लखनऊ शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 23 दिसंबर से शुरू :   अभी कॉल करें
ध्यान दें:



डेली अपडेट्स

सामाजिक न्याय

जेंडर बायस एंड इनक्लूज़न इन एडवरटाइज़िंग इन इंडिया रिपोर्ट: यूनिसेफ

  • 23 Apr 2021
  • 8 min read

चर्चा में क्यों?

हाल ही में संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ-UNICEF) और ‘गीना डेविस इंस्टीट्यूट ऑन जेंडर इन मीडिया’ (GDI) ने "जेंडर बायस एंड इनक्लूज़न इन एडवरटाइज़िंग इन इंडिया रिपोर्ट" शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की।

  • शोध से पता चला है कि भारत में विज्ञापन वैश्विक बेंचमार्क से बेहतर होते हैं क्योंकि लड़कियों और महिलाओं को स्क्रीन शेयर करने और बोलने के समय के मामले में प्रतिनिधित्व की समानता है, परंतु उनका चित्रण लिंगभेद की समस्या से ग्रस्त है।
  • GDI एक गैर-लाभकारी अनुसंधान संगठन है जो मीडिया में लिंग प्रतिनिधित्व पर शोध करता है और महिलाओं के लिये समान प्रतिनिधित्व की वकालत करता है।

प्रमुख बिंदु:

लिंग विशिष्टता:

  • हालाँकि लड़कियों और महिलाओं की भारतीय विज्ञापनों में मज़बूत उपस्थिति है, परंतु वे ज़्यादातर महिला उपभोक्ताओं को घरेलू और सौंदर्य उत्पाद बेचने से संबंधित पारंपरिक विज्ञापनों में अधिक भूमिकाएँ निभा रही हैं।
  • प्रभाव:
    • बच्चों की देखभाल संबंधी ज़िम्मेदारी का पारंपरिक हस्तांतरण महिलाओं के पक्ष में असमानतापूर्ण है और घरेलू काम करने वाले पुरुषों तथा भुगतान कार्यबल में काम करने वाली महिलाओं हेतु सशक्त मॉडल की कमी शामिल है।

रूढ़िवादी शारीरिक और मानसिक क्षमता :

  • निर्णयन क्षमता:
    • पुरुष पात्रों को महिला पात्रों की तुलना में उनके भविष्य के बारे में निर्णय लेने की अधिक स्वतंत्रता है (7.3% पुरुष पात्र/ 4.8% महिला पात्र), वहीं महिला पात्रों को पुरुष पात्रों की तुलना में घरेलू निर्णयों को लेने में अधिक स्वतंत्रता है (2.0% महिला पात्र/ 4.9% पुरुष पात्र)।
  • रंगभेद:
    • भारतीय विज्ञापनों में उन दो-तिहाई महिला पात्रों (66.9%) को रोल दिया जाता है जिनकी त्वचा चमकदार या मध्यम-रूप से चमकदार है- पुरुष पात्रों की तुलना में 52.1 प्रतिशत अधिक।
    • यह समस्या इस भेदभावपूर्ण धारणा को आगे बढ़ाती है कि चमकदार त्वचा अधिक आकर्षक होती है।
  • वस्तुकरण:
    • महिला पात्रों को पुरुष पात्रों की तुलना में "आश्चर्यजनक/बहुत आकर्षक" के रूप में दिखाए जाने की नौ गुना अधिक संभावना होती है (0.6% की तुलना में 5.9%)।
    • महिला पात्रों को आमतौर पर पतले रूप में दिखाया जाता है, लेकिन भारतीय विज्ञापनों में पुरुष चरित्र कई प्रकार के शारीरिक आकार के होते हैं।
  • प्रभाव:
    • वास्तविक दुनिया में यौन वस्तुकरण के गंभीर परिणाम होते हैं। जितनी अधिक लडकियाँ और महिलाएँ यौन वस्तुकरण से प्रभावित होती हैं उनकी अवसाद की दर उतनी ही अधिक होती है एवं शरीर के प्रति घृणा और शर्म जैसी चीजें सामने आती हैं, और इससे उनके अंदर शारीरिक विकार और अन्य व्यक्तिगत प्रभाव उत्पन्न होते हैं।

सुझाव:

  • शासी निकाय:
    • लड़कियों और महिलाओं के समान प्रतिनिधित्व हेतु बेंचमार्क के साथ विज्ञापन के लिये दिशा-निर्देश तय करना और सकारात्मक लैंगिक मानदंडों को बढ़ावा देना, जिसमें नेतृत्त्व क्षमता और शारीरिक व्यवहार शामिल हैं।
    • त्वचा के रंग से और जाति/वर्ग से संबंधित दिशा-निर्देश सुनिश्चित करना।
    • महिलाओं और लड़कियों के प्रतिगामी सौंदर्य मानदंडों के बजाय सुंदरता के विविध आयामों को बढ़ावा देना।
    • ब्रांड इक्विटी को बढ़ावा देने और उपभोक्ता आधार के विस्तार में मदद करने के लिये विज्ञापनदाताओं को लैंगिकता, चमकदार त्वचा और जाति/वर्ग बेंचमार्क में विविधतापूर्ण प्रतिनिधित्व की वकालत करना।
  • लेखकों के लिये:
    • लेखकों को लैंगिक प्रतिनिधित्व के प्रति अधिक संवेदनशील और जागरूक होने की आवश्यकता है।

भारत में लैंगिक समानता:

  • भारत में लैंगिक समानता में पिछले वर्षों में विधायी और नीतिगत उपायों, लड़कियों और किशोरों के लिये सामाजिक-सुरक्षा योजनाओं और लैंगिक संवेदनशीलता पर आधारित बजट के परिणामस्वरूप वृद्धि हुई है।
  • भारत ने प्राथमिक शिक्षा के नामांकन में लैंगिक समानता हासिल की है और महिला साक्षरता को 54% (2001) से 66% (2011) तक बढ़ाया है।
  • भारत वर्ष 2020 में वैश्विक लैंगिक असमानता सूचकांक में 153 देशों में 108वें स्थान पर है, वहीं वर्ष 2015 में यह 155 देशों में 130वें स्थान पर था।
  • भारत उन कुछ देशों में से एक है, जहाँ 5 वर्ष तक की लड़कियों की मृत्यु दर लड़कों की तुलना में अधिक है।
  • लिंग आधारित भेदभाव और हिंसा का सामान्यीकरण एक चुनौती बनी हुई है। कई महिलाओं को सामाजिक, भावनात्मक, शारीरिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और जाति संबंधी भेदभावों का सामना करना पड़ता है।
  • किशोरियों को कमज़ोरियों का सामना करना पड़ता है, जिनमें खराब पोषण की स्थिति, देखभाल का बढ़ता बोझ, जल्दी शादी, प्रारंभिक गर्भावस्था, प्रजनन स्वास्थ्य और सशक्तीकरण से जुड़े मुद्दे शामिल हैं, जबकि 56% किशोरियाँ एनीमिया से ग्रसित हैं।

आगे की राह:

  • विज्ञापनों में महिलाओं की गलत व्याख्या और अन्य हानिकारक परंपराएँ महिलाओं और युवा लड़कियों पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डालती हैं। हालाँकि भारतीय विज्ञापनों में महिलाओं का उचित प्रतिनिधित्व है, फिर भी वे रंगभेद और घर से बाहर रोज़गार पाने की आकांक्षा के मुद्दे पर कमज़ोर स्थिति में हैं।
  • इन विज्ञापनों में महिलाओं की भूमिका में स्पष्ट असमानता को ध्यान में रखकर समतामूलक समाज स्थापित किया जाना चाहिये।

स्रोत- द हिंदू

close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2