प्रीलिम्स फैक्ट्स : 28 मार्च, 2018 | 28 Mar 2018

कूल ईएमएस सेवा’

हाल ही में केंद्रीय संचार मंत्रालय द्वारा ‘कूल ईएमएस सेवा’ (Cool EMS Service) शुरू की गई है, जो 29 मार्च, 2018 से लागू होगी।

  • ‘कूल ईएमएस सेवा’ जापान और भारत के बीच एकमात्र ऐसी सेवा है जो भारत में ग्राहकों के व्यक्तिगत उपयोग के लिये जापानी खाद्य पदार्थों का आयात करेगी और भारतीय नियमों के तहत, इसकी अनुमति दी गई है।
  • शुरुआत में, कूल ईएमएस सेवा केवल दिल्ली में उपलब्ध होगी, बाद में इसे पूरे देश में लागू किया जाएगा।
  • खाद्य पदार्थों को जापान के डाक विभाग द्वारा विशेष रूप से तैयार ठंडे बक्सों में लाया जाएगा, जिसमें खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता को बरकरार रखने के लिये रेफ्रिजरेट होते हैं।
  • इन्हें विदेश डाकघर, कोटला रोड, नई दिल्ली लाया जाएगा जहाँ से निर्धारित समय सीमा के भीतर एक व्यक्ति के माध्यम से भेजा जाएगा।
  • एक्सप्रेस मेल सेवा (ईएमएस) की ट्रैक और ट्रेस जैसी अन्य सभी सुविधाएँ भी कूल ईएमएस सेवा के लिये उपलब्ध होंगी।

नेत्रहीनता का दूसरा बड़ा कारण ग्लूकोमा

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, दुनिया में नेत्रहीनता का दूसरा सबसे बड़ा कारण ग्लूकोमा है। इस बीमारी में आँखों के ड्रेनेज चैनल काम करना बंद कर देते हैं, जिससे आँखों में बनने वाला द्रव वहीं जमा होता रहता है। धीरे-धीरे इस द्रव के आँखों में जमा होने से आँखों के अंदर दाब बनने लगता है। यह दाब मस्तिष्क तक संदेश ले जाने वाली प्रकाशीय तंत्रिकाओं को नष्ट कर देता है जिससे दृष्टि बाधित हो जाती है। 

  • ब्रिटेन के नेत्र रोग विशेषज्ञ द्वारा ग्लूकोमा के इलाज़ की एक नई पद्धति विकसित की गई है। इस पद्धति में एक छोटी नली और लेज़र का इस्तेमाल किया गया है। 

क्या है यह नई पद्धति

  • इस पद्धति में आँखों में एक छोटा सा कट लगाकर आँख के अंदर एक नली डाली जाती है। यह नली आँख के अंदर जमा द्रव को खींचकर बाहर कर देगी।
  • इसके बाद, लेज़र से सिलीयरी ग्लैंड पर निशाना लगाया जाता है जिससे आँखों में अत्यधिक द्रव का निर्माण न हो।
  • यह तकनीक उन मरीज़ों पर इस्तेमाल की जा सकती है जिनका ग्लूकोमा गंभीर स्तर तक नहीं पहुँचा है।
  • कई दशकों से आँखों में से द्रव निकालने और द्रव का निर्माण रोकने के लिये आई-ड्रॉप्स का इस्तेमाल किया जाता है। हालाँकि, यह प्रभावी इलाज़ नहीं है।
  • ट्रैबेक्युलेक्टॉमी सर्जरी के ज़रिये भी ग्लूकोमा का इलाज़ किया जाता है। हालाँकि, सर्जरी बहुत गंभीर स्थिति में ही की जाती है।

समुद्र के अंदर निगरानी करेगी रोबोट मछली

अमेरिका स्थित मैसाच्युसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एमआइटी) के वैज्ञानिकों द्वारा एक सॉफ्ट रोबोट मछली तैयार की गई है, जिसे सोफी नाम दिया गया है। हाल ही में रोबोट मछली सोफी का फिज़ी के रेनबो रीफ में परीक्षण किया गया।

विशेषताएँ

  • यह मछली समुद्र की सतह से 50 फीट की गहराई में तकरीबन 40 मिनट तक तैरने में सक्षम है। यह पहली ऐसी रोबोट मछली है जो इतनी देर तक पानी में तीन आयामों में तैरने में सक्षम है।
  • साइंस रोबोटिक्स नामक जर्नल में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, लचकदार पूँछ और पानी में स्वयं को नियंत्रित करने की वज़ह से सोफी समुद्र में आराम से तैर सकती है। पूर्ण मछली जैसी विशेषताओं से युक्त सोफी, न केवल समुद्र में मछलियों और अन्य जलीय जंतुओं के साथ तैरने में सक्षम है, बल्कि यह समुद्र के वातावरण में पूरी तरह से समाहित कर सकती है।
  • सिलिकॉन रबर से बनी यह रोबोट मछली, समुद्र के भीतर की दुनिया की तस्वीरें ले सकती है, जिससे वैज्ञानिकों को समुद्री जीवन के बारे में अधिक-से-अधिक जानकारी मिल सकेगी।
  • वैज्ञानिकों द्वारा सोफी की आँख में एक लेंस लगाया गया है, जिसकी मदद से हाई रेज़ोल्यूशन की तस्वीरें और वीडियो रिकॉर्ड तैयार किये जा सकते हैं।
  • वैज्ञानिकों द्वारा वाटरप्रूफ सुपर निनटेंडो कंट्रोलर का इस्तेमाल किया गया। साथ ही एक खास संचार तंत्र के माध्यम से सोफी की रफ्तार और उसकी गतिविधि को नियंत्रित किया जा सकता है।
  • इसे तैरने में सक्षम बनाने के लिये मोटर पंप संलग्न किये गए हैं। 
  • सोफी के माध्यम से समुद्री जीवों के विषय में जानकारी प्राप्त करने और जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्र के नीचे होने वाले बदलावों के बारे में जानकारी प्राप्त हो सकेगी।

कैंसर की नई दवा आइ-बेट-762

वैज्ञानिकों द्वारा एक नई दवा का परीक्षण किया जा रहा है, जो स्तन और फेंफड़े के कैंसर को प्रेरित करने वाले जीन के विकास एवं कैंसर को फैलने से रोक सकता है। यह मोटापे से संबंधित जीन है।

  • अमेरिका की मिशिगन स्टेट यूनिवर्सिटी के शोधकर्त्ताओं के अनुसार, आई-बेट-762 नामक दवा स्तन और फेंफड़े के कैंसर के प्रसार को नियंत्रित करने में मददगार साबित होगी।
  • 'कैंसर प्रिवेंशन रिसर्च' जर्नल में प्रकाशित इस अध्ययन के अनुसार, यह दवा सी-एमवाईसी नामक जीन को साधने में भी काम करती है ताकि ये जीन आगे नहीं बढ़ पाए।
  • इस प्रक्रिया में यह दवा कैंसर और इम्यून सेल्स में कई तरह के अहम प्रोटीन पर अंकुश लगा सकती है। यह इसलिये भी अहम हो जाती है क्योंकि ये प्रोटीन कोशिकाओं के बीच होने वाली प्रक्रियाओं में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
  • इतना ही नहीं, आई-बेट-762 दोनों सेल्स में पीएसटीएटी 3 के स्तर में 50 फीसद तक की कमी कर सकती है।
  • ज्ञात हो कि पीएसटीएटी 3 नामक प्रोटीन यदी सुचारु रूप से कार्य करता है, तो यह इम्यून सेल्स द्वारा कैंसर से बचाव करने में बाधा उत्पन्न कर सकता है।