नए ‘गैर-उत्पीड़न कानून’ की प्रासंगिकता | 03 Nov 2017

संदर्भ

  • हाल ही में डी.के. बासु निर्णय में ‘मानवीय गरिमा’ पर उत्पीड़न के नकारात्मक प्रभावों की व्याख्या करते हुए सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि उत्पीड़न आत्मा पर लगे उस घाव के समान है जो कि इतना दर्दनाक होता है कि उसे स्पर्श नहीं किया जा सकता। परन्तु यह भी सत्य है कि यह अमूर्त है जिसे ठीक करने का कोई तरीका नहीं है। दरअसल, पूर्व केन्द्रीय कानून मंत्री द्वारा दायर की गई याचिका की सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने उत्पीड़न का उल्लेख राज्यों द्वारा मानवीय पतन के लिये उपयोग किये जाने वाले एक उपकरण के तौर किया है। 

प्रमुख बिंदु

  • भारतीय विधि आयोग ने अपनी 273वीं रिपोर्ट में एक नए गैर-उत्पीड़न कानून ‘उत्पीड़न की रोकथाम’ विधेयक , 2017 का मसौदा पेश किया है, जिसमें उत्पीड़न की विस्तृत परिभाषा दी गई है। 
  • उत्पीड़न का अर्थ महज शारीरिक उत्पीड़न ही नहीं है बल्कि इसमें जानबूझकर या अनायास लगी चोट अथवा ऐसी चोट जो मानसिक व शारीरिक हो, पहुँचाने का प्रयास करना भी शामिल है।
  • इसके साथ ही आयोग ने यह सुझाव दिया है कि भारत को ‘उत्पीड़न के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र अभिसमय’ (UN Convention Against Torture) की पुष्टि कर देनी चाहिये। 
  • यह प्रस्तावित गैर-उत्पीड़न कानून राज्य के किसी अधिकारी अथवा एजेंट द्वारा नागरिकों को पहुँचाई जाने वाली चोट के लिये राज्य को ज़िम्मेदार मानता है। इसके अंतर्गत राज्य अपने अधिकारियों या एजेंटों द्वारा किये गए किसी ऐसे कृत्य के लिये उनके बचाव की मांग नहीं कर सकता।
  • सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश बी.एस.चौहान के नेतृत्व में आयोग द्वारा की गई सिफरिशों के तहत व्यक्तियों को यह अधिकार प्राप्त होगा कि वे उत्पीड़न को एक पृथक अपराध के रूप में मान्यता दिलवाने के लिये सरकार पर दबाव बना सकते हैं। दरअसल, अभी तक ‘भारतीय दंड संहिता’(Indian Penal Code) और ‘आपराधिक प्रक्रिया संहिता’(Code of Criminal Procedure) में उत्पीड़न हेतु कारागार यातना का कोई प्रावधान नहीं है।
  • यद्यपि भारत ने वर्ष 1997 में ही उत्पीड़न के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र अभिसमय पर हस्ताक्षर कर दिया था परन्तु इसने अभी तक इसकी पुष्टि नहीं की है। इस प्रकार उत्पीड़न के विरुद्ध अभी तक कोई कानून नहीं बनाया गया है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग सरकार से बारंबार यही निवेदन कर रहा है कि उत्पीड़न को एक पृथक अपराध के रूप में मान्यता दी जाए और एक पृथक कानून संहिता में इसके लिये दंड का भी प्रावधान हो।
  • आयोग ने सरकार से संयुक्त राष्ट्र अभिसमय की पुष्टि करने की भी सिफारिश की है, ताकि अपराधियों के प्रत्यर्पण के संदर्भ में देशों को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ता है, उनसे बचाव किया जा सके। 
  • मसौदे में उत्पीड़न के लिये जुर्माने से लेकर आजीवन कारावास जैसे दंड की सिफारिश की गई है। यदि पुलिस की हिरासत में रहते हुए व्यक्ति को चोट पहुँचती है तो यह माना जाता है वो चोट पुलिस द्वारा ही दी गई है अथवा उसे पुलिस द्वारा ही मारा गया है।
  • विधेयक में न्यायालाओं को पीड़ित की सामाजिक पृष्ठभूमि, चोट और मानसिक आघात को देखते हुए उसे उचित मुआवजा देने की भी सिफारिश की गई है।