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डेली अपडेट्स

भारतीय राजव्यवस्था

न्यायेत्तर हत्याएँ

  • 24 Jul 2020
  • 12 min read

प्रीलिम्स के लिये:

अनुच्छेद 21, अनुच्छेद 141

मेन्स के लिये:

पुलिस के अधिकार तथा वर्तमान परिस्थितियों में इनकी व्याख्या

चर्चा में क्यों?

हाल ही में उत्तर प्रदेश पुलिस ने गैंगस्टर विकास दुबे को एक मुठभेड़ (न्यायेत्तर हत्या) में मार गिराया। इस संदर्भ में कई विशेषज्ञों ने इस मुठभेड़ पर सवाल उठाए और मामले की न्यायिक जाँच की मांग की।

प्रमुख बिंदु

  • पुलिस के अधिकार:
    • पुलिस बल को आत्मरक्षा के वैयक्तिक एवं एकमात्र उद्देश्य के लिये या जहाँ शांति और व्यवस्था को बनाए रखने के लिये यह आवश्यक है, अपराधी को घायल करने या जान से मारने का अधिकार है।
      • भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा-96 के तहत, प्रत्येक मनुष्य को निजी रक्षा का अधिकार है जो कि एक प्राकृतिक और एक अंतर्निहित अधिकार है।
      • आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा-46 पुलिस को बल प्रयोग करने के लिये अधिकृत करती है, एक ऐसा अपराधी जिसने कोई ऐसा अपराध किया है जिसकी सज़ा मृत्युदंड या आजीवन कारावास हो सकती है, के संदर्भ में यदि बल का प्रयोग, यहाँ तक कि हत्या भी, आवश्यक हो जाता है तो पुलिस कर सकती है।

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  • न्यायेत्तर हत्या की संख्या बढ़ने के कारण:
    • जन समर्थन: ऐसे मामले लोगों के न्यायपालिका में विश्वास की कमी से उभरते हैं क्योंकि कई लोग मानते हैं कि न्यायालय समय पर न्याय प्रदान नहीं करेंगे।
      • राजनीतिक समर्थन: कई नेता कानून और व्यवस्था को बनाए रखने में अपनी उपलब्धि के रूप में एनकाउंटर की संख्या को प्रमुखता देते हैं।
      • पुरस्कार: बहुत बार मुठभेड़ों के लिये पुलिस बलों को पुरस्कृत किया जाता है।
        • सरकार मुठभेड़ों में शामिल टीमों को पदोन्नति और नकद प्रोत्साहन प्रदान करती है।
      • अप्रभावी संस्थाएँ: इस संदर्भ में मानवाधिकारों की रक्षक संस्थाएँ राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और राज्य मानवाधिकार आयोग कई वर्षों से निरर्थक साबित हो रही हैं।
        • हालाँकि इस तरह के मामलों को न्यायपालिका के समक्ष उठाया जा सकता है, हालाँकि अब ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है।
      • एनकाउंटर स्पेशलिस्ट की नायक की भाँति पूजा की जाती है: अक्सर ऐसा देखेने को मिलता है कि एनकाउंटर में शामिल पुलिसकर्मी समाज में नायक के रूप में उभरकर सामने आते हैं क्योंकि कई लोग ये मानते हैं कि ये पुलिसकर्मी अपराधियों को मारकर समाज की सफाई का काम कर रहे हैं।
        • कई बार उन्हें सिल्वर स्क्रीन पर हीरो के रूप में भी पेश किया जाता है, और उनके कृत्यों को “वीर” कृत्य के रूप में दर्शाया जाता है, जिन पर बड़े-बड़े बजट की फिल्में बनती हैं।
        • हालाँकि लोग, मीडिया और यहाँ तक कि न्यायपालिका भी इस तथ्य को दरकिनार कर देते हैं कि जब तक किसी मुद्दे की पूर्ण रूप से जाँच नहीं होती है और वास्तविक कहानी का पता नहीं चलता है तब तक ये सभी हत्याएँ संदिग्ध हैं।
  • संवैधानिक प्रावधान:
    • भारत के संविधान में भारत के लिये कानून के शासन द्वारा शासित देश का प्रयोजन किया गया है।
    • विधि के शासन के अनुसार, भारत में संविधान सर्वोच्च शक्ति है और विधायिका एवं कार्यपालिका संविधान से अपने अधिकार प्राप्त करती हैं।
    • आपराधिक जाँच के लिये कानून द्वारा एक प्रक्रिया निर्धारित की गई है जो संविधान में अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के रूप में अंतर्निहित है। यह मौलिक अधिकार है और यह हर व्यक्ति के लिये उपलब्ध है। यहाँ तक कि राज्य भी इस अधिकार का उल्लंघन नहीं कर सकता है।
    • इसलिये यह पुलिस की ज़िम्मेदारी है कि वह संवैधानिक सिद्धांतों का पालन करे और प्रत्येक व्यक्ति के जीवन के अधिकार को बनाए रखे, चाहे वह निर्दोष हो या अपराधी।
  • सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देश:
    • PUCL बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले (2014) में सर्वोच्च न्यायालय ने रिट याचिकाओं के जवाब में कुछ दिशा-निर्देश जारी किये. इन याचिकाओं को मुंबई पुलिस द्वारा की गई 99 मुठभेड़ों की वास्तविकता पर सवाल उठाए गए थे,  वर्ष 1995 और 1997 के बीच हुई इन मुठभेड़ों में 135 कथित अपराधियों को गोली मार दी गई थी।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिस मुठभेड़ों के दौरान हुई मौत के मामलों में पूरी तरह से प्रभावी और स्वतंत्र जाँच के लिये मानक प्रक्रिया के रूप में 16 दिशा-निर्देशों को निर्धारित किया। इनमें से कुछ इस प्रकार हैं:
    • आपराधिक गतिविधियों के बारे में टिप-ऑफ (खुफिया): 
      • FIR दर्ज करना: यदि किसी टिप-ऑफ (खुफिया) जानकारी के अनुसरण में, पुलिस आग्नेयास्त्रों का उपयोग करती है और इसके परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है, तो उचित आपराधिक जाँच शुरू करने संबंधी प्राथमिकी दर्ज की जानी चाहिये और बिना किसी देरी के उसे अदालत में भेज दिया जाना चाहिये।
      • स्वतंत्र जाँच: इस प्रकार की मौतों के संदर्भ में एक स्वतंत्र CID टीम या फिर किसी वरिष्ठ अधिकारी की निगरानी में किसी दूसरे पुलिस स्टेशन के अधिकारियों की टीम द्वारा जाँच की जानी चाहिये. इस प्रकार की जाँच में निम्नलिखित आवश्यक शर्तों को पूरा किया जाना चाहिये-पीड़ित की पहचान करना, संबंधित साक्ष्यों को खोजना और उन्हें सुरक्षित रखना, घटना स्थल पर मौजूद गवाहों की पहचान कर उन्हें सुरक्षित करना, आदि
      • NHRC को सूचित करना: किसी भी एनकाउंटर के विषय में NHRC या राज्य मानवाधिकार आयोग (जैसा भी मामला हो) को तत्काल सूचित किया जाना चाहिये 
      • त्वरित कार्रवाई: IPC के तहत अपराध के रूप में, अगर कोई पुलिस अधिकारी झूठी मुठभेड़ का दोषी पाया जाता है तो उसके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जानी चाहिये और उस समय के लिये उस अधिकारी को निलंबित कर दिया जाना चाहिये।
  • न्यायालय ने निर्देश दिया कि इन आवश्यकताओं/मानदंडों को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 141 के तहत घोषित एक कानून मानते हुए पुलिस मुठभेड़ों में होने वाली मौत और गंभीर चोट के सभी मामलों में सख्ती का रवैया अपनाया जाना चाहिये।
  • NHRC दिशा-निर्देश:
    • मार्च 1997 में न्यायाधीश एम.एन. वेंकटाचलैया (तत्कालीन NHRC अध्यक्ष) ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से यह सुनिश्चित करने के लिये कहा कि मुठभेड़ों से संबंधित मामलों में पुलिस निम्नलिखित दिशा-निर्देशों का पालन करे:   
      • FIR को रजिस्टर करना: जब किसी थाने के मुख्य अधिकारी को मुठभेड़ में हुई हत्या के संबंध में सूचना मिलती है तो उसे उपयुक्त रजिस्टर में उस सूचना को दर्ज करना होगा
      • जाँच करना: प्राप्त जानकारी को संदिग्ध जानकारी माना जाएगा, मौत को संदर्भित करने वाले तथ्यों (जैसे कि क्या अपराध हुआ है, यदि हुआ है तो किसके द्वारा) एवं परिस्थितियों की जाँच के लिये तत्काल कदम उठाए जाने चाहिये।
      • मुआवज़ा देना: मृतक के आश्रितों को मुआवज़ा दिया जा सकता है यदि मुठभेड़ से संबंधित जाँच से प्राप्त परिणामों के आधार पर पुलिस अधिकारियों पर मुकदमा चलाया जाता है तो मृतक के आश्रितों को मुआवज़ा दिया जा सकता है।
      • स्वतंत्र एजेंसी: जब भी किसी एनकाउंटर दल में एक ही पुलिस स्टेशन से जुड़े पुलिस अधिकारी शामिल होते हैं, तो उचित यह होगा कि जाँच के लिये मामलों को किसी अन्य स्वतंत्र जाँच एजेंसी जैसे कि राज्य की CID को मामले भेज दिये जाए।
  • वर्ष 2010 में NHRC ने निम्नलिखित को शामिल करते हुए उक्त दिशा-निर्देशों में वृद्धि कर दी:
    • मजिस्ट्रियल जाँच: पुलिस कार्रवाई के दौरान होने वाली सभी मौतों के मामलों में जितनी जल्दी हो सके (अधिमानतः तीन महीने के भीतर) एक मजिस्ट्रियल जाँच होनी चाहिये।
    • आयोग को रिपोर्ट करना: राज्य के किसी भी पुलिस स्टेशन में होने वाली सभी मौतों के विषय में वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक/ज़िले के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक को 48 घंटे के भीतर आयोग को प्रारंभिक रिपोर्ट भेजनी होगी।
    • सभी मामलों में आयोग को तीन महीने के भीतर दूसरी रिपोर्ट भेजी जानी चाहिये, जिसके माध्यम से पोस्टमार्टम रिपोर्ट, वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा की गई जाँच/मजिस्ट्रियल जाँच के निष्कर्ष आदि समाहित हो।

आगे की राह

  • एनकाउंटर में होने वाली मौतों की स्वतंत्र जाँच की जानी चाहिये क्योंकि इनसे विधि के शासन का नियम प्रभावित होता है। यह सुनिश्चित किये जाने की आवश्यकता है कि समाज में एक कानून व्यवस्था विद्यमान है जिसका प्रत्येक राज्य प्राधिकरण और जनता द्वारा पालन किया जाना चाहिये।
  • पुलिस कर्मियों पर हो सकने वाले किसी भी हमले को रोकने के लिये अभियुक्तों की उचित हिरासत की व्यवस्था करना।
  • इसके अलावा, आपराधिक न्याय प्रणाली की समीक्षा करने और अपेक्षित पुलिस सुधार किये जाने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिये।
    • पुलिस कर्मियों को बेहतर ढंग से प्रशिक्षित करने और उन्हें सभी प्रासंगिक कौशल से युक्त करने के लिये मानक दिशा-निर्देशों को निर्धारित करने की आवश्यकता है ताकि वे किसी भी भयानक स्थिति से प्रभावी ढंग से निपट सकें।
    • गिरफ्तारी के समय/गिरफ्तार व्यक्तियों के संदर्भ में मानव अधिकारों के पक्ष को भी ध्यान में रखा जाना चाहिये।

स्रोत-इंडियन एक्सप्रेस

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