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राजनीति हेतु न्यायाधीश के इस्तीफा देने के नैतिक निहितार्थ

  • 11 Mar 2024
  • 13 min read

प्रिलिम्स के लिये:

मौजूदा न्यायाधीश, भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) के त्याग-पत्र के नैतिक निहितार्थ, संविधान का अनुच्छेद 217, कॉलेजियम प्रणाली।

मेन्स के लिये:

मौजूदा न्यायाधीश के त्याग-पत्र के नैतिक निहितार्थ, कॉलेजियम प्रणाली का विकास और इसकी आलोचना।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों?

हाल ही में कलकत्ता उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश ने त्याग-पत्र दे दिया है और एक राजनीतिक दल में शामिल हो गए हैं, जिससे एक न्यायाधीश के इस तरह के कदम के औचित्य पर चर्चा शुरू हो गई है।

  • राजनीति में शामिल होने के लिये न्यायपालिका से न्यायाधीश के त्याग-पत्र से उत्पन्न चिंताओं के महत्त्वपूर्ण नैतिक निहितार्थ हैं जो न्यायिक औचित्य, निष्पक्षता और न्यायपालिका की अखंडता की धारणा को प्रभावित करते हैं।

नोट: वर्ष 1967 में, भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश (CJI) कोका सुब्बा राव ने विपक्षी उम्मीदवार के रूप में राष्ट्रपति चुनाव लड़ने के लिये सेवानिवृत्त होने से तीन महीने पहले त्याग-पत्र दे दिया था।

  • सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश बहारुल इस्लाम ने लोकसभा चुनाव लड़ने के लिये वर्ष 1983 में सेवानिवृत्ति से छह सप्ताह पहले त्याग-पत्र दे दिया।

राजनीति हेतु एक न्यायाधीश के इस्तीफे से संबंधित नैतिक चिंताएँ क्या हैं?

  • न्यायिक निष्पक्षता:
    • न्यायाधीशों से अपेक्षा की जाती है कि वे तटस्थ रहें और व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों या बाहरी दबावों से प्रभावित हुए बिना केवल तथ्यों तथा कानून के आधार पर निर्णय लें।
    • विवादों में शामिल होने के बाद राजनीतिक दल में शामिल होने के मौजूदा न्यायाधीश के फैसले से राजनीतिक मामलों से जुड़े मामलों की सुनवाई करते समय उनकी निष्पक्षता पर सवाल उठता है।
    • इससे न्यायपालिका की निष्पक्षता से न्याय देने की क्षमता में जनता का विश्वास कम होता है।
  • न्यायिक स्वतंत्रता:
    • कानून का शासन और लोकतंत्र बनाए रखने के लिये न्यायिक स्वतंत्रता महत्त्वपूर्ण है।
    • न्यायाधीशों को राजनीतिक संस्थाओं सहित किसी भी बाहरी पक्ष के हस्तक्षेप या प्रभाव से मुक्त होना चाहिये।
    • अपने इस्तीफे/सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद एक न्यायाधीश द्वारा किसी राजनीतिक दल में शामिल होना उसके विगत न्यायिक निर्णयों की स्वतंत्रता पर सवाल उठाता है और न्यायपालिका के कार्य पद्धति पर राजनीतिक विचारों के प्रभाव के संबंध में चिंता उत्पन्न करता है।
  • हित का टकराव:
    • न्यायाधीशों से अपेक्षा की जाती है कि वे हितों के टकराव से बचें और न्यायिक प्रक्रिया की अखंडता बनाए रखें
    • राजनीतिक गतिविधियों में उनकी भागीदारी, विशेष रूप से न्यायालय में कार्यरत रहते हुए विवादास्पद बयान और निर्णय, हितों के टकराव के संबंध में चिंताएँ उत्पन्न करती हैं।
  • जन विश्वास और भरोसा:
    • न्यायपालिका समाज में अपनी भूमिका को पूरा करने के लिये जनता के विश्वास और भरोसे पर निर्भर करती है। न्यायाधीश द्वारा उक्त कार्यों में शामिल होना न्यायिक अखंडता और निष्पक्षता की धारणा को कमज़ोर करता है जिससे संपूर्ण न्यायिक प्रणाली के संबंध में जनता का विश्वास अत्यंत प्रभावित होता है।
    • न्यायपालिका से राजनीति में सक्रिय भागीदारी के लिये न्यायमूर्ति के इस्तीफे से न्यायपालिका की स्वतंत्रता और अखंडता के बारे में जनता के बीच संदेह की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।
  • सेवानिवृत्ति पश्चात नियुक्तियों का मुद्दा:
    • विगत कुछ वर्षों में कुछ सेवानिवृत्त न्यायाधीशों ने सेवानिवृत्ति के बाद सरकारी पद स्वीकार कर लिये हैं। यह प्रथा न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच स्पष्ट सीमांकन को धूमिल कर देती है।

रीस्टेटमेंट ऑफ वैल्यूज़ ऑफ ज्यूडिशिअल लाइफ क्या है?

  • भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 1997 में न्यायाधीशों के लिये नैतिक मानकों और सिद्धांतों को रेखांकित करते हुए रीस्टेटमेंट ऑफ वैल्यूज़ ऑफ ज्यूडिशिअल लाइफ का अंगीकरण किया। पुनर्कथन से संबंधित प्रमुख बिंदु निम्नलिखित हैं:
    • निष्पक्षता: न केवल न्याय किया जाना चाहिये अपितु यह यह प्रदर्शित भी होना चाहिये। न्यायाधीशों के व्यवहार से न्यायपालिका की निष्पक्षता में लोगों के विश्वास की पुष्टि होनी चाहिये।
    • टकराव से बचना: न्यायाधीशों को बार के व्यक्तिगत सदस्यों के साथ घनिष्ठ संबंध स्थापित करने से  से बचना चाहिये, परिवार के सदस्य यदि वकील हैं, उनसे संबंधित मामलों की सुनवाई करने से बचना चाहिये और साथ ही राजनीतिक मामलों पर सार्वजनिक बहस में भाग नहीं लेना चाहिये।
    • वित्तीय लाभ: न्यायाधीशों को वित्तीय लाभ के माध्यम नहीं खोजने चाहिये और उन्हें शेयरों में सट्टा नहीं लगाना चाहिये अथवा व्यापार अथवा व्यवसाय में संलग्न नहीं होना चाहिये।
    • जनता की निगाहें:.न्यायाधीशों को हमेशा इस बात के प्रति सचेत रहना चाहिये कि वे सार्वजनिक जाँच के अधीन हैं, साथ ही उनके कार्यों से जिस उच्च पद पर वे हैं, उसे भी लाभ होना चाहिये।

न्यायाधीशों के लिये सेवानिवृत्ति उपरांत कार्य:

  • हालाँकि भारतीय संविधान स्पष्ट रूप से न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के बाद के कार्यभार लेने से प्रतिबंधित नहीं करता है, लेकिन हितों के संभावित टकराव को कम करने के लिये कूलिंग-ऑफ अवधि लागू करने के सुझाव दिये गए हैं।
  • पूर्व सी.जे.आई, आर.एम.लोढ़ा ने कम-से-कम 2 वर्ष की कूलिंग-ऑफ अवधि की सिफारिश की।
    • संवेदनशील पदों से सेवानिवृत्त होने वाले अधिकारियों को कुछ समय के लिये सामान्यतः दो वर्ष के लिये कोई अन्य नियुक्ति स्वीकार करने से रोक दिया जाता है।
    • पदों में ये कूलिंग-ऑफ अवधि पर्याप्त समय के अंतराल के माध्यम से पिछली नियुक्ति एवं नई नियुक्ति के बीच संबंध को समाप्त करने पर आधारित होती है।
  • अंतर्राष्ट्रीय प्रथाएँ: तुलनात्मक रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश सेवानिवृत्त नहीं होते हैं बल्कि हितों के टकराव को रोकने के लिये जीवन भर अपने पद पर बने रहते हैं।
    • यूनाइटेड किंगडम में, हालाँकि न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के बाद की नौकरियाँ लेने से रोकने वाला कोई कानून नहीं है, लेकिन किसी भी न्यायाधीश ने ऐसा नहीं किया है, जो सेवानिवृत्ति के बाद की भूमिकाओं के मुद्दे पर एक अलग दृष्टिकोण को दर्शाता है।

सेवानिवृत्ति के बाद नौकरियाँ करने वाले न्यायाधीशों की समस्या से निपटने के लिये क्या किया जा सकता है?

  • कूलिंग-ऑफ अवधि लागू करना: 
    • पूर्व मुख्य न्यायाधीश आर.एम.लोढ़ा के सुझाव के अनुशंसाओं के आधार पर न्यायाधीश की सेवानिवृत्ति एवं सेवानिवृत्ति के बाद किसी भी कार्यभार हेतु उनकी पात्रता के बीच एक अनिवार्य कूलिंग-ऑफ अवधि होनी चाहिये।
    • यह अवधि हितों के संभावित टकराव को कम करने के साथ निष्पक्षता सुनिश्चित करने में सहायता प्रदान करेगी।
  • विधि आयोग की सिफारिशें: 
    • 14वें विधि आयोग की रिपोर्ट, 1958 की सिफारिशों ने इस चिंता पर प्रकाश डाला और साथ ही एक ऐसी प्रणाली की वकालत की जो स्वतंत्रता से समझौता किये बिना न्यायाधीशों को वित्तीय सुरक्षा सुनिश्चित करती है।
  • न्यायिक नैतिकता एवं मानकों को बढ़ाना: 
    • न्यायाधीशों के लिये उनके कार्यकाल के दौरान तथा सेवानिवृत्ति के बाद नैतिक दिशा-निर्देशों एवं मानकों को मज़बूत करने से न्यायपालिका की अखंडता और निष्पक्षता बनाए रखने में सहायता प्राप्त हो सकती है। न्यायाधीशों को व्यक्तिगत हितों पर न्यायपालिका में जनता के विश्वास को प्राथमिकता देने के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
  • पारदर्शिता में वृद्धि: 
    • सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के बाद के पदों पर नियुक्त करने की प्रक्रिया में अधिक पारदर्शिता होनी चाहिये।
    • इसमें चयन के मानदंडों का खुलासा करना, इन भूमिकाओं के लिये खुली प्रतिस्पर्द्धा सुनिश्चित करना और प्रत्येक नियुक्ति के पीछे के कारणों को सार्वजनिक करना शामिल है। 

निष्कर्ष

  • कोलकाता उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश के न्यायपालिका से पदत्याग करने और राजनीति में प्रवेश करने का निर्णय न्यायिक निष्पक्षता, स्वतंत्रता, हितों के संघर्ष, सार्वजनिक विश्वास एवं पेशेवर ज़िम्मेदारी के संबंध में महत्त्वपूर्ण नैतिक चिंताओं को का कारण बनता है।
  • इन चिंताओं का न्यायपालिका की अखंडता और विश्वसनीयता पर दूरगामी प्रभाव पड़ता है, जो न्याय प्रशासन में नैतिक मानकों को बनाए रखने के महत्त्व को रेखांकित करता है।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

Q. भारतीय न्यायपालिका के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये:(2021)

  1. भारत के राष्ट्रपति की पूर्वानुमति से भारत के मुख्य न्यायमूर्ति द्वारा उच्चतम न्यायालय से सेवानिवृत्त किसी न्यायाधीश को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के पद पर बैठने और कार्य करने हेतु बुलाया जा सकता है।
  2. भारत में किसी भी उच्च न्यायालय को अपने निर्णय के पुनर्विलोकन की शक्ति प्राप्त है, जैसा कि उच्चतम न्यायालय के पास है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/कौन-से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: (c)


मेन्स:

Q. भारत में उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014' पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (2017)

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