जैव विविधता और पर्यावरण
बांदीपुर टाइगर रिज़र्व में लगी आग
- 04 Mar 2019
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चर्चा में क्यों?
हाल ही में कर्नाटक के बांदीपुर टाइगर रिज़र्व में आग लगने की घटना सामने आई।
- इस घटना से पारिस्थितिक तंत्र को दीर्घकालिक नुकसान होने की आशंका जताई जा रही है। यह टाइगर रिज़र्व नीलगिरि बायोस्फीयर का एक हिस्सा है। 2014 की जनगणना के अनुसार यहाँ बाघों की संख्या सबसे ज़्यादा (575 से अधिक) है।
- देश की वन नीति अपने संरक्षित परिदृश्यों चाहे वह बांदीपुर हो या ऊपरी पश्चिमी घाट के वर्षावन, के लिये शून्य वन अग्नि दृष्टिकोण को प्रोत्साहित करती है।
- वैज्ञानिकों के अनुसार, जंगलों में लगने वाली आग (वनाग्नि) को पूरी तरह रोकने से (Blanket Approach of Zero Fire) उन शुष्क, पर्णपाती जंगलों को नुकसान पहुँच सकता है, जहाँ आग के सह-अस्तित्व में वृक्ष विकसित होते हैं।
बांदीपुर टाइगर रिज़र्व में आग लगने का कारण
- वर्ष 2018 में मानसून विशेष रूप से मज़बूत था, लेकिन साल के अंत में उत्तर-पूर्व में मानसून विफल रहा। मानसून के कारण जंगलों का सघन विकास हुआ, जबकि सितंबर से प्रचंड गर्मी ने वनस्पतियों को भंगुर और सूखा बना दिया।
- हालाँकि अधिकांश जंगलों की आग की तरह बांदीपुर की आग की घटना को भी मानव निर्मित माना जा रहा है।
जंगल की आग के सकारात्मक प्रभाव
- भारतीय वैज्ञानिकों का एक 6 सदस्यीय समूह जो फायर-प्रोन फॉरेस्ट सिस्टम (Fire-Prone Forest Systems) का अध्ययन कर रहा है, ने आग से लड़ने वाली आग के महत्त्व को बताते हुए जंगल की आग के और स्पष्ट दृश्य की तत्काल आवश्यकता जाहिर की है।
- जंगल में लगने वाली आग के प्रमुख कारण ऐतिहासिक, पारिस्थितिक, वैज्ञानिक या अन्य हो सकते हैं।
- भारत में जंगलों में आग लगने की घटनाएँ कम-से-कम 60,000 साल पहले से ही होती रही हैं। कई बार प्राकृतिक रूप से या फिर मानवजनित रूप से हज़ारों वर्षों से वन जलते रहे हैं।
- जंगल की आग में कुछ पेड़-पौधे जलकर नष्ट हो जाते हैं, तथा कुछ ऐसे भी वृक्ष हैं जो जलकर नष्ट नहीं होते साथ ही कुछ सुप्त बीज आग में जलकर पुनर्जीवित हो जाते हैं।
- एक अन्य अध्ययन से पता चलता है कि मौसमी सूखे के दौरान, वनों में आग लगने की समस्या के रूप में आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु और कर्नाटक के शुष्क पर्णपाती वनों को चित्रित किया गया है।
सुप्त बीजों का पुनर्जीवन
- वास्तव में कई स्थानिक पेड़-पौधे आग के साथ विकसित होते हैं, इस प्रकार आग कई प्रजातियों के निष्क्रिय बीजों को पुनर्जीवित करने में मदद करती है।
- एक अध्ययन से पता चला है कि मुदुमलाई में नए उगे हुए पेड़ ज़मीन में लगने वाली आग से बच जाते हैं और जब तक वे एक निश्चित ऊँचाई तक नहीं पहुँच जाते, तब तक इन पेड़ों में उच्च दर से वृद्धि होती रहती है।
आक्रामक प्रजातियों पर अंकुश
- कुछ वैज्ञानिक जंगल की आग को पारिस्थितिकी प्रणालियों के लिये पूरी तरह से हानिकारक मानते हैं लेकिन अधिकतर साक्ष्य इस ओर इशारा करते हैं कि जंगलों में लगने वाली आग से अधिकांशतः आक्रामक प्रजातियाँ नष्ट हो जाती हैं।
- उदाहरण के लिये एक अध्ययन में पाया गया कि कर्नाटक के बिलीगिरी रंगास्वामी मंदिर टाइगर रिज़र्व में आदिवासी समुदायों द्वारा प्रचलित ‘कूड़े में लगाई जाने वाली आग’ की परंपरा का बहिष्कार करने पर लैंटाना प्रजाति की वनस्पति इतनी ज़्यादा बढ़ गई कि उसने वहाँ के स्थानिक पौधों के स्थान का अतिक्रमण कर लिया।
- एक अध्ययन से पुष्टि हुई है कि एक परजीवी झाड़ी (हेयरी मिस्टलेट-Hairy Mistletoe) परिपक्व पेड़ों को प्रभावित करती है। आग के नही लगने के कारण उनकी संख्या में वृद्धि हुई है। इसके फलस्वरूप जंगली आँवले के पेड़ों की संख्या में गिरावट दर्ज की गई है।
- लेकिन वैज्ञानिकों ने बड़े पैमाने पर जंगलों में लगने वाली आग जैसे कि कर्नाटक के बांदीपुर राष्ट्रीय उद्यान में लगी आग पर चिंता व्यक्त की है। क्योंकि उच्च तीव्रता वाली आग का नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।
निष्कर्ष
- वन प्रबंधन में आग वास्तव में एक महत्त्वपूर्ण उपकरण है। दिसंबर महीने के आसपास वनों में बड़े पैमाने पर ईंधन भार (जंगलों में फैला सूखा कूड़ा और बायोमास) वाले क्षेत्रों में आग लगने की घटनाओं के बाद भी इसे रोका जा सकता है।
- जंगल के किसी एक क्षेत्र को यदि आग से लगातार संरक्षित किया जाता है, तो चार साल में घास, लकड़ी और टहनियों के उच्च संचय के कारण इस क्षेत्र में स्वतः आग लग सकती है। लेकिन आग को एक उपकरण के रूप में बहुत समझदारी से इस्तेमाल किया जाना चाहिये।
आगे की राह
- वैज्ञानिकों ने नीति निर्माताओं और वन विभागों से अनुरोध किया है कि वे कानून में बदलाव करके वनों के लिये अधिक वैज्ञानिक और विचारशील प्रबंधन की अनुमति प्रदान करें।
- साथ ही गैर-सरकारी संगठनों एवं कार्यकर्त्ताओं को जंगल की आग के बारे में जटिलताओं और बारीकियों पर ध्यान देते हुए सहयोग करने की बात कही है।
स्रोत – द हिंदू