भारतीय राजव्यवस्था
राज्यपाल और उसकी विवेकाधीन शक्तियाँ
- 28 Jul 2020
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प्रीलिम्स के लिये:राज्यपाल की नियुक्ति तथा कार्यकाल, अनुच्छेद 163 और 174, एस.आर. बोम्मई बनाम भारत सरकार, रामेश्वर प्रसाद बनाम भारत सरकार, नबाम रेबिया बनाम उपाध्यक्ष मेन्स के लिये:राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियाँ |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में राजस्थान के राज्यपाल ने राज्य के मुख्यमंत्री द्वारा विधानसभा का सत्र बुलाने के लिये की गई सिफारिश को स्वीकार करने से इनकार कर दिया।
प्रमुख बिंदु:
- राजस्थान में जारी राजनीतिक संकट के कारण राज्यपाल की शक्तियाँ और राज्य विधानमंडल के मामलों में उसकी भूमिका चर्चित मुद्दा बनी हुई हैं।
- राज्यपाल केवल उन मामलों को छोड़कर जिनमें वह अपने विवेक का इस्तेमाल कर सकता है (मंत्रियों की सलाह के बगैर) अपनी शक्ति/कार्य को मुख्यमंत्री के नेतृत्त्व वाले मंत्रिपरिषद की सलाह पर ही कर सकता है।
- राज्यपाल के संवैधानिक विवेकाधिकार निम्नलिखित मामलों में हैं।
- राष्ट्रपति के विचारार्थ किसी विधेयक को आरक्षित करना।
- राज्य में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करना।
- पड़ोसी केंद्रशासित राज्यों के प्रशासक (अतिरिक्त प्रभार की स्थिति में) के रूप में कार्य करते समय।
- असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिज़ोरम के राज्यपाल द्वारा खनिज उत्खनन की रोयल्टी के रूप में जनजातीय ज़िला परिषद् को देय राशि का निर्धारण।
- राज्य के विधान परिषद एवं प्रशासनिक मामलों में मुख्यमंत्री से जानकारी प्राप्त करना।
- इसके अलावा राज्यपाल राष्ट्रपति की तरह परिस्थितिजन्य निर्णय ले सकता है।
- विधानसभा चुनाव में किसी भी दल को पूर्ण बहुमत न मिलने की स्थिति में या कार्यकाल के दौरान मुख्यमंत्री की मृत्यु हो जाने एवं उसका निश्चित उत्तराधिकारी न होने पर मुख्यमंत्री की नियुक्ति के मामले में।
- राज्य विधानसभा में विश्वास मत हासिल न होने की स्थिति में मंत्रिपरिषद की बर्खास्तगी के मामले में।
- मंत्रिपरिषद के अल्पमत में आने पर राज्य विधानसभा को विघटित करने के मामले में।
- राज्यपाल के संवैधानिक विवेकाधिकार निम्नलिखित मामलों में हैं।
- विधानसभा सत्र बुलाने के संबंध में संविधान के अनुच्छेद 163 तथा 174 राज्यपाल की शक्तियों के संबंध में महत्त्वपूर्ण हैं।
- अनुच्छेद 163- अपने विवेकाधीन कार्यों के अलावा अन्य कार्यों को करने के लिये राज्यपाल को मुख्यमंत्री के नेतृत्त्व वाली मंत्रिपरिषद से सलाह लेनी होगी।
- अनुच्छेद 174- राज्यपाल, समय-समय पर, राज्य विधान मंडल या विधान परिषद के सदनों के अधिवेशन को आहूत करेगा परंतु एक सत्र की अंतिम बैठक और आगामी सत्र की प्रथम बैठक के मध्य छह माह से अधिक का अंतर नहीं होना चाहिये।
राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों से संबंधित उच्चतम न्यायालय के महत्त्वपूर्ण निर्णय:
- एस.आर. बोम्मई बनाम भारत सरकार
- सर्वोच्च न्यायालय के कई ऐसे निर्णय हैं, जिनका समाज और राजनीति पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा है। इन्हीं में से एक है 11 मार्च, 1994 को दिया गया ऐतिहासिक निर्णय जो राज्यों में सरकारें भंग करने की केंद्र सरकार की शक्ति को कम करता है।
- गौरतलब है कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री एस.आर. बोम्मई के फोन टैपिंग मामले से संबंधित होने के बाद तत्कालीन राज्यपाल ने उनकी सरकार को बर्खास्त कर दिया था, जिसके बाद यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुँचा था।
- सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय ने केंद्र सरकार द्वारा अनुच्छेद-356 के व्यापक दुरुपयोग पर विराम लगा दिया।
- इस निर्णय में न्यायालय ने कहा था कि "किसी भी राज्य सरकार के बहुमत का निर्णय राजभवन की जगह विधानमंडल में होना चाहिये। राष्ट्रपति शासन लगाने से पहले राज्य सरकार को शक्ति परीक्षण का मौका देना होगा।"
- रामेश्वर प्रसाद बनाम भारत सरकार
- वर्ष 2006 में दिये गए इस निर्णय में पाँच सदस्यों वाली न्यायपीठ ने स्पष्ट किया था कि यदि विधानसभा चुनावों में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता और कुछ दल मिलकर सरकार बनाने का दावा करते हैं तो इसमें कोई समस्या नहीं है, चाहे चुनाव पूर्व उन दलों में गठबंधन हो या न हो।
- नबाम रेबिया बनाम उपाध्यक्ष
- वर्ष 2016 में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया था कि राज्यपाल के विवेक के प्रयोग से संबंधित अनुच्छेद 163 सीमित है और उसके द्वारा की जाने वाली कार्रवाई मनमानी या काल्पनिक नहीं होनी चाहिये। अपनी कार्रवाई के लिये राज्यपाल के पास तर्क होना चाहिये और यह सद्भावना के साथ की जानी चाहिये।
राज्यपाल से संबंधित विभिन्न समितियाँ और उनकी सिफारिशें:
- प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग-
- वर्ष 1966 में केंद्र सरकार द्वारा मोरारजी देसाई की अध्यक्षता में प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग (ARC) का गठन किया गया था, आयोग ने अपनी रिपोर्ट में सिफारिश की थी कि राज्यपाल के पद पर किसी ऐसे व्यक्ति को नियुक्त किया जाना चाहिये जो किसी दल विशेष से न जुड़ा हो।
- राजमन्नार समिति-
- वर्ष 1970 में तमिलनाडु सरकार द्वारा केंद्र व राज्य संबंधों पर विचार करने के लिये राजमन्नार समिति का गठन किया गया था।
- गौरतलब है कि इस समिति ने भारतीय संविधान से अनुच्छेद 356 और 357 के विलोपन (Deletion) की सिफारिश की थी।
- संविधान के अनुच्छेद 356 के अनुसार, यदि राज्य सरकार संवैधानिक प्रावधानों के तहत कार्य करने में असमर्थ है तो केंद्र राज्य पर प्रत्यक्ष रूप से नियंत्रण स्थापित कर सकता है।
- संविधान के अनुसार, इसकी घोषणा राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति से सहमति प्राप्त करने के बाद की जाती है। साथ ही समिति ने यह भी सिफारिश की थी कि राज्यपाल की नियुक्ति प्रक्रिया में राज्यों को भी शामिल किया जाना चाहिये।
- सरकारिया आयोग-
- वर्ष 1983 में गठित सरकारिया आयोग की केंद्र-राज्य संबंधों के बारे में जो अनुशंसाएँ हैं, उसके भाग-1 और अध्याय-4 में यह स्पष्ट किया गया है कि राज्यपाल का पद एक स्वतंत्र संवैधानिक पद है, राज्यपाल न तो केंद्र सरकार के अधीनस्थ है और न उसका कार्यालय केंद्र सरकार का कार्यालय है।
निष्कर्ष:
- राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण विगत कुछ समय में राज्यपाल के पद को लेकर प्रश्न उठे हैं। राज्यपाल के पद संबंधी इन विवादों और चुनौतियों पर ध्यान दिया जाना चाहिये तथा सभी हितधारकों से बात कर इसमें सुधार का प्रयास किया जाना चाहिये। चूँकि राज्यपाल के पास विधानसभा सत्र को आहूत करने से संबंधित विवेकाधीन शक्तियाँ नहीं है इसलिये वह मुख्यमंत्री तथा मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह के अनुसार कार्य करने के लिये बाध्य है। इसके अलावा मंत्रिपरिषद द्वारा सदन का विश्वास खोने संबंधी मामलों में, वह मुख्यमंत्री को सदन में बहुमत साबित करने के लिये कह सकता है।