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शासन व्यवस्था

UAPA के तहत ज़मानत का प्रावधान

  • 16 Mar 2022
  • 10 min read

प्रिलिम्स के लिये:

गैर-कानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम, नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, आपराधिक प्रक्रिया संहिता, सर्वोच्च न्यायालय, प्रथम सूचना रिपोर्ट, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो।

मेन्स के लिये:

निर्णय और मामले, न्यायपालिका, सरकारी नीतियाँ और हस्तक्षेप, गैर-कानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम और संबंधित मुद्दे।

चर्चा में क्यों?

हाल ही में दिल्ली की एक अदालत ने वर्ष 2020 के नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019, (CAA) के विरोध के संबंध में दायर एक गैर-कानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम, 1967 (UAPA) मामले में काॅन्ग्रेस (राजनीतिक दल) के एक पूर्व पार्षद को जमानत दे दी है।

नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019

  • CAA पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के उन छह गैर-मुस्लिम समुदायों (हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई) को धर्म के आधार पर नागरिकता प्रदान करता है, जिन्होंने 31 दिसंबर, 2014 को या उससे पहले भारत में प्रवेश किया था।
  • यह छह समुदायों के सदस्यों को विदेशी अधिनियम, 1946 और पासपोर्ट अधिनियम, 1920 के तहत किसी भी आपराधिक मामले से छूट देता है।
    • दोनों अधिनियम अवैध रूप से देश में प्रवेश करने और वीज़ा या परमिट के समाप्त हो जाने पर यहाँ रहने के लिये दंड निर्दिष्ट करते हैं।

क्या था मौजूदा फैसला?

  • अदालत ने आरोपी को जमानत दे दी, जबकि अभियोजन पक्ष ने तर्क दिया कि UAPA की धारा 43 डी (5) में सीमाएँ हैं, इसमें एक ऐसा प्रावधान है जो कि ज़मानत देना लगभग असंभव बनाता है, क्योंकि यह न्यायिक तर्क के लिये बहुत कम गुंजाइश छोड़ता है।
    • बचाव पक्ष ने तर्क दिया कि UAPA की धारा 43डी केवल प्रतिबंध लगाती है, जबकि इसमें ज़मानत देने पर पूर्ण रूप से रोक लगाने संबंधी प्रावधान नहीं है।

UAPA में ज़मानत संबंधी प्रावधान और मुद्दे:

  • UAPA के साथ प्रमुख समस्या इसकी धारा 43 डी(5) में निहित है, जो किसी भी आरोपी व्यक्ति को ज़मानत पर रिहा करने से रोकता है, इस मामले में यदि पुलिस ने आरोप-पत्र दायर किया है कि यह मानने के लिये उचित आधार हैं और ऐसे व्यक्ति के खिलाफ आरोप प्रथम दृष्टया सही है, तो जमानत नहीं दी जा सकती।
    • धारा 43 (डी) (5) का प्रभाव यह है कि एक बार जब पुलिस किसी व्यक्ति पर UAPA के तहत आरोप लगाने का विचार करती है तो ज़मानत देना बेहद मुश्किल हो जाता है। ज़मानत स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार की सुरक्षा और गारंटी है।
  • यह प्रावधान न्यायिक तर्क के लिये बहुत कम गुंजाइश छोड़ता है तथा UAPA के तहत ज़मानत देना लगभग असंभव बना देता है। 
    • जहूर अहमद शाह वटाली के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2019 में पुष्टि की कि अदालतों को राज्य के मामले को उसकी योग्यता की जाँच किये बिना स्वीकार करना चाहिये।
    • हालाँकि अदालतों ने इस प्रावधान को अलग तरीके से पढ़ा है जिसमें एक त्वरित परीक्षण के अधिकार पर ज़ोर दिया गया है तथा राज्य के लिये UAPA के तहत एक व्यक्ति के लिये मानदंडों को और सशक्त बनाया गया है।

गैर-कानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम, 1967

  • UAPA को 1967 में अधिनियमित किया गया था तथा बाद में वर्ष 2008 और 2012 में सरकार द्वारा आतंकवाद विरोधी कानून के रूप में मज़बूत किया गया।
  • अगस्त, 2019 में संसद ने अधिनियम में प्रदान किये गए कुछ विशिष्ट आधारों पर किसी विशिष्ट व्यक्ति को आतंकवादी के रूप में नामित करने हेतु गैर-कानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) संशोधन विधेयक, 2019 को मंज़ूरी दी।
  • आतंकवाद से संबंधित अपराधों से निपटने के लिये यह सामान्य कानूनी प्रक्रियाओं से अलग है और एक असाधारण कानून बनाता है जहाँ अभियुक्तों के संवैधानिक सुरक्षा उपायों को कम कर दिया जाता है।
  • वर्ष 2016 और 2019 के बीच, जिस अवधि के लिये राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वारा UAPA के आँकड़े प्रकाशित किये गए हैं, UAPA  की विभिन्न धाराओं के तहत कुल 4,231 प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई थीं, जिनमें से 112 मामलों में दोषसिद्धि हुई है।
    • UAPA लगातार यह इंगित करता है कि भारत में अतीत में अन्य आतंकवाद विरोधी कानूनों जैसे- पोटा (आतंकवाद रोकथाम अधिनियम) 2002 और टाडा (आतंकवादी और विघटनकारी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम) 1987 की तरह इसका अक्सर दुरुपयोग किया जाता है।
  • UAPA से संबंधित मुद्दे
    • किसी अपराध को "आतंकवादी कृत्य" कहने के लिये विशेष प्रतिवेदक के अनुसार, तीन तत्त्वों का एक साथ होना आवश्यक है:
      • आपराधिक कृत्य में उपयोग किये गए साधन घातक होने चाहिये।
      • कृत्य के पीछे की मंशा समाज के लोगों में भय पैदा करना या किसी सरकार या अंतर्राष्ट्रीय संगठन को कुछ करने या कुछ करने से परहेज के लिये मजबूर करना होना चाहिये।
      • उद्देश्य एक वैचारिक लक्ष्य को आगे बढ़ाना होना चाहिये।
    • दूसरी ओर, UAPA "आतंकवादी गतिविधियों" की व्यापक और अस्पष्ट परिभाषा प्रदान करता है जिसमें किसी व्यक्ति की मृत्यु या चोट लगना, किसी भी संपत्ति को नुकसान पहुंचाना आदि भी शामिल है।
  • आतंकवादी गतिविधियों की अस्पष्ट परिभाषा: UAPA  के तहत "आतंकवादी गतिविधि" की परिभाषा आतंकवाद का मुकाबला करते हुए मानवाधिकारों और मौलिक स्वतंत्रता के संरक्षण पर संयुक्त राष्ट्र (यूएन) के विशेष प्रतिवेदक द्वारा प्रचारित परिभाषा से काफी भिन्न है। 
  • लंबित मुकदमे: भारत में न्याय वितरण प्रणाली की स्थिति को देखते हुए लंबित मुकदमों की दर औसतन 95.5 प्रतिशत है।
    • इसका मतलब यह है कि हर साल 5 प्रतिशत से कम मामलों में मुकदमा चलाया जाता है, जिस कारण आरोपियों को लंबे समय तक कारावास में रहना पड़ता है।
  • स्टेट ओवररीच: इसमें "धमकी देने" या "लोगों में आतंक का डर पैदा करने" जैसा कोई भी कार्य शामिल है, जो सरकार को इन कृत्यों के आधार पर किसी भी सामान्य नागरिक या कार्यकर्त्ता को आतंकवादी  साबित करने के लिये असीमित शक्ति प्रदान करता है।
    • इस प्रकार राज्य खुद को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत व्यक्तिगत स्वतंत्रता की तुलना में अधिक अधिकार देता है।
  • संघवाद के महत्त्व को कम आँकना: यह देखते हुए कि 'पुलिस' भारतीय संविधान की 7वीं अनुसूची के तहत राज्य का विषय है। कुछ विशेषज्ञों का मानना ​​है कि यह संघीय ढाँचे के खिलाफ है क्योंकि यह आतंकवाद के मामलों में राज्य पुलिस के अधिकार की उपेक्षा करता है।

आगे की राह

  • कथित दुरुपयोग के मामलों की सावधानीपूर्वक जाँच करने हेतु न्यायपालिका की बड़ी भूमिका है। न्यायिक समीक्षा के माध्यम से कानून के तहत मनमानी और व्यक्तिपरकता की जाँच की जानी चाहिये।
  • व्यक्ति को आतंकवादी के रूप में नामित किये जाने के खिलाफ अपील करने के अधिकार के तहत, न्यायपालिका को निष्पक्ष प्रक्रिया के मूल सिद्धांत का पालन करना चाहिये और नकली सबूतों का निर्माण करके व्यक्ति को फँसाने संबंधी कार्यपालिका के किसी भी इरादे से सतर्क रहना चाहिये।
  • कानून के तहत शक्तियों के किसी भी दुरुपयोग के दोषी पाए जाने वाले अधिकारियों को सख्त सज़ा दी जानी चाहिये।
  • व्यक्तिगत स्वतंत्रता एवं सुरक्षा प्रदान करने के लिये राज्य के दायित्व के बीच रेखा खींचना अत्यधिक दुविधा का विषय है। संवैधानिक स्वतंत्रता एवं आतंकवाद विरोधी गतिविधियों की अनिवार्यता के बीच संतुलन बनाना राज्य, न्यायपालिका, नागरिक समाज पर निर्भर है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

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