माजुली मुखौटे, पांडुलिपि और नरसापुर क्रोशिया लेस शिल्प को मिला GI टैग का दर्जा | 06 Mar 2024
प्रिलिम्स के लिये:माजुली मुखौटा, माजुली पांडुलिपि चित्रकारी, क्रोशिया लेस शिल्प, भौगोलिक संकेतक मेन्स के लिये:बौद्धिक संपदा अधिकार, पारंपरिक ज्ञान का संरक्षण |
स्रोत: द हिंदू
आंध्र प्रदेश के नरसापुर के पारंपरिक क्रोशिया लेस शिल्प को चीन के मशीन-निर्मित लेस उत्पादों से संरक्षण प्रदान करते हुए अपनी विशिष्ट पहचान बनाए रखने के लिये भौगोलिक संकेतक का दर्जा प्रदान किया गया।
- इसी प्रकार सांस्कृतिक महत्त्व का संवर्द्धन और संरक्षण प्रदान करते हुए असम के माजुली मुखौटे तथा पांडुलिपि चित्रकारी को GI का दर्जा प्रदान किया गया।
- इन GI टैग का उद्देश्य पारंपरिक शिल्प को पुनर्जीवित करना और उनका संवर्द्धन करना है जिससे उनकी कालजयी विरासत का संरक्षण सुनिश्चित होता है।
नरसापुर क्रोशिया लेस शिल्प से संबंधित मुख्य विशेषताएँ क्या हैं?
- नरसापुर क्रोशिया लेस शिल्प:
- क्रोशिया लेस शिल्प की शुरुआत वर्ष 1844 में हुई और इसे कई बाधाओ जैसे भारतीय अकाल (1899) तथा महामंदी (1929), का सामना करना पड़ा। 1900 के दशक के प्रारंभ में गोदावरी क्षेत्र में 2,000 से अधिक महिलाएँ लेस शिल्पकला में शामिल थीं जो इसकी सांस्कृतिक महत्त्व को उजागर करता है।
- इस शिल्प में विभिन्न आकार की क्रोशिया सलाई का उपयोग कर पतले सूती धागों के माध्यम से जटिल कलाकृतियाँ बनाई जाती हैं।
- इस शिल्प के कारीगर लूप और इंटरलॉकिंग टाँके बनाने के लिये एकल क्रोशिया हुक का उपयोग करते हैं जिससे उत्कृष्ट लेस पैटर्न बनते हैं।
- नरसापुर का हस्त निर्मित क्रोशिया उद्योग लेस से निर्मित उत्पादों की एक विविध शृंखला का उत्पादन करता है जिनमें वस्त्र, घरेलू सामान और सहायक उपकरण जैसे डोयली, तकिया का कवर, कुशन का कवर, बेडस्प्रेड, टेबल-रनर, टेबल क्लॉथ, हैंड पर्स, कैप, टॉप, स्टोल, लैंपशेड तथा दीवार पर सजाई जाने वाली वस्तुएँ इत्यादि शामिल हैं।
- यूनाइटेड किंगडम, संयुक्त राज्य अमेरिका और फ्राँस जैसे देशों में नरसापुर के क्रॉशिया लेस उत्पादों के निर्यात के साथ ये उत्पाद वैश्विक बाज़ारों में अपनी जगह बना रहे हैं।
- भौगोलिक संकेतक (GI) टैग:
- वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के प्रशासनिक नियंत्रण के अधीन उद्योग संवर्द्धन और आंतरिक व्यापार विभाग ने संबद्ध शिल्प को भौगोलिक संकेतक रजिस्ट्री (GIR) में पंजीकृत किया तथा यह प्रामाणित किया कि यह शिल्प भौगोलिक रूप से गोदावरी क्षेत्र के पश्चिम गोदावरी तथा डॉ. बी.आर.अंबेडकर कोनसीमा के 19 मंडलों तक सीमित है।
- पश्चिम गोदावरी ज़िले में नरसापुर और पलाकोले लेस उत्पादों के प्रमुख व्यापार केंद्र हैं जबकि कोनसीमा क्षेत्र में रज़ोल तथा अमलापुरम इस शिल्प के प्रमुख केंद्र हैं।
- वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के प्रशासनिक नियंत्रण के अधीन उद्योग संवर्द्धन और आंतरिक व्यापार विभाग ने संबद्ध शिल्प को भौगोलिक संकेतक रजिस्ट्री (GIR) में पंजीकृत किया तथा यह प्रामाणित किया कि यह शिल्प भौगोलिक रूप से गोदावरी क्षेत्र के पश्चिम गोदावरी तथा डॉ. बी.आर.अंबेडकर कोनसीमा के 19 मंडलों तक सीमित है।
- नरसापुर के कारीगरों के सम्मुख चुनौतियाँ:
- कोविड-19 महामारी के बाद से शिल्प बाज़ार स्थिर रहा है जिसके परिणामस्वरूप इन उत्पादों की मांग प्रभावित हुई है और उत्पादन में कमी आई है।
- हालाँकि इस शिल्प में 15,000 से अधिक महिलाएँ शामिल हैं किंतु लगभग 200 ही नियमित उत्पादन में सक्रिय रूप से शामिल हैं।
- चीन के मशीन-निर्मित लेस उत्पादों ने बाज़ार पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया है जिससे नरसापुर लेस उत्पादों की मांग के लिये एक बड़ा खतरा उत्पन्न हो गया है।
माजुली मुखौटे और माजुली पांडुलिपि पेंटिंग क्या हैं?
- माजुली मुखौटा:
- माजुली मुखौटे पारंपरिक तकनीकों पर आधारित हाथ द्वारा बारीकी से तैयार किये गए मुखौटे हैं।
- हस्तनिर्मित इन मुखौटों का प्रयोग परंपरागत रूप से भाओना (धार्मिक संदेशों के साथ मनोरंजन का एक पारंपरिक रूप) या नव-वैष्णव परंपरा के तहत भक्ति संदेशों के साथ नाटकीय प्रदर्शन में पात्रों को चित्रित करने के लिये किया जाता है, जो 15वीं-16वीं शताब्दी के सुधारक संत श्रीमंत शंकरदेव द्वारा शुरू की गई थी।
- मुखौटों में देवी-देवताओं, राक्षसों, जीव-जंतुओं और पक्षियों को चित्रित किया जा सकता है जिनमें रावण, गरुड़, नरसिम्हा, हनुमान, वराह, शूर्पनखा इत्यादि शामिल होते हैं।
- बाँस, मिट्टी, गोबर, कपड़ा, कपास और लकड़ी सहित विभिन्न सामग्रियों से बने मुखौटे का आकार सिर्फ चेहरे को ढकने से लेकर कलाकार के पूरे सिर तथा शरीर को ढकने तक होता है।
- पारंपरिक दस्तकार समसामयिक संदर्भों को अपनाने के लिये सात्रा (मठ) की सीमाओं से परे जाकर माजुली मुखौटा निर्माण का आधुनिकीकरण कर रहे हैं।
- सत्रों की स्थापना श्रीमंत शंकरदेव और उनके शिष्यों द्वारा धार्मिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक सुधार के केंद्र के रूप में की गई थी।
- माजुली, अपने 22 सत्रों के साथ, इन सांस्कृतिक प्रथाओं का केंद्र है। मुखौटा बनाने की परंपरा मुख्य रूप से चार सत्रों- समागुरी सत्र, नतुन समागुरी सत्र, बिहिमपुर सत्र और अलेंगी नरसिम्हा सत्र में पाई जाती है।
- माजुली पांडुलिपि पेंटिंग:
- पाल कला बौद्ध कला की शैली को संदर्भित करती है जो पूर्वी भारत के पाल साम्राज्य (8वीं-12वीं शताब्दी) में विकसित हुई थी। इसकी विशेषता इसके जीवंत रंग, विस्तृत कार्य और धार्मिक विषयों पर ज़ोर है।
- माजुली की पांडुलिपि पेंटिंग धार्मिक कला का एक रूप है जो पूजा पर केंद्रित द्वीप की वैष्णव संस्कृति से निकटता से जुड़ी हुई है।
- इस कला के सबसे शुरुआती उदाहरणों में से एक का श्रेय श्रीमंत शंकरदेव को दिया जाता है, जो असमिया में भागवत पुराण के आद्य दशम को दर्शाते हैं। माजुली के हर सत्र में इसका अभ्यास जारी है।
- माजुली पांडुलिपि पेंटिंग पाला स्कूल ऑफ पेंटिंग कला से प्रेरित हैं।
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UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. निम्नलिखित में से किसे 'भौगोलिक संकेतक' का दर्जा प्रदान किया गया है? (2015)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1 उत्तर: (c) प्रश्न. भारत ने वस्तुओं के भौगोलिक संकेतक (पंजीकरण और संरक्षण) अधिनियम, 1999 को किसके दायित्वों का पालन करने के लिये अधिनियमित किया? (2018) (a) अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन उत्तर: (d) मेन्स:प्रश्न. भैषजिक कंपनियों के द्वारा आयुर्विज्ञान के पारंपरिक ज्ञान को पेटेंट कराने से भारत सरकार किस प्रकार रक्षा कर रही है? (2019) |