कार्य में असमान वेतन से उत्पन्न समस्याएँ एवं समाधान | 21 Aug 2017
चर्चा में क्यों?
लिंग असमानता (Gender inequality) वैश्विक रोज़गार अवसरों की मुख्य विशेषता के रूप में स्थापित होती जा रही है । हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (International Labour Organisation) द्वारा प्रकाशित डब्लू.ई.एस.ओ. 2017 [World Employment and Social Outlook (WESO): Trends for Women 2017] के अनुसार, वर्ष 2017 में वैश्विक श्रम बल के अंतर्गत पुरुषों के 49% की तुलना में महिलाओं की भागीदारी मात्र 27% ही है। विश्व के सबसे अधिक लिंग असमानता वाले देशों की सूची में भारत का प्रमुख स्थान है।
भारतीय परिदृश्य
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एन.एस.एस.ओ. (National Sample Survey Office - NSSO) द्वारा प्रस्तुत सर्वेक्षणों से प्राप्त जानकारी के अनुसार, पिछले एक दशक में महिला कार्यबल की दर में कमी दर्ज़ की गई है। इनमें भी शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों में महिला श्रमिकों की संख्या अधिक पाई गई है।
एशियाई संदर्भ में बात करें तो,
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यदि वैश्विक रूप से विचार करें तो हम पाएंगे कि इस संबंध में दक्षिण एशिया की स्थिति अत्यधिक चिंतनीय है। इस क्षेत्र में लिंग असामनता का स्तर विश्व के अन्य देशों की अपेक्षा कहीं अधिक है।
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हालाँकि, दक्षिण एशिया की तुलना में पूर्वी एशिया की स्थिति थोड़ी बेहतर है। यहाँ दक्षिण एशिया की तुलना में वेतनभोगी महिला कर्मचारियों की अच्छी खासी आबादी निवास करती है। यहाँ समस्त श्रमबल में महिलाओं की भागीदारी दर 61.3% है, जोकि संपूर्ण विश्व में दूसरे स्थान पर है।
क्या किया जाना चाहिये?
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स्पष्ट है कि ऐसी कोई भी स्थिति किसी देश या विश्व की उन्नति एवं विकास में बाधा ही उत्पन्न करती है। इसलिये भारत के साथ-साथ संपूर्ण दक्षिण एशिया को अपने रोज़गार क्षेत्र में लिंग असमानता की इस समस्या को दूर करने के प्रयास करने चाहिये तथा वेतनभोगी महिला कर्मचारियों की संख्या में वृद्धि की और ध्यान केंद्रित करना चाहिये।
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यह इसलिये भी ज़रुरी है क्योंकि महिलाओं को वेतनभोगी कर्मचारियों के रूप में शामिल किये जाने से न केवल उनकी आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति को बेहतर बनाया जा सकता है, बल्कि यह देश की अर्थव्यवस्था को भी सुदृढ़ बनाने में सहायता करेगा।
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वेतनभोगी कर्मचारी के रूप में कोई भी महिला न केवल पहले की अपेक्षा अधिक स्वतंत्र एवं सशक्त होगी, बल्कि यह उसके जीवन स्तर में भी परिवर्तन करेगा। इससे उसके उपभोग स्तर में भी उल्लेखनीय वृद्धि होगी, जो उसकी निर्णयन क्षमता को सुदृढ़ करने में सहायता करेगा।
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गौरतलब है कि अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट में कहा गया है कि यदि लिंग असमानता की दर में 25 फीसदी की कमी की जाती है तो वैश्विक अर्थव्यवस्था में 5.8 ट्रिलियन की वृद्धि होने की संभावना बनती है।
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इसमें भी सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है की सबसे अधिक वृद्धि विकासशील देशों में होने की संभावना है।
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यदि भारतीय संदर्भ में बात करें तो ज्ञात होता है कि यदि वर्ष 2025 तक देश में लिंग असमानता को 25 फीसदी तक कम करने का प्रयास किया जाता है तो अर्थव्यवस्था में तकरीबन 1 ट्रिलियन की वृद्धि होने की उम्मीद है।
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इस संबंध में उल्लेखनीय परिवर्तन के लिये सर्वप्रथम सबसे ज़रूरी यह है की घर से बाहर काम करने वाली महिलाओं पर अधिरोपित अवरोधों को हटाया जाना चाहिये, ताकि वे खुलकर जी सके, सोच सके, जीवन में सही गलत का निर्णय ले सके तथा उस निर्णय से निकलने वाले परिणामों की ज़िम्मेवारी उठा सके।
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इसके अतिरिक्त कार्यस्थल एवं आवागमन में एक आम समस्या के रूप में उपस्थित 'सुरक्षा की कमी' वाले पहलू के संबंध में गंभीरता से विचार किया जाना चाहिये।
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कार्यस्थल पर महिलाओं लिये एक सुरक्षित वातावरण उपलब्ध कराने, यातायात के सुरक्षित विकल्पों की व्यवस्था उपलब्ध कराने, कार्यस्थल पर किसी भी प्रकार के शोषण के विरूद्ध सुरक्षा एवं सहयोग प्रदान करने, जैसी पहलों से श्रमबल में महिलाओं की भागीदारी में वृद्धि की जा सकती है।
निष्कर्ष
गौरतलब है की इस संबंध में भारत में कुछ विशेष विधान भी बनाए गए हैं। जिनके तहत् घर से बाहर काम करने वाली महिलाओं की सुरक्षा का प्रबंध किया गया है। तथापि इस संबंध में अभी बहुत सी बातों पर विचार किये जाने की आवश्यकता है। किसी भी काम के संबंध में महिला तथा पुरुष की योग्यताओं का समान स्तर पर आकलन किया जाना चाहिये। मात्र शारीरिक क्षमताओं के आधार पर यह सुनिश्चित नहीं किया जाना चाहिये कि कौन अधिक सक्षम है और कौन नहीं। किसी भी देश की महिलाएँ उस देश की एक बहुमूल्य संपत्ति होती है। सतत् विकास की परिभाषा को पूरी तरह से आत्मसात करने के लिये देश के प्रत्येक संसाधन का उचित रूप में उपयोग किया जाना चाहिये। मात्र उनकी शारीरिक उपस्थिति के आधार पर उनका आकलन नहीं किया जाना चाहिये, बल्कि उन्हें भी अपनी क्षमताओं का बेहतर प्रदर्शन करने का विकल्प उपलब्ध कराया जाना चाहिये।