विविध
सूखा नियंत्रक परियोजना
- 23 May 2019
- 7 min read
चर्चा में क्यों?
हाल ही में आई एक रिपोर्ट के अनुसार, पिछले कुछ वर्षों से देश के कई राज्यों में महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (Mahatma Gandhi National Rural Employment Guarantee scheme-MGNREG) के अंतर्गत संचालित जल संचयन और सूक्ष्म सिंचाई से संबंधित बहुत सी सूखा-नियंत्रक परियोजनाएँ (Anti-Drought Projects) या तो अधूरी हैं या उनका निर्माण कार्य रुक गया हैं।
प्रमुख बिंदु
- हाल ही में भारत मौसम विज्ञान विभाग (India Meteorological Department) ने मार्च और मई के बीच होने वाली मानसून-पूर्व वर्षा में 22% की कमी की भविष्यवाणी की थी। यह दर्शाता है कि मध्य, पूर्व और प्रायद्वीपीय भारत के कई जिलों में अत्यधिक शुष्क परिस्थितियाँ विद्यमान हैं जिस कारण से इस रिपोर्ट का महत्त्व और अधिक बढ़ जाता है। इतना ही नहीं जून-सितंबर के बीच दक्षिण-पश्चिम मानसून पर भी एक अल नीनो का प्रभाव दिखने की आशंका जताई गई है।
अल-नीनो (EL-Nino) और भारतीय मानसून
- अल-नीनो एक जटिल मौसम तंत्र है, जो हर पाँच या दस साल बाद प्रकट होता रहता है। इस कारण संसार के विभिन्न भागों में सूखा, बाढ़ और मौसम में तेज़ी से परिवर्तन होते हैं।
- इस तंत्र में महासागरीय और वायुमंडलीय परिघटनाएँ शामिल होती हैं। पूर्वी प्रशांत महासागर में, यह पेरू के तट के निकट उष्ण समुद्री धारा के रूप में प्रकट होता है। इससे भारत सहित अनेक स्थानों का मौसम प्रभावित होता है।
- अल-नीनो भूमध्यरेखीय उष्ण समुद्री धारा का विस्तार मात्र है, जो अस्थाई रूप से ठंडी पेरुवियन/हम्बोल्ट धारा पर प्रतिस्थापित हो जाती है। यह धारा पेरू तट के जल का तापमान 10डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा देती है। इसके निम्नलिखित परिणाम होते हैं।
a. भूमध्यरेखीय वायुमंडलीय परिसंचरण में विकृति;
b. समुद्री जल के वाष्पन में अनियमितता;
c. प्लवक की मात्रा में कमी, जिससे समुद्र में मछलियों की संख्या का घट जाना।
- अल-नीनो का शाब्दिक अर्थ ‘बालक ईसा’ है क्योंकि यह धारा दिसंबर के महीने में क्रिसमस के आसपास नज़र आती है। पेरू (दक्षिणी गोलार्द्ध ) में दिसंबर गर्मी का महीना होता है।
भारत में मानसून की लम्बी अवधि के पूर्वानुमान के लिये अल-नीनो का उपयोग होता है।
- पूरे देश में संचालित लगभग 7,90,000 सूखा-नियंत्रक कार्य जिनकी परियोजना लागत 417 करोड़ रूपए के आसपास है या तो अधूरे पड़े हैं या फिर उनका कार्य अवरुद्ध हैं। ग्रामीण विकास मंत्रालय के आँकड़ों के अनुसार, अभी तक कुल 27000 कार्य ही पूर्ण हो पाए हैं। यह मंत्रालय मनरेगा के कार्यान्वयन की निगरानी भी करता है।
- कुछ ऐसे ही हालात अन्य सूखाग्रसित राज्यों में भी देखने को मिलते है। उदाहरण के लिये कर्नाटक में केवल सूखा-ग्रस्त योजना के अंतर्गत केवल 371 कार्य ही पूर्ण हो पाए है जबकि 19,965 कार्य अभी भी अपूर्ण है। महाराष्ट्र में 20 मई 2019 तक केवल 2038 कार्य ही पूर्ण हो पाए हैं जबकि 79,788 कार्य अभी भी अधूरे हैं।
- इस संदर्भ में सरकार का पक्ष यह है कि यह तय कर पाना बेहद कठिन है कि कितने (निश्चित समय) समय में किसी कार्य को पूरा किया जा सकता है, सभी कार्य प्रगति पर हैं और क्योंकि हर राज्य की भौगोलिक, राजनीतिक, और प्रशासनिक स्थितियाँ भिन्न होती है, ऐसे में समय-सीमा का निर्धारण करना कठिन है।
- ये आँकड़ें दर्शाते हैं कि मौसम विज्ञानियों द्वारा व्यक्त गंभीर पूर्वानुमानों के बावजूद जल संरक्षण, पारंपरिक जल निकायों के जीर्णोद्धार, वृक्षारोपण और सूक्ष्म सिंचाई कार्यों सहित सूखा नियंत्रक उपायों पर बहुत कम ध्यान दिया जा रहा है।उदाहरण के लिये महाराष्ट्र के विदर्भ प्रांत में सूखा-नियंत्रक उपायों के स्थान पर निजी-भूमि पर कार्य करने पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है एवं अमरावती में केवल 89 सामुदायिक सूखा नियंत्रण कार्यों को पूरा किया गया है, जबकि 5875 कार्य या तो अपूर्ण है या तो निरस्त हो चुके हैं।
इसके विपरीत यहाँ व्यक्तिगत भूमि पर न्यूनतम 2,117 कार्य पूरे हो गए हैं और 17, 983 अपूर्ण हैं।
निष्कर्ष
पिछले कुछ वर्षों में सामुदायिक भूमि पर बड़े स्तर पर बहुत कम काम हुए हैं। इसकी तुलना में व्यक्तिगत या निजी भूमि पर बहुत अधिक आधारिट संरचना विकास कार्य हुए हैं। मनरेगा जैसी रोज़गार गारंटी योजनाओं के लिये वित्त के अपर्याप्त आवंटन तथा इन योजनाओं के तहत दी जाने वाली कम मज़दूरी को सामुदायिक स्तर के कार्यों पर अधिक ध्यान नहीं दिये जाने और कई परियोजनाओं के पूरा न होने के कारणों में शामिल किया जा सकता है। स्पष्ट रूप से इस सम्बन्ध में अधिक ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है ताकि देश की आर्थिक संवृद्धि को बढ़ावा देने के साथ-साथ बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति को भी सुनिश्चित किया जा सकें।