गूगल पर मानहानि का केस | 12 Dec 2019
प्रीलिम्स के लिये:
सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000
मेन्स के लिये:
ऑनलाइन मध्यस्थ इकाइयाँ तथा सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने गूगल को सितंबर 2009 के एक मानहानि मामले में दोषी ठहराया है।
क्या था मामला?
- सितंबर 2009 में एस्बेस्ट्स-सीमेंट शीट बनाने वाली कंपनी विशाका इंडस्ट्रीज़ (Vishaka Industries) ने गूगल इंडिया (Google India) की एक सहयोगी कंपनी पर वर्ष 2008 में उसके उत्पादों के बारे में अपमानजनक लेख प्रकशित करने के आरोप में सर्वोच्च न्यायालय में गूगल इंडिया पर आपराधिक मानहानि का मामला दायर किया।
- 27 अक्तूबर, 2009 को संसद ने ऑनलाइन मध्यस्थ इकाइयों को किसी तीसरे पक्ष द्वारा प्रकाशित आपराधिक विवादास्पद सामग्री से संरक्षण प्रदान करने के लिये सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 (Information Technology Act, 2000) की धारा 79 में संशोधन किया था।
- संसद ने सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 79 में संशोधन करते हुए कहा कि ‘एक ऑनलाइन मध्यस्थ इकाई किसी तीसरे पक्ष द्वारा दी गई जानकारी, डेटा या संचार लिंक उपलब्ध कराए जाने के लिये उत्तरदायी नहीं होगी।
- इस संशोधन से इन ऑनलाइन मध्यस्थ इकाइयों को भारतीय दंड संहिता की धारा 499/500 (आपराधिक मानहानि) के तहत कानूनी कार्रवाई से लगभग पूर्ण संरक्षण प्राप्त हो गया। \
सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय:
- सर्वोच्च न्यायालय ने कहा, यह सही है कि सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 79 ऑनलाइन मध्यस्थ इकाइयों को किसी तीसरे पक्ष द्वारा लिखे गए अपमानजनक लेख या अन्य आपराधिक मानहानि के मामलों में संरक्षण प्रदान करती है, परंतु यह मामला सितंबर 2009 में पंजीकृत हुआ था।
- चूँकि सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 79 में संसद द्वारा 27 अक्तूबर, 2009 को संशोधन किया गया था अतः यह मामला संशोधन तिथि से पहले का है, तथा यह संशोधन भूतलक्षी प्रभाव से लागू नहीं होता है। अतः इस मामले में गूगल इंडिया को सर्वोच्च न्यायालय ने आपराधिक मानहानि का दोषी ठहराया है।
गूगल इंडिया के तर्क:
- हालाँकि गूगल ने सर्वोच्च न्यायालय में तर्क दिया कि उसे तब तक किसी तीसरे पक्ष द्वारा प्रकशित सामग्री की कोई जानकारी नहीं होती जब तक कि किसी उचित अदालत या सरकारी एजेंसी के आदेश के माध्यम से उसे अधिसूचित नहीं किया जाता है।
- गूगल इंडिया ने सर्वोच्च न्यायालय में तर्क दिया कि कोई भी ऑनलाइन मध्यस्थ इकाई किसी निजी व्यक्ति या संस्था द्वारा प्रकाशित सामग्री पर सेंसरशिप लागू नहीं कर सकती है इससे लोगों को संविधान द्वारा प्रदत्त भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे मूल अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।