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सामाजिक न्याय

IPC की धारा 377 की संवैधानिकता पर केंद्र सरकार ने फैसला सुप्रीम कोर्ट के विवेक पर छोड़ा

  • 12 Jul 2018
  • 8 min read

चर्चा में क्यों?

समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर किया जाए या नहीं, केंद्र सरकार ने यह फैसला पूरी तरह से सुप्रीम कोर्ट पर छोड़ दिया है। हाल ही में मामले की सुनवाई के दौरान केंद्र ने धारा 377 पर कोई स्टैंड नहीं लिया और कहा कि कोर्ट ही तय करे कि 377 के तहत सहमति से बालिगों का  समलैंगिक संबंध बनाना अपराध है या नहीं। एडिशनल सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सरकार की ओर से कहा कि हम 377 की वैधता के मामले को सुप्रीम कोर्ट पर छोड़ते हैं, लेकिन अगर सुनवाई का दायरा बढ़ता है  तो सरकार हलफनामा देगी।

प्रमुख बिंदु

  • भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 377 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर पाँच जजों की बेंच सुनवाई कर रही है जिसमें चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस आर.एफ. नरीमन, जस्टिस ए.एम. खानविलकर, जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा शामिल हैं| 
  • बुधवार को भी इस मामले पर सुनवाई जारी रही। कोर्ट ने कहा है कि अगर दो बालिगों के बीच आपसी सहमति से संबंध बनते हैं तो इसे अपराध करार नहीं दिया जा सकता।

केंद्र का विरोध

  • तुषार मेहता ने कहा कि हादिया मामले में कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि सभी को अपना पार्टनर चुनने का अधिकार है। मेहता ने कहा कि इसका दायरा सपिंड और सगे-संबंधियों से यौन संबंध (incest) तक नहीं पहुँचना चाहिये। तुषार मेहता ने कहा, ‘मेरी पार्टनर मेरी बहन नहीं हो सकती, क्योंकि हिन्दू विवाह अधिनियम के तहत यह प्रतिबंधित है।’
  • एक सवाल के जवाब में न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ ने कहा कि बेंच यहाँ यौन अभिविन्यास के किसी भी “अजीब विचारों” पर निर्णय लेने के लिये नहीं है।
  • इसपर न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा इस सुनवाई का विशेषाधिकार एक रिश्ते की प्रकृति को समझना और संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन के मौलिक अधिकार) की सुरक्षा के तहत लाने के लिये है।
  • रोहिंटन नरीमन यह जानने के लिये हस्तक्षेप किया कि बेंच मौलिक अधिकार की ‘विषय-वस्तु’ से बाहर तो नहीं जा रहा है|
  • मुख्य न्यायाधीश मिश्रा ने कहा कि अदालत "रिश्ते की रक्षा" के मुद्दे पर विचार कर रही है।

LGBT (Lesbian, Gay, Bisexual and Transgender) का मुद्दा 

  • सरकार ने संविधान पीठ से समलैंगिकों के बीच विवाह, गोद लेने और एलजीबीटी समुदाय के अन्य नागरिक अधिकारों पर गौर न करने का आग्रह किया है।
  • हालाँकि पीठ ने कहा कि अगर वह समलैंगिक वयस्कों द्वारा सहमति से बनाए गए संबंध को संवैधानिक करार देती है तो एलजीबीटी समुदाय में शादी, रोजगार और चुनाव लड़ने आदि से संबंधित अयोग्यता का मामला उठेगा।
  • पीठ ने कहा कि धारा-377 को असंवैधानिक करार देने के बाद एलजीबीटी समुदाय में शादी आदि सामाजिक दृष्टि से अमान्य नहीं रह जाएगी।
  • पीठ ने तुषार मेहता से कहा कि हम सिर्फ सेक्सुअल एक्ट का परीक्षण नहीं कर रहे हैं। हम यह परीक्षण भी कर रहे हैं कि दो वयस्कों के बीच संबंध संविधान के अनुच्छेद-21(जीने का अधिकार) का हिस्सा है या नहीं?
  • पीठ ने कहा, हम नहीं चाहते हैं कि ऐसी स्थिति आए जब  मैरिन ड्राइव पर घूम रहे दो समलैंगिकों को पुलिस परेशान करे और उन पर कानून के तहत मुकदमा दर्ज करे। पीठ ने कहा कि हम एलजीबीटी तक ही खुद को सीमित नहीं कर रहे।
  • वास्तव में यह दो वयस्कों द्वारा सहमति से संबंध बनाने का मसला है। यह समझने की ज़रूरत है कि संविधान के तहत संबंध को संरक्षण प्राप्त है।
  • याचिकाकर्त्ताओं के वकीलों का कहना था कि मूल बात एलजीबीटी समुदाय की स्वतंत्रता, समानता और सम्मान की है। गे समुदाय के लोगों को न सिर्फ न्याय नहीं मिल रहा है बल्कि उन्हें प्रताड़ित भी किया जा रहा है। उन्हें ब्लैकमेल किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि यह महज धारा-377 का मसला नहीं है बल्कि संवैधानिक मूल्यों का है। 

आपराधिक जनजाति अधिनियम, 1871 (Criminal Tribes Act, 1871)

  • इस अधिनियम ने कई हाशिये वाले आबादी समूहों जैसे-ट्रांसजेंडर को "सहज रूप से आपराधी" के रूप में ब्रांडेड किया था।
  • 1949 में आपराधिक जनजाति अधिनियम को रद्द कर दिया गया था लेकिन धारा 377 अभी भी जारी है|
  • धारा 377 के खिलाफ लड़ाई में LGBT समुदाय के अनेक लोगों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया है| 
  • वरिष्ठ वकील मुकुल रोहतगी ने बहस के दौरान तर्क दिया कि "हम केवल यौन अल्पसंख्यकों के रूप में सुरक्षा की मांग नहीं कर रहे हैं बल्कि इसमें सभी मनुष्यों का सम्मान अंतर्निहित है| 
  • वरिष्ठ वकील अरविंद डाटर ने तर्क दिया कि कामुकता, यौन स्वायत्तता और यौन साथी चुनने की स्वतंत्रता का अधिकार मानव गरिमा की आधारशिला है। धारा 377 लोगों के एक वर्ग को अपराधी बनाती है| यह कहना गलत है कि यह केवल कार्य को दंडित करता है  न कि लोगों को।
  • मेनका गुरुस्वामी ने तर्क दिया कि धारा 377 संविधान के अनुच्छेद 15 (लैंगिक भेदभाव), 14 (समानता), 19 (स्वतंत्रता) और 21 (जीवन और गरिमा) का उल्लंघन करती है। सुश्री गुरुस्वामी ने इसे एक भयानक औपनिवेशिक विरासत के रूप में चित्रित किया जिसमें "चिलिंग इफ़ेक्ट" है।
  • धारा 377 के खिलाफ आवाज़ बुलंद करते हुए वरिष्ठ वकील श्याम दिवान ने अदालत से आग्रह किया कि वह 'अंतरंगता का अधिकार'  घोषित करे। उन्होंने कहा कि एलजीबीटी के लोगों को उस स्थिति में मुश्किल का सामना करना पड़ता है जब वे किसी प्रियजन को इमरजेंसी में अस्पताल ले जाते हैं या बैंक खाता खोलने हेतु जाते हैं।
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