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जैव विविधता और पर्यावरण

जलवायु परिवर्तन के कारण अरब जगत की बढ़ती मुश्किलें

  • 07 Jun 2018
  • 6 min read

संदर्भ

पिछले कुछ वर्षों में अरब जगत में पर्यावरणीय दशाओं में बहुत अधिक बदलाव आ चुका है। वहाँ की नदियाँ धीरे-धीरे सूखती जा रही हैं और उनका स्थान रेत के ढेर लेते जा रहे हैं। अकालों के कारण अरब जगत के किसानों को फसलों के उत्पादन को बंद करण पड़ रहा है। रेत के तूफानों की आवृत्ति में वृद्धि हो रही है। लेकिन, वहाँ की सरकारों की इस संदर्भ में उदासीनता और भी बड़ा चिंता का विषय है।

प्रमुख बिंदु

  • जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में यह उदासीनता मध्य-पूर्व और उत्तरी अफ्रीका में सामान्य है, जबकि इससे संबंधित स्थिति दिनोंदिन खराब होती जा रही है।
  • जर्मनी के मैक्स प्लैंक इंस्टिट्यूट के अनुसार, राबात से लेकर तेहरान तक लंबे अकाल, हीटवेब्स, और   रेतीले तूफानों की आवृत्ति में बढ़ोतरी होने वाली है।
  • पहले से ही शुष्क सीजनों की अवधि और शुष्कता में वृद्धि हो रही है, जिससे फसलें नष्ट हो रही हैं। तापमान में निरंतर बढ़ोतरी हो रही है और प्रति वर्ष गर्मियों के दौरान वहाँ तापमान नए रिकॉर्ड स्थापित कर रहा है। 
  • यदि ये स्थितियाँ कुछ और सालों तक बनी रहती हैं, तो इनके भयावह परिणाम हो सकते हैं।
  • इंस्टिट्यूट ने अनुमान लगाया है कि मध्य-पूर्व और उत्तरी अफ्रीका में ग्रीष्मकालीन तापमान वैश्विक औसत के मुकाबले दोगुनी गति से बढ़ रहा है।
  • एक अध्ययन के मुताबिक, गल्फ क्षेत्र में 2100 तक ‘वेट-बल्ब तापमान’ (आर्द्रता और हीट का एक माप) इतना अधिक हो सकता है कि यह क्षेत्र निवास योग्य न रह पाए। 
  • पानी की कमी एक और बड़ी समस्या है। मध्य-पूर्व और उत्तरी अफ्रीका में पहले ही पानी की कम उपलब्धता है और आने वाले समय में जलवायु परिवर्तन के कारण वहाँ वर्षा में और गिरावट आने की संभावना है।
  • मोरक्को उच्चभूमि जैसे क्षेत्रों में वर्षा में इसमें 40 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है। हालाँकि, जलवायु परिवर्तन से यमन जैसे तटीय देशों में अतिरिक्त वर्षा हो सकती है, लेकिन वाष्पीकरण की उच्च मात्रा इसका प्रभाव शून्य कर देगी।
  • किसान फसलों की सिंचाई में समस्याओं का सामना कर रहे हैं। फलस्वरूप, वे और अधिक कुओं की खुदाई कर रहे हैं और पुराने एक्विफायरों से अधिक पानी का निष्कर्षण कर रहे हैं।
  • नासा द्वारा सैटेलाइट का उपयोग कर किये गए एक अध्ययन से पता चला है कि 2003 से 2010 के बीच टिगरिस और यूफ्रेट्स बेसिनों से 144 घन किलोमीटर (मृत सागर के आयतन के बराबर) ताजा पानी समाप्त हो चुका है। इस कमी का मुख्य कारण कम वर्षा की भरपाई हेतु भूजल का निष्कर्षण था।
  • जलवायु परिवर्तन इस क्षेत्र को राजनीतिक रूप से भी अस्थिर बना रहा है। जब उत्तरी सीरिया में 2007 से 2010 के मध्य अकाल की स्थिति थी, तो वहाँ से लगभग 1.5 मिलियन लोगों ने उन शहरों की तरफ पलायन किया, जहाँ पहले से ही लोगों को दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा था।
  • ईरान में 1990 के दशक से ही अकालों की श्रृंखला ने बहुत सारे किसानों को ग्रामीण इलाकों को छोड़ने पर मजबूर कर दिया। ऐसे में इन समस्याओं ने किसी न किसी हद तक दोनों देशों की बिगड़ती दशा में आग में घी का काम किया है ।संसाधनों की कमी की आशंका मात्र ही टकराव को जन्म दे सकती है। इसका उदाहरण हमें तब देखने को मिला, जब इथियोपिया ने नील नदी पर एक बड़ा बांध बनाना शुरू किया, जो इस नदी के जल प्रवाह में कमी ला सकता था, तो मिस्र ने इथियोपिया को युद्ध की धमकी दे डाली।

संभावित उपाय 

  • हालाँकि, वैज्ञानिकों ने ऐसे उपाय सुझाए हैं, जिन्हें अपनाकर अरब देश जलवायु परिवर्तन से मुकाबला कर सकते हैं। जैसे- कृषि उत्पादन को तापमान प्रतिरोधी फसलों की ओर स्थानांतरित किया जा सकता है।
  • इजरायल ड्रिप सिंचाई का उपयोग करता है, जिससे पानी की बचत होती है। अन्य देश भी इस तरीके को अपना सकते हैं।
  • शहरों की संरचना में परिवर्तन कर उन्हें ‘नगरीय ऊष्मा द्वीप’ बनने से बचाया जा सकता है।
  • कुछ देश पर्यावरण प्रदूषण को नियंत्रित करने हेतु अपने उत्सर्जन को कम करने के प्रयासों में लगे हुए हैं। उदाहरणस्वरूप, मोरक्को रेगिस्तान में एक विशाल सौर ऊर्जा संयंत्र का निर्माण कर रहा है। सऊदी अरब तेल निर्यात को कम तो नहीं कर रहा है, लेकिन यह भविष्य में एक विशाल सौर ऊर्जा संयंत्र स्थापित करने की योजना बना रहा है।
  • मध्य-पूर्व और उत्तरी अफ्रीका के देशों को अनिवार्य रूप से जलवायु अनुकूलन हेतु प्रयास करने होंगे। अन्यथा भविष्य में उन्हें गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है।
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