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तलाक के विषय में चर्च अदालतें नहीं कर सकती हैं वीटो का प्रयोग

  • 20 Jan 2017
  • 5 min read

पृष्ठभूमि 

  • 19 जनवरी को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह वक्तव्य जारी किया गया है कि गिरिजाघर प्राधिकरणों अथवा चर्च अदालतों (Ecclesiastical Tribunals or Church Courts) द्वारा जारी किये जाने वाले कानून (Canon law) तथा तलाक के फरमान, तलाक संबंधी वैधानिक कानून (Statutory law of divorce) को वीटो नहीं कर सकते हैं|
  • दरअसल, यह व्याख्या मुख्य न्यायाधीश जे.एस. खेहर तथा न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ द्वारा वर्ष 2013 में सर्वोच्च न्यायालय में दायर एक याचिका पर निर्णय देते हुए की गई, जिसमें इस बात पर स्पष्टीकरण मांगा गया था कि ‘गिरिजाघर प्राधिकरणों द्वारा जारी किये जाने वाले फरमान वैध तथा बाध्यकारी होते हैं’|  

वर्ष 1996 का निर्णय

  • इस दौरान न्यायालय ने वर्ष 1996 में मौली जोसेफ बनाम जॉर्ज सेबेस्टियन मामले में दिये गए अपने उस निर्णय को निर्दिष्ट किया जिसमें 1869 के भारतीय तलाक अधिनियम (Indian Divorce Act of 1869) के बाध्यकारी स्वरूप का समर्थन किया गया था|
  • उक्त मामले में न्यायालय द्वारा कहा गया था कि कैनन कानून का आशय या तो धार्मिक है अथवा गिरिजाघर तक ही सीमित है; परन्तु इसका ईसाई धर्म में आस्था रखने वाले व्यक्तियों के मध्य हुए तलाक या विवाह के निरस्तीकरण पर कोई कानूनी प्रभाव नही पड़ता है|
  • तलाक अधिनियम के प्रभाव में आने के पश्चात् निजी कानूनों के अंतर्गत होने वाले विच्छेद अथवा विलोपन (Dissolution or Annulment) का कोई कानूनी प्रभाव नहीं हो सकता है क्योंकि इस कानून के अंतर्गत तलाक अथवा विलोपन के लिये विभिन्न प्रक्रियाओं और संहिताओं की व्यवस्था की गई है|

तीन तलाक का विवाद

  • कर्नाटक में दक्षिण कन्नड़ के कैथोलिक संगठन (Catholic Association of Dakshina Kannada) के पूर्व अध्यक्ष पैस (Pais) द्वारा दायर याचिका में यह तर्क दिया गया कि अगर सर्वोच्च न्यायालय मुस्लिम पर्सनल लॉ (Mohammedan personal law) के अंतर्गत तीन तलाक के माध्यम से हुए विवाह विच्छेद को मान्यता प्रदान कर सकता है, तो उसे कैनन कानून (Canon law) को भी भारतीय कैथोलिकों के पर्सनल लॉ के रूप में मान्यता प्रदान करनी चाहिये|
  • ध्यातव्य है कि वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तीन तलाक के मुद्दे पर दायर याचिकाओं (जिसमे एक स्वतः संज्ञान वाली याचिका भी शामिल है) की सुनवाई की जा रही है| इन याचिकाओं के अंतर्गत यह प्रश्न उठाया गया है कि क्या इस्लामी पर्सनल लॉ की प्रथाएँ जैसे- तीन तलाक और बहु विवाह में मुस्लिम महिलाओं के विरुद्ध पक्षपात किया जा रहा है?
  • यही कारण है कि पैस द्वारा दायर याचिका में न्यायालय के समक्ष यह चुनौती प्रस्तुत की गई है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 494 के तहत न्यायालय रोमन कैथोलिकों के कैनन कानून पर पूरी तरह से विचार किये बिना ही, ईसाई धर्म में प्रदत्त द्विविवाह के अधिकार को कथित अपराध के रूप में संबोधित क्यों किया गया हैं? विशेषकर, ऐसी स्थिति में जब ईसाई धर्म में दो विवाह के सिद्धांत को मंज़ूरी प्रदान की गई है|

विवाह तथा विच्छेद का मामला 

  • इस याचिका में कहा गया है कि “कैनन कानून के अंतर्गत यह आदेश प्रदत्त किया गया है कि ईसाइयों के लिये कैथोलिक चर्च में विवाह करना अनिवार्य है, साथ ही, समान रूप से यह भी आदेश दिया गया है कि वे कैनन कानून की संहिता के तहत वर्णित अदालत (गिरिजाघर न्यायालय/न्यायाधिकरण) में शून्यता (nullity) की मांग कर सकते हैं, और ऐसा न किये जाने पर विवाह तथा विच्छेद दोनों को कैथोलिक चर्च द्वारा मान्यता प्रदान नहीं की जाएगी|
  • ध्यातव्य है कि इस याचिका के अंतर्गत इस बात की ओर भी ध्यान आकर्षित किया गया है कि शून्यता की घोषणा करने के लिये देश के गिरिजाघर न्यायाधिकरणों (Ecclesiastical Tribunals) के समक्ष मुंबई में लगभग 1,000 तथा मंगलौर में तकरीबन 100 आवेदन लंबित पड़े हुए हैं|
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