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भारतीय अर्थव्यवस्था

डिफॉल्टर्स की बैक-डोर एंट्री पर प्रतिबंध

  • 18 Mar 2021
  • 8 min read

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने इन्सॉल्वेंसी कार्यवाही के परिसमापन चरण के दौरान समझौता या व्यवस्था के विशेष प्रावधान का उपयोग करके बैक-डोर एंट्री करने वाले डिफॉल्टर्स पर रोक लगा दी है। 

  • न्यायालय का यह निर्णय दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता, 2016 के मूल भाव को और स्पष्ट करता है। 

प्रमुख बिंदु

पृष्ठभूमि

  • एक लिमिटेड कंपनी के परिसमापन से जुड़े विवाद में नेशनल कंपनी लॉ अपीलेट ट्रिब्यूनल (NCLAT) ने वर्ष 2019 में कहा था कि कोई भी व्यक्ति जो दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता,  2016 की धारा 29A के तहत अपनी ही कंपनी की परिसमापन में बोली लगाने के लिये अयोग्य है, वह कंपनी अधिनियम 2013 की धारा 230 के तहत समझौता और व्यवस्था हेतु एक योजना का प्रस्ताव देने के लिये भी अयोग्य होगा। 
    • कंपनी अधिनियम 2013 एक भारतीय कंपनी कानून है जो ‘कंपनी’ के निगमन, दायित्व, निदेशकों और कंपनी के विघटन आदि पहलुओं को नियंत्रित करता है।
      • यहाँ कंपनी का आशय इस अधिनियम के तहत अथवा पूर्व के किसी अधिनियम के तहत निगमित कानूनी इकाई से है।
    • कंपनी अधिनियम की धारा 230 कंपनी के प्रमोटरों या लेनदारों को व्यवस्था या समझौता प्रस्ताव देने की अनुमति देती है, जिसके तहत कंपनी के ऋण का पुनर्गठन किया जा सकता है।

सर्वोच्च न्यायालय का हालिया निर्णय

  • SC ने NCLAT के फैसले को बरकरार रखते हुए कहा कि कंपनी अधिनियम की धारा 230 केवल तब लागू होगी जब कंपनी सामान्य रूप से अपना कामकाज कर रही है, न कि तब जब कंपनी IBC के तहत परिसमापन का सामना कर रही है।

सर्वोच्च न्यायालय का तर्क

  • कंपनी को उसके न्यायिक विघटन या ‘कॉर्पोरेट डेथ’ से बचाना आवश्यक है।
  • यह एक गंभीर विसंगति उत्पन्न करेगा, जो लोग किसी भी प्रकार की रेज़ोल्यूशन योजना प्रस्तुत करने और परिसंपत्ति की बिक्री में हिस्सा लेने के लिये अयोग्य हैं, उन्हें कंपनी अधिनियम 2013 की धारा 230 के तहत एक समझौता या व्यवस्था का प्रस्ताव प्रस्तुत करने की अनुमति दी जाए।

निर्णय का महत्त्व

  • कंपनी की रेज़ोल्यूशन प्रक्रिया में तीव्रता: 
    • एक दिवालिया कंपनी के परिसमापन प्रक्रिया में प्रमोटरों की भागीदारी के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई स्पष्टता कॉर्पोरेट दिवाला रेज़ोल्यूशन प्रक्रिया को और अधिक तीव्रता प्रदान करेगा। 
  • संपत्ति मूल्य में बढ़ोतरी:
    • चूँकि IBC का उद्देश्य कंपनी के लिये एक उपयुक्त खरीदार ढूँढना है और परिसमापन संबंधी आदेश केवल उन मामलों में दिया जाता है, जहाँ कोई व्यवहार्य योजनाएँ प्रस्तुत नहीं की जाती हैं। विशेषज्ञों का मानना ​​है कि कंपनी की परिसंपत्तियों के मूल्य को अधिकतम करने के लिये त्वरित परिसमापन संबंधी प्रक्रिया बेहद महत्त्वपूर्ण है।
  • परस्पर विरोधी निर्णयों में स्पष्टता
    • सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (NCLT) की विभिन्न पीठों द्वारा दिये गए परस्पर विरोधी निर्णयों को स्पष्टता प्रदान करता है, जिसमें इन पीठों द्वारा संपत्ति के अधिकतम मूल्य के IBC के सिद्धांत का पालन करते हुए परिसमापन चरण के दौरान कुछ प्रमोटरों को कंपनी में फिर से बोली लगाने और कुछ को समझौता या व्यवस्था प्रस्ताव प्रस्तुत करने की अनुमति दी गई थी। 

दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता, 2016

परिचय

  • यह संहिता कंपनियों और आम लोगों के बीच दिवालियापन से संबंधित विषयों के समाधान के लिये एक योजनाबद्ध प्रक्रिया प्रदान करती है।
  • इसमें सभी व्यक्तियों, कंपनियों, सीमित देयता साझेदारी (LLP) और साझेदारी फर्म आदि शामिल हैं।

उद्देश्य

  • असफल व्यवसायों की संकल्प प्रक्रिया को सुव्यवस्थित एवं तीव्र करना।
  • दिवालिया समाधान हेतु सभी देनदारों और लेनदारों का एक सामान्य मंच स्थापित करने के लिये मौजूदा विधायी ढाँचे के प्रावधानों को मज़बूत करना।
  • यह सुनिश्चित करना कि एक तनावग्रस्त कंपनी की संकल्प प्रक्रिया को अधिकतम 270 दिनों में पूरा किया जाए।

धारा 29A

  • यह एक प्रतिबंधात्मक प्रावधान है, यह विशेष रूप से उन व्यक्तियों को सूचीबद्ध करता है जो संकल्प आवेदक होने के योग्य नहीं हैं।
  • धारा 29A न केवल प्रमोटरों को प्रतिबंधित करती है बल्कि प्रमोटरों से संबंधित/जुड़े लोगों को भी प्रतिबंधित करती है।
  • यह धारा उन लोगों को अयोग्य घोषित करती है, जिन्होंने कॉरपोरेट देनदारों के पतन में भूमिका अदा की थी, या वे कंपनी के संचालन के लिये अनुपयुक्त थे।

निर्णयन प्राधिकरण

  • कंपनियों और सीमित दायित्व साझेदारी के लिये नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (NCLT)।
  • व्यक्तियों और साझेदारी फर्मों के लिये ऋण वसूली न्यायाधिकरण (DRT)।

नेशनल कंपनी लॉ अपीलेट ट्रिब्यूनल (NCLAT)

  • नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (NCLT) के आदेशों के विरुद्ध अपील की सुनवाई के लिये कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 410 के तहत NCLAT का गठन किया गया है।
    • यह एक अर्द्ध-न्यायिक निकाय है जो कंपनियों से संबंधित मुद्दों का निपटान करता है।
  • यह दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता, 2016 की धारा 61 के तहत NCLT(s) द्वारा पारित आदेशों के लिये और IBC के अनुभाग 202 और 211 के तहत इन्सॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी बोर्ड ऑफ इंडिया (IBBI) द्वारा पारित आदेशों के लिये एक अपीलीय न्यायाधिकरण है।
  • NCLAT के किसी भी आदेश से असंतुष्ट कोई भी व्यक्ति सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर कर सकता है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

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