गुजरात निषेध कानून | 29 Jun 2021

प्रिलिम्स के लिये:

गुजरात निषेध कानून, बॉम्बे आबकारी अधिनियम, 1878, गुजरात निषेध अधिनियम, 1949, बॉम्बे राज्य और अन्य बनाम एफएन बलसरा

मेन्स के लिये:

गुजरात में शराब निषेध से संबंधित मुद्दे

चर्चा में क्यों?

हाल ही में गुजरात निषेध अधिनियम, 1949 को बॉम्बे निषेध अधिनियम के रूप में लागू होने के सात दशक से अधिक समय बाद गुजरात उच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गई है।

  • गुजरात निषेध अधिनियम, 1949 के तहत राज्य में शराब के निर्माण, बिक्री और खपत पर प्रतिबंध को 'मनमानापन' और 'निजता के अधिकार' के उल्लंघन के आधार पर चुनौती दी गई है।

प्रमुख बिंदु:

पृष्ठभूमि:

  • बॉम्बे आबकारी अधिनियम, 1878: शराब निषेध का पहला संकेत बॉम्बे आबकारी अधिनियम, 1878 (बॉम्बे प्रांत में) के माध्यम से प्राप्त होता है।
    • यह अधिनियम वर्ष 1939 और 1947 में किये गए संशोधनों के माध्यम से अन्य बातों तथा मद्य निषेध के पहलुओं के अलावा नशीले पदार्थों पर शुल्क लगाने से संबंधित था।
  • बॉम्बे निषेध अधिनियम,1949: बॉम्बे आबकारी अधिनियम 1878 में शराबबंदी लागू करने के सरकार के फैसले के दृष्टिकोण में "कई खामियाँ" थीं।
    • इसके कारण बॉम्बे प्रोहिबिशन एक्ट,1949 लाया गया।
    • सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने वर्ष 1951 में ‘बॉम्बे राज्य और अन्य बनाम एफएन बलसरा’ के फैसले में कुछ धाराओं को छोड़कर अधिनियम को व्यापक रूप से बरकरार रखा।
  • गुजरात निषेध अधिनियम, 1949:
    • वर्ष 1960 में बॉम्बे प्रांत के महाराष्ट्र और गुजरात राज्यों में पुनर्गठन के बाद विशेष रूप से वर्ष 1963 में महाराष्ट्र राज्य में निरंतर संशोधन एवं उदारीकरण जारी रहा।
      • कानून के उदारीकरण का आधार अवैध शराब के कारोबार पर लगाम लगाना था।
    • गुजरात ने वर्ष 1960 में शराबबंदी नीति को अपनाया और बाद में इसे और अधिक कठोरता के साथ लागू करने का विकल्प चुना, लेकिन विदेशी पर्यटकों तथा आगंतुकों के लिये शराब का परमिट प्राप्त करने की प्रक्रिया को भी आसान बना दिया।
    • वर्ष 2011 में अधिनियम का नाम बदलकर गुजरात निषेध अधिनियम कर दिया गया। वर्ष 2017 में गुजरात निषेध (संशोधन) अधिनियम को इस राज्य में शराब के निर्माण, खरीद, बिक्री करने और इसके परिवहन पर दस साल तक की जेल के प्रावधान के साथ पारित किया गया।

अधिनियम को चुनौती देने काआधार:

  • निजता का अधिकार: किसी व्यक्ति के भोजन और पेय पदार्थ के चुनाव के अधिकार में राज्य द्वारा कोई भी अतिक्रमण एक अनुचित प्रतिबंध है और व्यक्ति की निर्णय लेने की क्षमता एवं स्वायत्तता को नष्ट करता है।
  • वर्ष 2017 के बाद से सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गए विभिन्न निर्णयों में ‘निजता के अधिकार’ को मौलिक अधिकार के रूप में स्थापित किया गया है।
  • स्पष्ट मनमानी अथवा निरंकुशता: राज्य के बाहर के पर्यटकों को स्वास्थ्य परमिट और अस्थायी परमिट देने से संबंधित प्रावधानों को चुनौती देते हुए इस अधिनियम की मनमानी प्रकृति को रेखांकित किया गया है।
    • याचिकाकर्त्ता का मानना है कि अधिनियम के प्रावधानों के माध्यम से राज्य द्वारा लोगों को वर्गों में विभाजित किया जा रहा है कि कौन राज्य में शराब का सेवन कर सकता है और कौन नहीं, जो कि संविधान के अनुच्छेद-14 के तहत समानता के अधिकार का स्पष्ट उल्लंघन है।

प्रतिबंध के पक्ष में तर्क

  • हिंसा की भावना को बढ़ाना: विभिन्न शोधों और अध्ययनों से पता चला है कि शराब हिंसा की भावना को बढ़ावा देती है।
    • महिलाओं और बच्चों के खिलाफ घरेलू हिंसा के अधिकांश अपराधों के कारणों को शराब की लत में खोजा जा सकता है।
  • राज्य का संवैधानिक दायित्व: समर्थकों का मानना है कि इस कानून को चुनौती देना, ‘लोगों के स्वास्थ्य एवं जीवन की रक्षा करने के राज्य के प्राथमिक कर्तव्य के संवैधानिक दायित्व को चुनौती देने के समान है।
  • महात्मा गांधी ने शराब के ‘राष्ट्रव्यापी निषेध’ की वकालत की थी।

निषेध के विरुद्ध तर्क

  • राजस्व का नुकसान: शराब से होने वाली कर राजस्व की प्राप्ति किसी भी सरकार के राजस्व का एक बड़ा और महत्त्वपूर्ण हिस्सा होता है। यह राजस्व सरकार को कई जन कल्याणकारी योजनाओं को वित्तपोषित करने में सक्षम बनाता है। इस राजस्व के अभाव में राज्य की लोक कल्याणकारी कार्यक्रमों को चलाने की क्षमता गंभीर रूप से प्रभावित होती है।
  • न्यायपालिका पर बोझ: बिहार ने अप्रैल 2016 में पूर्ण शराबबंदी की शुरुआत की थी, यद्यपि इससे निश्चित रूप से शराब की खपत में कमी आई है, किंतु इसके कारण संबंधित सामाजिक, आर्थिक और प्रशासनिक लागत लाभ में काफी अधिक बढ़ोतरी भी हुई है। साथ ही राज्य में शराबबंदी ने न्यायिक प्रशासन के कार्यभार को काफी अधिक बढ़ा दिया है।
    • गौरतलब है कि बिहार की सीमा से लगे उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के ज़िलों में शराब की बिक्री में बढ़ोतरी दर्ज की गई है।
  • रोज़गार का स्रोत: वर्तमान में भारतीय निर्मित विदेशी शराब उद्योग प्रतिवर्ष करों के रूप में 1 लाख करोड़ रुपए से अधिक का योगदान देता है। यह 35 लाख किसान परिवारों की आजीविका का समर्थन करता है और उद्योग में कार्यरत लाखों श्रमिकों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से रोज़गार प्रदान करता है।

अन्य राज्यों में निषेध (Prohibition in Other States): 

  • बिहार, मिज़ोरम, नगालैंड और केंद्रशासित प्रदेश लक्षद्वीप में शराबबंदी लागू है।

संबंधित संवैधानिक प्रावधान:

  • राज्य विषय: भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत शराब राज्य सूची का विषय है।
  • अनुच्छेद 47: अनुच्छेद 47 के तहत भारत के संविधान में नीति निर्देशक सिद्धांतों में कहा गया है कि "राज्य मादक पेयों और स्वास्थ्य के लिये हानिकर ओषधियों के औषधीय प्रयोजनों से भिन्न उपभोग का प्रतिषेध करने का प्रयास करेगा"।

आगे की राह:

  • नैतिकता, निषेध या पसंद की स्वतंत्रता जैसे मुद्दों के बीच अर्थव्यवस्था, रोज़गार आदि कारक भी हैं, जिन्हें नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता है। इसके कारणों और प्रभावों पर एक सूचित तथा रचनात्मक संवाद की आवश्यकता है।
  • नीति निर्माताओं को ऐसे कानून बनाने पर ध्यान देना चाहिये जो ज़िम्मेदार व्यवहार और अनुपालन को प्रोत्साहित करते हैं।
  • शराब के उपभोग की उम्र को पूरे देश में एक समान किया जाना चाहिये और इससे कम उम्र के किसी भी व्यक्ति को शराब खरीदने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिये।
  • शराब के नशे में सार्वजनिक व्यवहार, प्रभाव व घरेलू हिंसा और शराब पीकर गाड़ी चलाने के खिलाफ सख्त कानून बनाए जाने चाहिये।
  • सरकारों को शराब से अर्जित राजस्व का एक हिस्सा सामाजिक शिक्षा, नशामुक्ति और सामुदायिक समर्थन पर खर्च के लिये अलग रखना चाहिये।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस