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भारतीय अर्थव्यवस्था

जलवायु परिवर्तन और अर्थव्यवस्था

  • 14 Feb 2020
  • 8 min read

प्रीलिम्स के लिये:

आर्द्र बल्ब तापमान, शहरी ऊष्मा द्वीप

मेन्स के लिये:

अर्थव्यवस्था पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव

चर्चा में क्यों?

हाल ही में मैक्किंज़े ग्लोबल इंस्टीट्यूट (McKinsey Global Institute) द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, बढ़ती ऊष्मा (Heat) से भारतीय अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित होगी।

मुख्य बिंदु:

  • रिपोर्ट में मुख्यतः बढ़ती ऊष्मा और श्रमबल पर उसके प्रभाव का अध्ययन किया गया है।
  • रिपोर्ट में अगले तीन दशकों में जलवायु परिवर्तन के भौतिक जोखिमों और सामाजिक-आर्थिक प्रभावों का विश्लेषण एक सामान्य व्यावसायिक परिदृश्य में किया गया है।

रिपोर्ट के मुख्य बिंदु:

  • अगले तीन दशकों में अत्यधिक ऊष्मा के कारण भारत के श्रमबल की कार्यक्षमता में काफी कमी आएगी तथा भारत की लगभग 75% श्रम शक्ति (लगभग 380 मिलियन लोग) ऊष्मा संबंधी तनाव से प्रभावित होगी।
  • वर्ष 2030 तक दिन के कार्य घंटों (Daylight Working Hours) में कमी होने से सकल घरेलू उत्पादन (GDP) में सालाना 2.5%-4.5% तक नुकसान हो सकता है।
  • यदि प्रमुख अनुकूलन और शमन उपायों को नहीं अपनाया गया तो भारत का एक बड़ा हिस्सा बहुत गर्म हो जाएगा जहाँ जीवित रहना और खुले में काम करना मुश्किल होगा।
  • बढ़ती ऊष्मा और आर्द्रता का स्तर वर्ष 2030 तक 160 मिलियन से 200 मिलियन भारतीयों को भीषण गर्म-लहरों से प्रभावित कर सकता है।

आर्द्र बल्ब तापमान (Wet Bulb Temperature):

  • ‘आर्द्र बल्ब तापमान’ में ऊष्मा और आर्द्रता दोनों पर विचार किया जाता है, अर्थात् यदि सापेक्ष आर्द्रता 100% है, तो ‘आर्द्र बल्ब’ का तापमान वायु के तापमान के बराबर होता है तथा यदि आर्द्रता 100% से कम है तो तापमान वायु के तापमान से कम होगा।

घातक उष्म-धाराएँ (Lethal Heat Waves) व शहरी ऊष्मा द्वीप (Urban Heat Island):

  • यदि तीन या अधिक दिनों तक 34°C तापमान हो तथा आर्द्र बल्ब तापमान' की स्थिति हो तब घातक उष्म-धाराएँ उत्पन होंगी परंतु यदि तापमान 35°C से अधिक हो तो ‘शहरी ऊष्मा द्वीप’ प्रभाव होगा।

100% आर्द्रता और तापमान 35°C के ऊपर होने पर मानव शरीर, पसीना आने तथा ठंडा होने की अपनी प्राकृतिक क्षमता को खो देता है। 35°C तापमान से अधिक के ‘आर्द्र बल्ब’ के तापमान पर हम कुछ घंटे ही खुले में रह सकते हैं।

  • वैश्विक स्तर पर वर्ष 2050 तक सिर्फ 700 मिलियन से 1.2 बिलियन लोग ‘घातक उष्म-धाराएँ’ जैसे गैर-शून्य संभावना क्षेत्र (Non-Zero Chance Zone) में रह रहे होंगे।
  • उच्च तापमान और ‘घातक उष्म-धाराएँ’ श्रम शक्ति की बाह्य कार्यक्षमता में बाधा उत्पन्न करेंगी।
  • अनुमान बताते हैं कि अत्यधिक ऊष्मा के कारण कार्यशील घंटों की संख्या में होने वाली कमी वर्ष 2050 तक वर्तमान के 10% से बढ़कर 15-20% हो जाएगी तथा इससे आर्थिक विकास बुरी तरह प्रभावित होगा।
  • कई अध्ययनों से पता चला है कि विकासशील गरीब देश जिनका प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद कम है वे अपनी भौतिक थ्रेसहोल्ड सीमा (वह न्यूनतम स्तर जिस पर परिसंपत्ति का प्रदर्शन और स्थिति स्वीकार्य है) के करीब हैं तथा आने वाले दशकों में जलवायु परिवर्तन से बुरी तरह प्रभावित होंगे।

अन्य प्रभाव:

1. ग्लोबल वार्मिंग और महासागर:

  • ग्लोबल वार्मिंग के कारण अतिरिक्त ऊष्मा का एक बड़ा भाग (लगभग 90%) महासागरों में संग्रहीत हो रहा है जो सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को नुकसान पहुँचाएगा।
  • रिपोर्ट के अनुसार, बढ़ते सागरीय तापमान के कारण कम होती मत्स्य संख्या इस उद्योग से जुड़े 650-800 मिलियन लोगों की आजीविका को प्रभावित करेगी।
  • दूसरी ओर जलवायु परिवर्तन से शीतोष्ण कटिबंधीय विकसित देशों के आर्थिक विकास को बढ़ावा मिलेगा। यथा उत्तरी यूरोप और कनाडा के कृषि, पर्यटन जैसे क्षेत्रों को बढ़ते तापमान से कुछ फायदा हो सकता है।

2. टिपिंग पॉइंट्स (Tipping Points) प्रभाव:

  • परिवर्तन की एक सीमा को पार करने के बाद जलवायु के गैर-रेखीय प्रभाव उत्पन्न होते है इस सीमा को ’टिपिंग पॉइंट्स’ कहते है। टिपिंग पॉइंट्स के बाद छोटे-छोटे परिवर्तन या घटनाएँ एक बड़े तथा अधिक परिवर्तन का कारण बन जाती हैं। अत्यधिक ऊष्मा के उपर्युक्त प्रभावों के अलावा सामाजिक-आर्थिक क्षेत्र पर ’टिपिंग पॉइंट्स’ प्रभाव पड़ेगा।
  • उदाहरण के लिये वियतनाम में हो ची मिन्ह सिटी मानसून व तूफान के कारण बाढ़ से प्रभावित है जहाँ अनुकूलन के बिना 100 वर्षों की बाढ़ से बुनियादी ढाँचे को होने वाला प्रत्यक्ष नुकसान 2050 तक 1 बिलियन डॉलर तक बढ़ सकता है।

3. खाद्य उत्पादन पर प्रभाव:

  • यह वैश्विक उष्णता के ‘टिपिंग प्रभाव’ से प्रभावित होने वाला अन्य क्षेत्र है। यहाँ कृषि पद्धतियों को विशिष्ट मौसम और जलवायु परिस्थितियों के अनुसार विकसित तथा अनुकूलित किया गया है। अतः इन सामान्य परिस्थितियों में कोई भी बदलाव, उत्पादकता को उच्च जोखिम में डालता है।
  • वैश्विक अनाज उत्पादन का लगभग 60% केवल पाँच ‘अनाज की टोकरी’ (Breadbasket) क्षेत्रों में होता है। ‘अनाज की टोकरी’ एक ऐसे क्षेत्र को कहते हैं जो मिट्टी और लाभप्रद जलवायु के कारण बड़ी मात्रा में गेहूँ या अन्य अनाज पैदा करती है। जलवायु परिवर्तन के कारण इन क्षेत्रों को हुए किसी भी प्रकार के नुकसान का वैश्विक खाद्य सुरक्षा पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा।

आगे की राह:

  • रिपोर्ट में सरकारों और व्यापार जगत से आग्रह किया गया है कि वे जलवायु परिवर्तन के जोखिम को कम करने के लिये सही उपकरणों और विश्लेषण क्षमता को आगे बढ़ाएँ।
  • जलवायु जोखिम को संबोधित करने के लिये उचित शासन व्यवस्था एवं कम कार्बन वाली तकनीकों पर काम करें।

स्रोत: द हिंदू

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