यायालय के फैसलों को लागू कराने की सीमाएँ: 

  • संयुक्त राष्ट्र संघ घोषणा-पत्र के अनुच्छेद 94 के अनुसार, सभी सदस्य देशों के लिये अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के आदेशों का पालन करना अनिवार्य है। हालाँकि किसी भी देश से अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के आदेशों के अनुरूप कार्रवाई, अंतर्राष्ट्रीय कानूनों में रहकर और संबंधित देश की सहमति से ही कराई जा सकती है।
  • यदि कोई देश अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के आदेशों की अवहेलना करता है और इससे अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा तथा शांति को खतरा हो, तो उस स्थिति में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (United Nations Security Council) संबंधित देश पर प्रतिबंध लगाकर उसे आदेशों का पालन करने के लिये बाध्य कर सकती है। (हालाँकि आज तक संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के आदेशों का पालन न करने के मामले में किसी देश के खिलाफ कोई कठोर कार्रवाई नहीं की है।) 
    · सुरक्षा परिषद के हस्तक्षेप के बाद भी अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के आदेशों के क्रियान्वयन में कई अन्य बाधाएँ हैं।
  • सुरक्षा परिषद के 5 स्थायी सदस्य देशों में से कोई भी देश अपने निषेधाधिकार (Veto Power) का उपयोग कर अपने या अपने किसी सहयोगी देश के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के आदेशों पर रोक लगा सकता है।
  • उदाहरण के लिये वर्ष 1989 के निकारागुआ बनाम संयुक्त राष्ट्र अमेरिका मामले में न्यायालय ने अमेरिका (USA) द्वारा निकारागुआ के खिलाफ की गई गैर-कानूनी सैनिक कार्रवाई के आरोप में अमेरिका को दोषी पाया था, परंतु अमेरिका ने न्यायालय के आदेश का पालन करने से इनकार कर दिया था।

निष्कर्ष:

  • हालाँकि म्याँमार की सर्वोच्च नेता सू की ने अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में अपने देश का पक्ष रखते हुए नरसंहार के आरोपों को पूरी तरह गलत बताया था, परंतु उन्होंने रोहिंग्या लोगों के पुनर्वास के लिये म्याँमार सरकार की प्रतिबद्धता को अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में दोहराया था। ऐसे में न्यायालय के हालिया आदेश से रोहिंग्या लोगों के पुनर्वास और क्षेत्रीय शांति की उम्मीद को बल मिला हैं।
  • अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के इतिहास को देखकर ऐसा नहीं लगता कि इस मामले में अंतिम फैसला जल्दी आ सकता है या न्यायालय म्याँमार के खिलाफ कोई फैसला देगा। 
  • परंतु रोहिंग्या मामले पर वर्तमान वैश्विक दृष्टिकोण को देखते हुए म्याँमार भी कोई ऐसा कदम उठाने से बचेगा जिससे अंतर्राष्ट्रीय पटल पर उसकी छवि और अधिक धूमिल हो। 

स्रोत: द इंडियन एक्सप्रेस 

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