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प्रतिकूल कब्ज़ा

  • 07 Jun 2023
  • 8 min read

प्रिलिम्स के लिये:

भारतीय विधि आयोग, प्रतिकूल कब्ज़ा, परिसीमन अधिनियम, 1963, सर्वोच्च न्यायालय, हम्मूराबी संहिता

मेन्स के लिये:

परिसीमन अधिनियम, 1963 के प्रमुख प्रावधान, ऐतिहासिक विकास और प्रतिकूल कब्ज़े का कानूनी ढाँचा

चर्चा में क्यों?

22वें विधि आयोग की हालिया रिपोर्ट में प्रतिकूल कब्ज़े और संपत्ति कानून में इसके प्रभाव की गहन जाँच की गई है तथा सिफारिश की गई है कि परिसीमन अधिनियम, 1963 के तहत मौजूदा प्रावधानों में बदलाव करने की आवश्यकता नहीं है।

  • प्रतिकूल कब्ज़े की अवधारणा इस विचार से उत्पन्न होती है कि भूमि को खाली नहीं छोड़ा जाना चाहिये बल्कि इसका विवेकपूर्ण उपयोग किया जाना चाहिये।

प्रतिकूल कब्ज़ा:

  • परिचय:  
    • प्रतिकूल कब्ज़ा शत्रुतापूर्ण, निरंतर, निर्बाध और शांतिपूर्ण कब्ज़े के माध्यम से संपत्ति के अधिग्रहण को संदर्भित करता है।
    • इस अवधारणा का उद्देश्य भूमि के स्वामित्व को लेकर लंबे समय से चली आ रही शंकाओं को रोकना है और किसी भू-मालिक द्वारा छोड़ी गई बेकार भूमि का उपयोग करने की अनुमति देकर समाज को लाभान्वित करना है।
      • यह उन व्यक्तियों को भी सुरक्षा प्रदान करता है जिन्होंने कब्ज़ा करने वाले को संपत्ति का वास्तविक स्वामी माना है।
  • ऐतिहासिक विकास और कानूनी ढाँचा: 
    • ऐतिहासिक आधार: "प्रतिकूल कब्ज़ा पद” (Title by Adverse Possession) की अवधारणा 2000 ईसा पूर्व में हम्मूराबी संहिता से चली आ रही है।
      • संपत्ति परिसीमन अधिनियम, 1874 इंग्लैंड में सीमाओं के कानून के रूप में इसके विकास में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ था।
    • भारत का परिचय: सीमा कानून भारत में 1859 के अधिनियम XIV के माध्यम से पेश किया गया था और वर्ष 1963 में सीमा अधिनियम के अधिनियमन के साथ महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए।
  • सीमा अधिनियम, 1963 के प्रमुख प्रावधान:
    • बर्डन ऑफ प्रूफ: 1963 के अधिनियम ने प्रतिकूल कब्ज़े के बर्डन ऑफ प्रूफ को दावेदार पर स्थानांतरित कर दिया, जिससे वास्तविक मालिक की स्थिति मज़बूत हो गई। 
    • स्वामित्व का अधिग्रहण: लिमिटेशन एक्ट, 1963 के तहत कोई भी व्यक्ति जिसके पास 12 वर्ष से अधिक समय से निजी ज़मीन या 30 वर्ष से अधिक समय से सरकारी ज़मीन है, वह उस संपत्ति का मालिक बन सकता है।
      • प्रतिकूल कब्ज़े का दावा करने हेतु कब्ज़े को आवश्यक वैधानिक अवधि के लिये खुला, निरंतर और वास्तविक मालिक के अधिकारों के प्रतिकूल होना चाहिये।
  • प्रतिकूल कब्ज़े की मुख्य सामग्री:
    • सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2004 के कर्नाटक बोर्ड ऑफ वक्फ बनाम भारत सरकार के मामले में प्रतिकूल कब्ज़े को साबित करने के लिये आवश्यक तत्त्वों को रेखांकित किया।
      • दावेदारों को कब्ज़े की तारीख, कब्ज़े की प्रकृति, वास्तविक मालिक द्वारा कब्ज़े के बारे में जागरूकता, कब्ज़े की निरंतरता और यह कि कब्ज़ा पारदर्शी या खुला तथा अबाधित था, स्थापित करना चाहिये।
      • वर्ष 1981 में क्षितिज चंद्र बोस बनाम रांची के आयुक्त के फैसले में शीर्ष अदालत ने खुलेपन और निरंतरता की आवश्यकताओं को रेखांकित किया।
  • आलोचना और सिफारिशें: 
    • वर्तमान कानून की आलोचना: हेमाजी वाघाजी जाट बनाम भीखाभाई खेंगरभाई हरिजन और अन्य के वर्ष 2008 के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिकूल कब्ज़े की आलोचना करते हुए कहा कि यह वास्तविक मालिक पर अनुचित रूप से कठोर है और बेईमान अपराधियों को लाभ पहुँचाता है।
      • न्यायालय ने प्रतिकूल कब्ज़े पर एक नए दृष्टिकोण की आवश्यकता को जानते हुए सरकार से कानून पर पुनर्विचार और इसमें संशोधन करने का आग्रह किया।
    • विधि आयोग का संदर्भ: न्यायालय की सिफारिश के जवाब में कानून तथा न्याय मंत्रालय ने वर्ष 2008 में इस मामले को जाँच और बाद की रिपोर्ट के लिये विधि आयोग को भेज दिया था। 

प्रतिकूल कब्ज़े के विरुद्ध तर्क:  

  • झूठे दावों को बढ़ावा देता है: प्रतिकूल कब्ज़ा झूठे दावों को बढ़ावा देता है और न्यायिक प्रणाली पर परिहार्य मुकदमेबाज़ी का बोझ डालता है।
  • सहमति का अभाव: प्रतिकूल कब्ज़ा किसी को वास्तविक मालिक की सहमति या जानकारी के बिना संपत्ति अर्जित करने की अनुमति देता है।
    • इसे अनुचित और अनैतिक माना जाता है क्योंकि यह मालिक के अधिकारों की अवहेलना करता है तथा उन्हें अपनी संपत्ति के बारे में निर्णय लेने के अवसर से वंचित करता है।
  • असमान परिणाम: प्रतिकूल कब्ज़े के अन्यायपूर्ण परिणाम हो सकते हैं, विशेषकर जब वास्तविक मालिक प्रतिकूल कब्ज़े के मालिक से अनजान हो। 
    • वास्तविक मालिक को अचानक पता चल सकता है कि उनकी संपत्ति किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा ले ली गई जिसका उस पर कोई अधिकार नहीं था। इसके परिणामस्वरूप संपत्ति का नुकसान और सामान्यतः भावनात्मक संकट उत्पन्न होता है।

भारत का विधि आयोग: 

  • भारत का विधि आयोग एक गैर-सांविधिक निकाय है जिसे भारत सरकार द्वारा समय-समय पर कानूनी शोध करने के स्पष्ट जनादेश के साथ स्थापित किया जाता है।
    • यह विधि और न्याय मंत्रालय के सलाहकार निकाय के रूप में कार्य करता है।
    • स्वतंत्र भारत का पहला विधि आयोग वर्ष 1955 में तीन वर्ष के कार्यकाल के लिये स्थापित किया गया था।
  • भारत के विधि आयोग ने नागरिक कानून, आपराधिक कानून, संवैधानिक कानून, परिवार कानून, व्यक्तिगत कानून, पर्यावरण कानून, मानवाधिकार कानून आदि से लेकर विभिन्न विषयों पर अब तक 277 रिपोर्ट जारी की हैं।
  • यह आयोग वर्तमान में अपने 22वें कार्यकाल में है और इसके अध्यक्ष न्यायमूर्ति ऋतुराज अवस्थी (कर्नाटक उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश) हैं।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

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