कृषि
भारत में घट रही है अनाज उत्पादकता : वर्ल्ड एटलस ऑफ डेज़र्टीफिकेशन रिपोर्ट
- 27 Jun 2018
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चर्चा में क्यों?
हाल ही में यूरोपीय कमीशन के ज्वांइट रिसर्च सेंटर की ‘वर्ल्ड एटलस ऑफ डेजर्टीफिकेशन’ (World Atlas of Desertification) नामक रिपोर्ट में पर्यावरण के प्रभावों के संबंध में आँकड़े प्रस्तुत किये गए हैं। इन आँकड़ों के अनुसार आने वाले कुछ वर्षों में दुनिया में भोजन की समस्या ज़ोर पकड़ने वाली है। इस रिपोर्ट में जो सबसे चिंताजनक पहलू उजागर किया गया है वह यह कि भारत, चीन और उप-सहारा के अफ्रीकी देशों में स्थिति सबसे गंभीर होने वाली है।
इस समस्या का मूल कारण
- इस रिपोर्ट के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के चलते प्रदूषण, भू-क्षरण और सूखे जैसी समस्याओं ने जहाँ पृथ्वी के तीन-चौथाई भूमि क्षेत्र की गुणवत्ता को नष्ट कर दिया है, वहीं दूसरी ओर, इसका परिणाम भोजन की कमी के रूप में नज़र आ रहा है।
- यदि क्षति की यही दर चलती रही तो सदी के मध्य तक इस आँकड़े में और भी अधिक वृद्धि हो जाएगी जो कि एक बेहद चिंतनीय मुद्दा है।
- स्पष्ट है कि यदि इसी गति से भूमि की गुणवत्ता में ह्रास होता गया तो कृषि पैदावार के साथ-साथ जल जैसे दूसरे महत्त्वपूर्ण आवश्यक संसाधनों में भी उल्लेखनीय कमी आने की संभावना है।
वनों का कटाव और बढ़ता शहरीकरण : अन्य उत्तरदायी कारक
- इसके साथ-साथ वनों के कटाव और बढ़ते शहरीकरण को भी अन्य महत्त्वपूर्ण कारकों के रूप में चिह्नित किया गया है।
- इस भयावह स्थिति से बचने के लिये मृदा संरक्षण, सतत् भूमि और जल के सीमित उपयोग जैसी नीतियों एवं उपायों को कृषि, वन और जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में भी लागू करना होगा ताकि भावी पीढ़ी के लिये पर्यवारण को सुरक्षित रखने के साथ-साथ सभी के लिये भोजन के सतत् विकास लक्ष्यों को हासिल किया जा सके।
2030 तक भू-क्षरण प्रक्रिया को थामना है बेहद ज़रुरी
- इस मुद्दे के परिप्रेक्ष्य में केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा भी एक महत्वपूर्ण स्रोत के रूप में भूमि और उसके संसाधनों के संरक्षण एवं विकास की अहमियत पर विशेष बल दिया गया है।
- इसके अनुसार, मानव स्वास्थ्य प्रर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना 2030 तक भूमि क्षरण प्रक्रिया को थामे रखना बेहद ज़रूरी है।
भारत के परिपेक्ष्य में बात करें तो
- भारत में भूमि क्षरण का दायरा 96.40 मिलियन हेक्टेयर है जो कि देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 29.30 प्रतिशत है। देश में प्रति मिनट 23 हेक्टेयर शुष्क भूमि सूखा और मरुस्थलीकरण की चपेट में आ जाती है जिसकी वज़ह से 20 मिलियन टन अनाज का संभावित उत्पादन प्रभावित होता है।
- देश का 70 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र शुष्क भूमि के रूप में है, जबकि 30 प्रतिशत ज़मीन भू-क्षरण और 25 प्रतिशत भूमि मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया से गुज़रती है। यही कारण है कि पूरी दुनिया में प्रतिवर्ष करीब 24 अरब टन उपजाऊ मिट्टी और 27 हज़ार जैव प्रजातियाँ नष्ट हो जाती हैं।
- जहाँ तक बात है शुष्क क्षेत्रों की तो दुनिया की करीब 30 प्रतिशत आबादी शुष्क क्षेत्रों में रहती है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित 21 विश्व धरोहर स्थलों में से 8 शुष्क क्षेत्रों में हैं।
जहाँ तक बात है सुधारों की तो
- भू-क्षरण रोकने के लिये अन्य देशों द्वारा किये गए उपायों की सराहना करते हुए मंत्रालय द्वारा इस संदर्भ में बुरकिना फासो के साहेल एकीकृत समतल भूमि पारिस्थितिकी प्रबंधन तथा भू-क्षरण और सूखे से निपटने में चीन की ओर से उसके अपने क्षेत्र में किये जा रहे प्रयासों का भी जिक्र किया गया।
- भारत के संदर्भ में बात करें तो उत्तराखंड में आजीविका का स्तर सुधारने के लिये भूमि, जल और जैव विविधता के संरक्षण और प्रबंधन संबंधी उपाय किये जा रहे हैं।
- भूमि और पारिस्थितिकी प्रबंधन क्षेत्र में नवाचार के ज़रिये टिकाऊ ग्रामीण आजीविका सुरक्षा हासिल करने के भी प्रयास किये जा रहे हैं।
- भूमि क्षरण दुनिया के सामने एक सबसे बड़ी चुनौती है। भारत के लिये अच्छी खबर यह है कि इस समस्या से प्रभावी तरीके से निपटा जा रहा है।
यूएनसीसीडी के तहत चार दिवसीय एशिया प्रशांत कार्यशाला
- विदित हो कि अप्रैल माह में मरुस्थलीकरण की समस्या से निबटने के लिये संयुक्त राष्ट्र मरुस्थलीकरण रोकथाम कन्वेंशन (यूएनसीसीडी) के तहत चार दिवसीय एशिया प्रशांत कार्यशाला का आयोजन किया गया।
- भारत में संपन्न यह क्षेत्रीय कार्यशाला दुनिया भर में आयोजित यूएनसीसीडी कार्यशालाओं की श्रृंखला में चौथी है। इस चार दिवसीय कार्यशाला में (24-27 अप्रैल, 2018) एशिया-प्रशांत क्षेत्र के लगभग 40 प्रतिनिधि देशों ने भाग लिया था।
- मरुस्थलीकरण पर 1977 में आयोजित संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में पहली बार उपजाऊ भूमि के मरुस्थल में तब्दील होने की समस्या से निपटने के उपायों पर चर्चा की गई थी। इसके बाद 17 जून, 1994 को पेरिस में संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में इसके लिये बाकायदा एक वैश्विक संधि तैयार की गई जिसे दिसंबर 1996 में लागू किया गया।
- भारत 14 अक्तूबर, 1994 को इस संधि में शामिल हुआ और 17 दिसंबर, 1996 को उसने इसकी पुष्टि की। भारत के संदर्भ में संधि से जुड़ी सभी व्यवस्थाओं के बीच समन्वय स्थापित करने की प्रमुख ज़िम्मेदारी पर्यावरण वन और जलवायु मंत्रालय की है।