अंतर्राष्ट्रीय संबंध
भारत में आर्थिक सुधारों का विरोध क्यों हो रहा है?
- 17 Aug 2017
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संदर्भ
हाल ही में नई दिल्ली में एक पुस्तक का अनावरण करते हुए वित्त मंत्री अरुण जेटली ने दावा किया कि भारत में आर्थिक सुधारों के प्रति प्रतिरोध में अब धीरे-धीरे कमी आ रही है। उन्होंने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि चूँकि आर्थिक सुधारों की कोई परिभाषित सीमा रेखा नहीं होती है, अत: भारत की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाने हेतु आवश्यक दिशा-निर्देशों एवं नियमों को सुव्यवस्थित बनाने तथा देश की उन्नति के लिये अधिक से अधिक निजी निवेश को प्रोत्साहित करने के लिये केंद्र सरकार पूरी तरह से प्रतिबद्ध है।
राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय सर्वेक्षण अध्ययनों के अनुसार
- राष्ट्रीय प्रतिनिधि सर्वेक्षणों (Nationally representative surveys) के आँकड़ों से प्राप्त जानकारी के अनुसार, जिन सुधारों के विषय में वित्त मंत्री द्वारा चर्चा की गई है वे वस्तुतः उदारीकरण, वैश्वीकरण एवं निजीकरण सहित कईं अन्य प्रकार की नीतियों के मिश्रण को निरूपित करते हैं, जो भारत की आर्थिक उन्नति के मार्ग में सबसे महत्त्वपूर्ण आयाम है।
- सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज़ द्वारा आयोजित एक सफल सर्वेक्षण से प्राप्त जानकारी के अनुसार, पिछले कुछ समय से भारत में विदेशी कंपनियों को स्वतंत्र रूप से निवेश एवं व्यापार संचालित करने के संबंध में काफी समर्थन प्राप्त हो रहा है।
- ऐसी ही पुष्टि पीयू रिसर्च सेंटर (Pew Research Centre) के ग्लोबल एटीट्यूड्स सर्वे (Global Attitudes Survey) से प्राप्त डेटा से भी होती है।
वैश्वीकरण के दौर में भारत
- वैश्वीकरण को पश्चिमी देशों में बहुत अच्छा नहीं माना जाता है, हालाँकि भारत के संबंध में ऐसा नहीं है। यहाँ वैश्वीकरण को एक सकारात्मक पहल के रूप में प्रोत्साहन प्राप्त है।
- उल्लेखनीय है कि भारत द्वारा आर्थिक सुधारों को स्वीकार किये जाने के पश्चात् जहाँ एक ओर देश उन्नति की ओर अग्रसर हुआ है, वहीं दूसरी ओर देश में गरीबी का स्तर भी निरंतर कम होता जा रहा है।
- हालाँकि, देश में वैश्वीकरण और खुलेपन के बढ़ते समर्थन के बावजूद ऐसे कईं शक्तिशाली हित समूह हैं जो सरकार को अर्थव्यवस्था के इस खुलेपन से रोकने का प्रयास करते रहते हैं। उदाहरण के लिये, चीनी लॉबी (sugar lobby) द्वारा घरेलू उत्पादकों की रक्षा के लिये चीनी पर आयात शुल्क बढ़ाने के लिये निरंतर सरकार पर दबाव बनाया जा रहा था, जिसमें अंततः वह सफल भी रही।
श्रम सुधारों के संदर्भ में
- स्पष्ट है कि ऐसे प्रयासों से आर्थिक सुधारों की गति धीमी हो गई है। हालाँकि इन सबके बावजूद सुधारों का एक ऐसा क्षेत्र है, जिसने सबसे अधिक मात्रा में ध्यान आकर्षित किया है, वह है श्रम सुधार ।
- बदलते समय एवं परिस्थितियों के मद्देनज़र श्रम सुधारों में फर्मों और कर्मचारियों के बीच संबंधों को नियंत्रित करने वाले कानूनी ढाँचे में पर्याप्त बदलावों को शामिल करने के संदर्भ में सरकार श्रम सुधारों के विषय में बहुत सतर्कता से कार्य कर रही है।
- इसके बावजूद सी.एस.डी.एस. आँकड़ों से प्राप्त जानकारी के अनुसार, सरकार द्वारा ट्रेड यूनियनों के प्रति दिखाई गई सहानुभूति और उनके द्वारा स्वीकृत की गई शर्तों के बाद से हड़ताल जैसी परिस्थितियों में कमी आई है।
- संभवतः ऐसा इसलिये भी है क्योंकि वैश्वीकरण के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था में श्रम के क्षेत्र में जिन मानकों का अनुसरण किया जा रहा है वे सभी अंतर्राष्ट्रीय स्तर के मानक हैं।
- जहाँ तक बात है अर्थव्यवस्था के निजीकरण की, तो इस संबंध में अभी भी देश में संदेह की स्थिति व्याप्त है। ऐसे बहुत से लोग हैं जिनका यह मानना है कि अर्थव्यवस्था का निजीकरण विभिन्न वर्गों के मध्य शोषण में वृद्धि करेगा जोकि भारत जैसी विकासशील अर्थव्यवस्था के लिये घातक सिद्ध हो सकता है।
- ध्यातव्य है कि वर्ष 2009 के आम चुनावों के बाद किये गए एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि सर्वेक्षण के उत्तरदाताओं (46%) का अधिकतर हिस्सा सरकारी कारखानों और व्यवसायों के निजीकरण के विरोध में था जबकि मात्र 22% लोगों द्वारा ही निजीकरण के पक्ष में उत्तर दिया गया तथा शेष 32% लोगों द्वारा इस संबंध में कोई राय व्यक्त नहीं की गई।
निष्कर्ष
हाल ही में किये गए एक अन्य सर्वेक्षण से प्राप्त जानकारी के अनुसार, निजीकरण के विरोध में उत्तर देने वाले लोगों की संख्या में ज़बरदस्त इज़ाफा हुआ है, जो इस बात कि ओर संकेत करता है कि भारतीय जनता वैश्वीकरण एवं उदारीकरण को तो स्वीकार करती है परंतु, निजीकरण को नहीं। यह बिलकुल भी आश्चर्यजनक नहीं है, क्योंकि भारत में गुणवत्तापूर्ण निजी क्षेत्र की नौकरी के स्थान पर एक कम गुणवत्तापूर्ण सरकारी नौकरी को अधिक महत्त्व दिया जाता है जो कि सरकारी नौकरी के प्रति हमारे मोह को दर्शाता है। इसका स्पष्ट चित्र अक्सर हमें नौकरियों में आरक्षण की माँग के रूप में नज़र आता दिखता है ।