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भारतीय राजव्यवस्था

न्यायालय की अवमानना

  • 30 Sep 2021
  • 6 min read

प्रिलिम्स के लिये:

न्यायालय की अवमानना से संबंधित विभिन्न मामले तथा दंड हेतु प्रावधान

मेन्स के लिये:

न्यायिक अवमानना अधिनियम, 1971, न्यायिक अवमानना के प्रकार, न्यायिक अवमानना से संबंधित विभिन्न चिंताएँ

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने यहाँ माना कि अनुच्छेद 129 के तहत अवमानना के लिये दंडित करने की उसकी शक्ति एक संवैधानिक शक्ति है, जिसे किसी भी कानून द्वारा समाप्त नहीं किया जा सकता है।

प्रमुख बिंदु

  • निर्णय के प्रमुख बिंदु:
    • अवमानना के लिये दंड देने की शक्ति इस न्यायालय में निहित एक संवैधानिक शक्ति है जिसे विधायी अधिनियम द्वारा भी कम या समाप्त नहीं किया जा सकता है।
    • अनुच्छेद 142 (2) में कहा गया है कि "संसद द्वारा इस संबंध में बनाए गए किसी भी कानून के प्रावधानों के अधीन" सर्वोच्च न्यायालय के पास अपनी अवमानना की सजा पर कोई भी आदेश देने की पूरी शक्ति होगी।
      • हालाँकि अनुच्छेद 129 में कहा गया है कि सर्वोच्च न्यायालय अभिलेखों का न्यायालय होगा और उसके पास अवमानना के लिये दंड देने की शक्ति सहित इस प्रकार के न्यायालय की सभी शक्तियाँ होंगी।
    • दो प्रावधानों की तुलना से पता चलता है कि यद्यपि संविधान निर्माताओं ने यह महसूस किया कि अनुच्छेद 142 के खंड (2) के तहत न्यायालय की शक्तियाँ संसद द्वारा बनाए गए किसी भी कानून के अधीन हो सकती हैं, लेकिन जहाँ तक ​​अनुच्छेद 129 का संबंध है, उसके संबंध में ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं है।
    • न्यायालय द्वारा इस बात पर जोर दिया गया कि अवमानना क्षेत्राधिकार को बनाए रखने का उद्देश्य न्यायिक मंचों की संस्था की गरिमा को बनाए रखना है।
  • ‘न्यायालय की अवमानना’ के विषय में:
    • न्यायिक अवमानना अधिनियम, 1971 (Contempt of Court Act, 1971) के अनुसार, न्यायालय की अवमानना का अर्थ किसी न्यायालय की गरिमा तथा उसके अधिकारों के प्रति अनादर प्रदर्शित करना है।
      • अभिव्यक्ति 'अदालत की अवमानना' को संविधान द्वारा परिभाषित नहीं किया गया है।
      • हालाँकि, संविधान के अनुच्छेद 129 ने सर्वोच्च न्यायालय को स्वयं की अवमानना ​​के लिये दंडित करने की शक्ति प्रदान की।
      • अनुच्छेद 215 ने उच्च न्यायालयों को संबंधित शक्ति प्रदान की।
    • न्यायालय का अवमानना अधिनियम, 1971 के अनुसार, न्यायालय की अवमानना दो प्रकार की होती है:
      • नागरिक अवमानना: न्यायालय के किसी भी निर्णय, डिक्री, निर्देश, आदेश, रिट अथवा अन्य किसी प्रक्रिया या किसी न्यायालय को दिये गए उपकरण के उल्लंघन के प्रति अवज्ञा को नागरिक अवमानना कहते हैं।
      • आपराधिक अवमानना: यह किसी भी मामले का प्रकाशन है या किसी अन्य कार्य को करना है जो किसी भी न्यायालय के अधिकार का हनन या उसका न्यूनीकरण करता है, या किसी भी न्यायिक कार्यवाही में हस्तक्षेप करता है, या किसी अन्य तरीके से न्याय के प्रशासन में बाधा डालता है।
  • संबंधित मुद्दे:
    • हालाँकि "निष्पक्ष" क्या है इसका निर्धारण न्यायाधीशों की विवेक पर छोड़ दिया गया है।
      • यह ओपन-एंडेड शर्ते कभी-कभी अनुच्छेद 19 के तहत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को संकट में डालता है। 
      • ओपन-एंडेड शर्तें: अधिनियम की धारा 5 में प्रावधान है कि "निष्पक्ष आलोचना" या "निष्पक्ष टिप्पणी" अंतिम रूप से तय किये गए मामले की योग्यता पर अवमानना ​​नहीं होगी।
    • प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन: न्यायाधीशों को अक्सर अपने स्वयं हित में कार्य करते हुए देखा जा सकता है, इस प्रकार प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन होता है और जनता के विश्वास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है जिसे वे कार्यवाही के माध्यम से संरक्षित करना चाहते हैं।

आगे की राह

  • अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मौलिक अधिकारों में सबसे मौलिक है और उस पर प्रतिबंध न्यूनतम होना चाहिये।
    • न्यायालय की अवमानना का कानून केवल ऐसे प्रतिबंध लगा सकता है जो न्यायिक संस्थानों की वैधता को बनाए रखने के लिये आवश्यक हैं।
  • इसलिये नैसर्गिक न्याय और निष्पक्षता के सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए आपराधिक अवमानना की कार्रवाई करते समय उच्च न्यायालयों द्वारा नियोजित प्रक्रिया को परिभाषित करते हुए नियम एवं दिशा-निर्देश तैयार किये जाने चाहिये।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

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