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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

भारत की व्यापार नीति की बदलती दिशा

  • 14 Jun 2017
  • 9 min read

संदर्भ
भारत का वाणिज्य मंत्रालय अपनी व्यापार नीति की मध्य-वार्षिक समीक्षा कर रहा है। यह समीक्षा इसलिये भी बेहद महत्त्वपूर्ण हो गई है, क्योंकि 1 जुलाई से देश में समान कर व्यवस्था अर्थात जीएसटी लागू होने जा रही है| बेशक जीएसटी का लागू होना देश की कर-व्यवस्था और कर-प्रणाली का अब तक का सबसे बड़ा सुधार है, लेकिन यही सबकुछ नहीं है| समय की मांग और समझदारी इसमें है कि व्यापार नीति की समीक्षा के दौरान वैश्विक व्यापार की बदलती संरचना तथा वैश्वीकरण की तेज़ी से विकसित हो रही प्रकृति के साथ साम्य रखा जाए| 

मुद्दा क्या है?
वैश्वीकरण के गलत विभाजन से उत्पन्न हुए वितरण प्रभावों के खिलाफ गहरा असंतोष, पारिश्रमिक में भारी अंतर और बढ़ती असमानता जैसी कई कठिनाइयों ने राष्ट्रवाद के एक आक्रामक ब्रांड को जन्म दिया है| इनमें से कई कठिनाइयों को अब कई देशों की आर्थिक और राजनीतिक विचारधाराओं में स्थान मिल गया है।

यहाँ हम दो उदाहरण देकर इसे समझाने का प्रयास कर रहे हैं:
1. यूनाइटेड किंगडम में ब्रेक्सिट के विचार की मार्केटिंग यूरोपीय संघ से आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त करने की ब्रांडिंग देकर की गई।
2. व्यापार पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के कार्यकारी निर्णय (प्रशांत-पारीय साझेदारी से हटना, एच1बी वीज़ा को सीमित करना, उत्तरी अमेरिका के मुक्त व्यापार समझौते को छोड़ने की धमकी) या यूरोपीय नेताओं को धमकाना और पेरिस जलवायु समझौते को अमान्य कर देना इसी आक्रामक राष्ट्रवाद की ब्रांडिंग है| 

  • ऐसा प्रतीत होता है कि ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करने का उद्देश्य स्थानीय शिकायतों/ कठिनाइयों/परेशानियों से देश की जनता का ध्यान हटाना है| 
  • उपरोक्त दोनों देशों ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के परिदृश्य में वित्तीय और सुरक्षा संरचना निर्माण में प्रमुख भूमिका निभाई है और वैश्वीकरण को प्रमाणों और आत्मविश्वास से वंचित कर एक सट्टा बाज़ार जैसा बना दिया है, जहाँ सबकुछ अनुमानों पर आधारित है। 
  • दोनों देशों को अब एक नव-अलगाववादी सिद्धांत के ध्वजवाहक के रूप में देखा जाने लगा है। 
  • भारत के पारंपरिक व्यापारिक स्वरूप को उलझाते हुए ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और सिंगापुर भी अमेरिका की राह पर चल निकले हैं। 

इसके अलावा, भारतीय उपमहाद्वीप के पड़ोस में होने वाले निम्नलिखित दो महत्त्वपूर्ण बदलावों ने स्थिति को और उलझा दिया है: 
1. OBOR, जिसे चीन की अधिशेष घरेलू क्षमता में सुधार लाने और उसकी विस्तारवादी आकांक्षाओं को अभिव्यक्ति देने का माध्यम माना जा रहा है| 
2. अभी हाल ही में पश्चिमी एशिया में सऊदी अरब, मिस्र, बहरीन, संयुक्त अरब अमीरात, लीबिया, यमन और मालदीव द्वारा कतर पर सामूहिक रूप से अनौपचारिक प्रतिबंध लगाकर परिवहन व्यवस्था को बाधित करके और आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति रोक देना।

यहाँ यह सब बताने का तात्पर्य मात्र इतना है कि इन सभी घटनाक्रमों से वैश्विक व्यापार प्रणाली का प्रभावित होना निश्चित है और भारत भी इससे अछूता नहीं रह सकता| 

ऐसे में क्या करे भारत

  • यह जरूरी है कि जीएसटी का उचित संज्ञान लेते हुए भारत की व्यापार नीति वैश्विक व्यापार परिदृश्य को बदलने के साथ-साथ घरेलू व्यापार की अवसंरचना को सुधारने वाली होनी चाहिये। 
  • यह भारत के लिये उचित अवसर है कि वह अपनी व्यापार नीति को रणनीतिक स्वरूप देकर उसे सुदृढ़ कर पुनर्स्थापित करे| 
  • 2015 में जारी विदेश व्यापार नीति में कहा भी गया है कि वैश्विक कारोबारी परिदृश्य में परिवर्तन एक सतत प्रक्रिया है|

व्यापार नीति में मुख्यतः तीन क्षेत्रों पर ध्यान देना ज़रूरी
1. पहला, पश्चिमी देशों में पारंपरिक व्यापार भागीदारों पर निर्भरता कम करके अफ्रीकी महाद्वीप जैसे वैकल्पिक बाज़ारों में भारत के व्यापार और निवेश के अवसर तलाशना| यहाँ भी भारत को अपने पड़ोसी चीन का सामना करना पड़ रहा है| अफ्रीका के साथ भारत का व्यापार 2014-15 में 72 अरब डॉलर था, जो 2015-16 में घटकर 56.7 अरब डॉलर रह गया। इसके विपरीत चीन और अफ्रीकी महाद्वीप के बीच वर्ष 2014 में द्विपक्षीय व्यापार 215 अरब डॉलर था| इस स्थिति को सुधारने के लिये इधर हाल-फिलहाल भारत ने अफ्रीकी महाद्वीप के देशों से संबंध सुधारने की प्रक्रिया तेज़ की है| इस कड़ी में भारत के राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री अफ्रीका महाद्वीप के 16 देशों की यात्रा कर चुके हैं| इसके अलावा, हाल ही में अहमदाबाद में अफ्रीकी विकास बैंक की 52वीं बैठक आयोजित की गई| इसके बावजूद, व्यापार नीति में यह देखना ज़रूरी है कि वाणिज्य, वित्त और विदेश मंत्रालय के बीच समन्वित कार्रवाई भारत के व्यापार प्रयासों के विस्तार में किस प्रकार सहायता कर सकती है?
2. दूसरा, भारत की व्यापार नीति और ‘मेक इन इंडिया’ के बीच की कड़ी (Link) को स्पष्ट करने की आवश्यकता है, जिसमें वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं के माध्यम से रणनीतिक संबंधों को भी शामिल किया जाए| नीति में यह भी स्पष्ट होना चाहिये कि क्या वैश्विक बाज़ार में अपनी उपस्थिति बढ़ाने के लिये भारत को घरेलू विनिर्माण केंद्रों की ज़रूरत है या असेम्बलिंग इकाइयों की, जैसा कि चीन की मोबाइल कम्पनियाँ भारत में कर रही हैं|
3. तीसरा और अंतिम क्षेत्र है, सेवाओं के व्यापार का| इस मुद्दे पर ऐसा प्रतीत होता है कि समृद्ध देशों में ठोस कदम उठाए गए हैं, जिनमें सेवाओं में व्यापार शुरू करने के अलावा पेशेवरों की आवाजाही भी शामिल है| चूँकि भारत इस क्षेत्र में दक्षता रखता है, इसलिये यह उसकी पुरानी मांग रही है क्योंकि सेवाओं में व्यापार अब तक असममित (Asymmetric) रहा है| बढ़ती बेरोज़गारी, (विशेष रूप से यूरोप में)  इस क्षेत्र में भारत के लिए परेशानियाँ उत्पन्न  कर सकती है, इसलिये यह अत्यंत आवश्यक है कि सेवाओं में व्यापार सुविधा के लिये भारत की मांग और रणनीति को संशोधित व्यापार नीति में अभिव्यक्ति अवश्य मिलनी चाहिये।

निष्कर्ष
भारत की विदेश व्‍यापार नीति 2015-2020 में वस्‍तुओं एवं सेवाओं का निर्यात बढ़ाने के साथ-साथ रोजगार सृजन करने और 'मेक इन इंडिया' को ध्‍यान में रखते हुए देश में मूल्‍यवर्द्धन को नई गति प्रदान करने की रूपरेखा का उल्लेख किया गया है। इसके अलावा इस नीति में विनिर्माण एवं सेवा दोनों ही क्षेत्रों को समर्थन देने पर भी ध्‍यान केन्द्रित किया गया है। फिर भी भारत को हरपल बदलती वैश्विक परिस्थितियों पर नज़र रखनी होगी, क्योंकि कई क्षेत्रोंमें उसके विदेश व्यापार का बड़ा हिस्सा अन्य देशों के पास चला गया है|

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