व्यभिचार अब अपराध नहीं : सर्वोच्च न्यायालय | 28 Sep 2018
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने व्यभिचार को अपराध का दर्जा देने वाली 158 साल पुरानी भारतीय दंड संहिता की धारा 497 को असंवैधानिक बताते हुए इसे रद्द कर दिया। इसके साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने 1985 के उस फैसले को भी खारिज कर दिया जिसने इस धारा को बरकरार रखा था।
सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अनुसार
- भारतीय दंड संहिता की धारा 497 महिला की गरिमा के अधिकार का उल्लंघन करती है। अतः यह संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है।
- धारा 497 स्पष्ट रूप से मनमानी है क्योंकि स्त्री पर पुरुष की कानूनी संप्रभुता गलत है। अतः पत्नी पति की संपत्ति नहीं है।
- व्यभिचार अपराध की अवधारणा में फिट नहीं है। यदि इसे अपराध के रूप में माना जाता है, तो वैवाहिक क्षेत्र की अत्यधिक निजता में अत्यधिक घुसपैठ होगी।
- धारा 497, अनुच्छेद 14 और 15 (समानता का अधिकार) का उल्लंघन करता है क्योंकि यह लिंग के आधार पर भेदभाव करता है और इसके तहत केवल पुरुषों को दंडित किया जाता है।
- व्यभिचार को अपराध मानना एक ‘पुरातन विचार’ है जिसमें पुरुष को अपराधी और महिला को पीड़ित माना जाता है लेकिन वर्तमान परिदृश्य में ऐसा नहीं है।
- धारा 497 संस्थागत भेदभाव और विसंगतियों एवं असंगतताओं से भरा हुआ था।
- धारा 497 उस सिद्धांत पर आधारित है जिसके अनुसार, एक महिला विवाह के साथ अपनी पहचान और कानूनी अधिकार खो देती है। ये उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है। यह सिद्धांत संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं है। व्यभिचार अनैतिक हो सकता है लेकिन गैरकानूनी नहीं।
भारतीय दंड संहिता की धारा 497
- धारा 497 के अनुसार, यदि कोई पुरुष यह जानते हुए भी कि महिला किसी अन्य व्यक्ति की पत्नी है और उस व्यक्ति की सहमति या मिलीभगत के बगैर ही महिला के साथ यौनाचार करता है तो वह परस्त्रीगमन (व्यभिचार) के अपराध का दोषी होगा।
- परस्त्रीगमन के इस अपराध के लिये पुरुष को पाँच साल की कैद या ज़ुर्माना अथवा दोनों सज़ा हो सकती है।
- ऐसे मामले में पत्नी दुष्प्रेरक के रूप में दंडित नहीं होगी।
- इसके अलावा, अगर पति किसी अविवाहित, तलाकशुदा या विधवा महिला के साथ संबंध बनाता है, तो उसे व्यभिचार का अपराधी नहीं माना जाता है।
ब्रिटिश काल के कानून ने महिलाओं को छूट क्यों दी?
- लॉर्ड मैकॉले के अधीन 1837 के प्रथम विधि आयोग के मूल IPC व्यभिचार को अपराध के रूप में शामिल नहीं किया गया था, जिसमें इसे केवल एक गलती माना गया था।
- 1860 में सर जॉन रोमिली की अध्यक्षता में द्वितीय विधि आयोग ने व्यभिचार को अपराध तो माना लेकिन एक ऐसे समाज (जहाँ बाल-विवाह, पति-पत्नी की उम्र में बड़ा फासला हो और जहाँ एक से अधिक विवाह करने पर कोई रोक न हो) में महिलाओं को व्यभिचार के लिये सजा से देने से बचाया।
- IPC का मसौदा तैयार करने वालों ने इस फैसले को महिलाओं के प्रति सहानुभूति के रूप में देखा और पुरुषों को असली अपराधी माना।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद धारा 497 की स्थिति
- 1954 के ‘युसूफ अब्दुल अज़ीज बनाम बॉम्बे राज्य’ मामले संविधान पीठ ने धारा 497 को संविधान के अनुच्छेद 15 (3) के तहत महिलाओं के पक्ष में किये गए विशेष प्रावधान के रूप में माना क्योंकि संविधान का अनुच्छेद 15(3) विधायिका को महिलाओं और बच्चों के कल्याण के लिये विशेष प्रावधान करने की छूट देता है।
- 1985 के सौमित्र विष्णु मामले में तीन जजों की पीठ ने 1954 के निर्णय को आधार बनाया तथा इस प्रावधान को असंवैधानिक करार देने की मांग को केवल एक ‘भावनात्मक अपील’ कहकर खारिज़ कर दिया और कहा कि दूसरे की पत्नी से संबंध बनाने वाला व्यक्ति भारतीय समाज के लिये ज़्यादा बड़ी बुराई है।
- 1988 के वी.रेवती बनाम भारत संघ मामले में दो जजों की बेंच ने इस कानून में लैंगिक भेदभाव की बात को खारिज़ किया और कहा कि इस कानून में पुरुष ही व्यभिचार का दोषी हो सकता है। तब सर्वोच्च न्यायलय ने कहा था कि किसी वैवाहिक रिश्ते को तोड़ना घर तोड़ने जैसे अपराध से कम गंभीर नहीं है और धारा 497 को समाप्त करने से यह कहते हुए इंकार कर दिया कि यह नीति का सवाल है न कि संवैधानिकता का।
वैश्विक परिदृश्य में व्यभिचार
- वर्तमान में कई यूरोपीय राष्ट्र ऐसे हैं जहाँ व्यभिचार को अपराध नहीं माना जाता है। संयुक्त राज्य अमेरिका में केवल 10 राज्य ऐसे हैं जिन्होंने व्यभिचार से जुड़े विभिन्न आपराधिक कानूनों को बरकरार रखा है।
- कुछ राज्यों में केवल ‘खुले और कुख्यात’ व्यभिचार पर प्रतिबंधित लगाए हैं तो कुछ में ‘आदतन’ व्यभिचार को प्रतिबंधित किया गया है जिसके लिये जुर्माना (10 डॉलर से 1000 डॉलर तक) एवं तीन साल तक कारावास का प्रावधान है।
- सऊदी अरब, यमन और पाकिस्तान जैसे देशों में व्यभिचार को अभी भी गंभीर अपराध के रूप में माना जाता है।
निष्कर्ष
- सामाजिक प्रगति के साथ लोगों को नए अधिकार भी मिलते हैं और नए विचारों की पीढ़ी भी जन्म लेती है। व्यभिचार के मामलों में केवल पुरुष को दोषी बनाना भेदभावपूर्ण था, जबकि विवाहेत्तर संबंधों में पुरुष व महिला दोनों की समान भागीदारी होती है। अतः इस पुराने कानून को समाप्त किया जाना वर्तमान परिस्थितियों के अनुरूप है।