भारत-चीन संबंधों में सुधार की ज़रूरत | 03 Feb 2018
सन्दर्भ
- भारत और चीन दोनों ने लगभग एक-साथ साम्राज्यवादी शासन से मुक्ति पाई।भारत ने जहाँ सच्चे अर्थों में लोकतंत्र के मूल्यों को खुद में समाहित किया, वहीं चीन में आज भी लोकतंत्र तो है लेकिन बस नाम का। भारत चीन सबंधों की इस गाथा में अनेक स्याह मोड़ आए 1962 के भारत-चीन युद्ध से लेकर हिंदी चीनी भाई-भाई से होते हुए भारत-चीन संबंध आज इस दौर में हैं कि चीन खुलेआम अज़हर मसूद जैसे आतंकियों के समर्थन में खड़ा दिख रहा है। कभी-कभी तो यह प्रतीत होता है कि जब तक चीन स्वयं किसी बड़ी आतंकी घटना का शिकार नहीं हो जाता तब तक वह आतंकवाद को कभी संवेदनशीलता से नहीं लेगा। हालाँकि ‘आतंकवाद और चीन’ एक अलग मसला है लेकिन वर्तमान समय में भारत चीन सबंधों में तल्खी दोनों के ही हित में नहीं है।
कड़वे होते भारत-चीन संबंधों की मुख्य वज़ह
- विदित हो कि भारत, पाकिस्तान स्थित जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अज़हर को संयुक्त राष्ट्र द्वारा आतंकवादी घोषित कराने के लिये मुहिम चला रहा है और चीन इसमें किसी न किसी तरह से बाधा पैदा कर रहा है। पिछले वर्ष दिसंबर में भी उसने भारत के प्रयासों पर एक बार फिर पानी फेर दिया। दिलचस्प है कि चीन को छोड़कर संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् की समिति में शामिल 15 देश भारत के साथ हैं, सिर्फ चीन ही एक ऐसा देश है जो मार्च, 2016 से अज़हर को आतंकवादी घोषित कराने की कोशिश को विफल करता आ रहा है।
- गौरतलब है कि हाल ही में भारत द्वारा किये गए लंबी दूरी की बैलेस्टिक मिसाइल अग्नि-5 के परीक्षण पर प्रतिक्रिया देते हुए चीन ने पाकिस्तान के मिसाइल कार्यक्रमों को मदद देने का संकेत दिया था। चीन के सरकारी मीडिया ग्लोबल टाइम्स ने अपने एक संपादकीय में लिखा कि यदि पश्चिमी देश भारत को एक परमाणु ताकत के रूप में स्वीकारते हैं और भारत तथा पाकिस्तान के बीच बढ़ती परमाणु होड़ के प्रति उदासीन रहते हैं तो चीन चुप नहीं बैठेगा। वह ज़रूरत पड़ने पर सभी परमाणु नियमों का कड़ाई से प्रयोग करेगा।
- चीन के 46 अरब डॉलर के निवेश से बन रहा चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर (सीपीईसी) भी भारत को परेशान कर रहा है, क्योंकि यह विवादित कश्मीर की भूमि से होकर गुजर रहा है, जिस पर भारत अपना दावा करता है। भारत सीपीईसी को चीन के घातक प्रयास के रूप में देखता है और भारत की संप्रभुता और क्षेत्रीयता का उल्लंघन मानता है।
चीन सुर में बदलाव
- हाल ही में भारत के साथ करीबी संबंधों की बात करते हुए चीन ने ‘‘द्विपक्षीय मैत्री एवं सहयोग संधि के साथ” मुक्त व्यापार समझौते(एफटीए) का सुझाव दिया ताकि दोनों एशियाई देशों के बीच संबंधों को व्यापक प्रोत्साहन दिया जा सके। भारत में चीन के राजदूत लुओ झाओहुई ने ‘‘मैत्री एवं सहयोग संधि” और एफटीए प्रस्तावों पर विचार करने के दौरान कहा कि नई दिल्ली और बीजिंग के बीच कुछ मुद्दों पर मतभेद ‘परिवार के भीतर’ के मामलों जैसे हैं।
- चीनी राजदूत ने कहा है कि द्विपक्षीय संबंधों के माध्यम से दोनों देश दशकों से लंबित अपने सीमा विवाद का समाधान करें और भारत को चीन की ‘वन बेल्ट वन रोड’ की नीति के तहत चीन से हाथ मिलाना चाहिये। गौरतलब है कि चीन की ‘वन बेल्ट वन रोड’ की नीति का लक्ष्य दक्षिण एशिया में अत्याधुनिक आर्थिक और आधारभूत ढाँचा संजाल का निर्माण करना है। यह पहल चीन ने की है। चीन के राजदूत लुओ झाओहुई ने इस बात पर बल दिया है कि अगर नई दिल्ली इस महत्वाकांक्षी पहल में शामिल होता है तो भारत की ‘ऐक्ट ईस्ट’ नीति को नया प्रोत्साहन मिलेगा।
चीन के सुर में बदलाव के निहितार्थ
- हालाँकि यह स्पष्ट नहीं है कि चीनी राजदूत के माध्यम से कही गई इन बातों को चीनी सरकार का वैधानिक समर्थन प्राप्त है या नहीं? लेकिन कुछ वाजिब कयास लगाये जा रहे हैं, विशेषज्ञों का मानना है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने जिस तरह से चीन के ख़िलाफ कड़ा रुख अख्तियार किया है और पुतिन के प्रति नज़दीकी दिखा रहें है हो सकता है कि ‘चीन-रूस-पाकिस्तान’ त्रिकोण अब चीन को अधिक फायदेमंद नहीं दिख रहा हो।
- उल्लेखनीय है कि ट्रम्प ने चीनी उत्पादों पर अतिरिक्त शुल्क लगाने की भी बात कही है और दक्षिणी-चीन सागर में चीन द्वारा बनाये जा रहे कृत्रिम द्वीप को लेकर भी अमेरिका का रुख अब पहले से कहीं ज़्यादा कड़ा हो गया है। हो सकता है कि इन परिस्थितियों में चीन भारत से नजदीकी बढ़ाना चाहता हो।
- जहाँ तक मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) का सवाल है, यह भारत के लिये फायदेमंद तो हो सकता है लेकिन कुछ शर्तों के साथ। उल्लेखनीय है कि भारत और चीन के बीच एफटीए होने पर भारत को नुकसान हो सकता है और इसका कारण है विनिर्माण क्षेत्र के साथ-साथ शुल्क दरों के मामले में चीन की बेहतर स्थिति। विदित हो कि भारत में शुल्क दर के ज़्यादा होने के कारण एफटीए से दोनों देशों के बीच व्याप्त मौजूदा व्यापार असंतुलन और बढ़ेगा। अतः भारत को चीन के साथ एफटीए बहाल करते हुए इन बातों का ध्यान रखना होगा।
- चीन की ‘वन बेल्ट वन रोड’ के अंतर्गत निर्मित हो रहे चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर (सीपीईसी) को लेकर भारत की सम्प्रभुता संबंधी चिंताएँ वाजिब हैं लेकिन यह एक महत्त्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या ‘वन बेल्ट वन रोड’ किसी भी रूप में भारत के लिये लाभदायक है?
- गौरतलब है कि दक्षिण एशिया में भू-परिवहन की स्थिति अत्यंत ही दयनीय है। तिब्बत और भारत के बीच कनेक्टिविटी के विकास में ‘वन बेल्ट वन रोड’ की अहम् भूमिका हो सकती है। विदित हो की 20वीं सदी तक नाथू ला के माध्यम से ल्हासा और कोलकाता को जोड़ने वाला पुराना मार्ग वस्तु एवं सेवाओं के व्यापार का एक मुख्य ज़रिया हुआ करता था। भारत के माध्यम से तिब्बत को बाहरी दुनिया से जोड़ने वाले इस मार्ग का ‘वन बेल्ट वन रोड’ के तहत पुनरोद्धार भारत के लिये अत्यंत ही सामरिक और व्यापारिक महत्त्व वाला है।
निष्कर्ष
- इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारत-चीन संबंधों में सुधार दोनों ही देशों के हित में हैं लेकिन क्या यह सुधार भारत को अपनी सम्प्रभुता और सुरक्षा की कीमत चूकाकर करनी चाहिये! यह भी एक बड़ा सवाल है। मई 2014 के भारत में नेतृत्व परिवर्तन के साथ ही भारत ने चीन की तरफ गर्मजोशी से हाथ बढ़ाया था, लेकिन उसका कोई सार्थक नतीजा सामने नहीं आया। उसके बाद भारत ने चीन को उसी की भाषा में जवाब देने का फैसला किया है। इसके लिये नई दिल्ली ने समान सोच वाले देशों जैसे अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और वियतनाम से संबंधों को प्रगाढ़ किया है।
- भारत ने चीन के साथ लगने वाली समस्याग्रस्त सीमाओं पर अपनी सामरिक क्षमता में वृद्धि किया है। इससे भी दिलचस्प बात यह है कि भारत सरकार ने अपनी तिब्बत नीति में आमूलचूल परिवर्तन के संकेत दिये हैं। भारत अब चीन के साथ द्विपक्षीय संबंधों में तिब्बत मुद्दे को लाने की तैयारी में है। 1959 से ही निर्वासित जीवन बिता रहे तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा का भारत इस वर्ष मार्च में बिहार के राजगीर में बौद्ध धर्म पर होने वाले एक अन्तराष्ट्रीय सम्मेलन में खुलकर स्वागत करने की तैयारी कर रहा है। हाल ही में राष्ट्रपति भवन में एक सम्मेलन के दौरान दशकों बाद दलाई लामा भारत के किसी राष्ट्रपति के साथ देखे गए हैं।
- चीन पाकिस्तान के साथ मिलकर ग्वादर बन्दगाह का विकास कर रहा और दक्षिण एशिया में अपना प्रभुत्व बढ़ाना चाहता है, वहीं भारत सरकार ने चाबहर बंदरगाह को विकसित करने की तरफ कदम बढ़ाकर चीन के इस कदम का मुँहतोड़ जवाब दिया है। यह निहायत ही सत्य है कि 21 वीं सदी में युद्ध अब सेनाओं द्वारा लड़ा जाने वाला नहीं है बल्कि यह आर्थिक नीतियों का युद्ध है, कुटनीतिक क़दमों का युद्ध है। भारत-चीन व्यापार उल्लेखनीय 70 बिलियन डॉलर सलाना के स्तर पर है और इस आँकड़े को नई ऊँचाईयों पर पहुँचाने के प्रयास होते रहने चाहिये। आर्थिक मोर्चे पर दोनों देशों को सकारात्मक रुख अपनाना चाहिये और शायद भारत और चीन दोनों को इस बात का एहसास है, तभी तो चीन भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक सहयोगी देश है।
- अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प के सत्ता में आने से दक्षिण एशिया की भू-राजनीति में दिलचस्प बदलाव देखने को मिल रहा है। भारत की अमेरिका से बढ़ती नजदीकियों के मद्देनज़र रूस ने चीन की तरफ हाथ बढ़ाया था जिसका प्रभाव हमें चीन-रूस-पाकिस्तान के गठजोड़ के तौर पर देखने को मिला। अब जब ट्रम्प रूस के तो नजदीक जाना चाह रहे हैं लेकिन चीन से दूर भाग रहें हैं तो शायद यह समीकरण भारत के लिये हितकारी हो बशर्ते भारत फूँक- फूँक कर कदम बढ़ाए।