भारतीय अर्थव्यवस्था
खेती में बढ़ता आधुनिक मशीनों का इस्तेमाल
- 10 Mar 2018
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संदर्भ
देश की बढ़ती हुई आबादी की खाद्य आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये सघन खेती बहुत महत्त्वपूर्ण होती जा रही है। इस विधि की सहायता से एक ही खेत में एक वर्ष में एक से अधिक फसलें उगाई जा सकती हैं। इसके लिये उन्नत बीज, रासायनिक खाद, कीटनाशक दवा तथा पानी की समुचित व्यवस्था के साथ-साथ समय पर कृषि कार्यों को संपन्न करने के लिये आधुनिक कृषि यंत्रों का प्रयोग ज़रुरी है।
भारत में कृषि में जोखिम की स्थिति
- भारत में कृषि एक जोखिम का व्यवसाय है। कृषि में जोखिम के मुद्दे फसल उत्पादन, मौसम की अनिश्चितता, फसल की कीमत, ऋण और नीतिगत फैसलों से जुड़े हुए हैं।
- कृषि क्षेत्र में कीमतों में जोखिम के मुख्य कारण हैं - पारिश्रमिक लागत से भी कम आय, बाज़ार की अनुपस्थिति और बिचौलियों द्वारा अत्यधिक मुनाफा कमाना।
- बाज़ारों की अकुशलता और किसानों के उत्पादों की विनाशी प्रकृति, उत्पादन को बनाए रखने में उनकी असमर्थता, अधिशेष या कमी के परिदृश्यों में बचाव या घाटे के खिलाफ बीमा में बहुत कम लचीलेपन के कारण कीमतों में जोखिम आदि बहुत गंभीर कारण हैं।
- नीतिगत फैसलों और विनियमों से संबंधित जोखिमों को दूर करने के लिये सर्वे में कहा गया है कि व्यापार नीति और व्यापारियों पर स्टॉक की सीमा की घोषणा फसल लगाने से पहले घोषित की जानी चाहिये तथा इसे किसानों द्वारा कटी हुई फसल के बेचे जाने तक रहने दिया जाना चाहिये।
समस्याएँ एवं समाधान
- वस्तुत: कम लागत में भी अधिक उत्पादन हासिल करने हेतु किसानों द्वारा उन्नत तकनीकी संसाधनों का इस्तेमाल किया जाना चाहिये।
- जहाँ एक ओर इससे किसानों की आय में वृद्धि की राह सुनिश्चित होगी वहीं, दूसरी ओर घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों में विद्यमान प्रतिस्पर्द्धा का सामना करने का साहस भी प्राप्त होगा।
- इसके अतिरिक्त कृषि में इस्तेमाल होने वाले उपकरणों और मशीनों को पहले की उपेक्षा और अधिक कारगर एवं कुशल बनाने के लिये अनुसंधान एवं विकास के क्षेत्र में भी कार्य किये जाने की आवश्यकता है। परंतु, समस्या यह है कि भारतीय कृषि के संदर्भ में अभी तक ऐसा कोई विशेष कार्य नहीं किया गया है।
- अधिकांश कृषि उपकरणों का निर्माण छोटे एवं कुटीर स्तर पर बनी इकाइयों द्वारा किया जाता है जो न तो तय मानकों का पालन करने पर ध्यान देती हैं और न ही अच्छी गुणवत्ता वाली सामग्री का इस्तेमाल करने पर।
- इसके कारण खराब डिज़ाइन और कमतर गुणवत्ता वाले कृषि उपकरण तैयार होते हैं। स्पष्ट रूप से ऐसी उपकरण बहुत जल्द खराब होने के साथ-साथ मनचाही सटीकता से कृषि कार्यों को संपादित करने में भी विफल साबित होते हैं।
- इतना ही नहीं पानी के पंप, जुताई में प्रयुक्त होने वाले उपकरण, हल, बीज डालने वाली मशीन, कीटनाशकों का छिड़काव करने वाली मशीनों जैसे जटिल उपकरणों के निर्माण में ढिलाई बरती जाती है।
- यदि इन उपकरणों का निर्माण करने वाली बड़ी औद्योगिक इकाइयों की बात की जाए तो ज्ञात होता है कि इनके द्वारा बेहतर गुणवत्ता और अधिक क्षमता वाले कृषि उपकरणों का निर्माण किया जाता है लेकिन समस्या यह है कि बड़ी इकाइयों में निर्मित इन उपकरणों की कीमत छोटे स्तर पर बने उपकरणों की तुलना में काफी अधिक होती है। जिन्हें खरीद पाना किसान के लिये आसान नहीं होता है।
- यदि असंगठित क्षेत्र के संदर्भ में बात की जाए तो हम पाते हैं कि कृषि उपकरणों में गुणवत्ता को लेकर अभी उतनी जागरूकता नहीं है जितनी की संगठित क्षेत्र में है.
- संभवतः इसकी एक वजह यह है कि कृषि उपकरणों के संबंध में सरकारी सब्सिडी प्राप्त करने के लिये गुणवत्ता वाले उत्पादों की खरीद कोई अनिवार्य घटक नहीं है।
अन्य पक्ष
- कृषि के प्रत्येक क्षेत्र में गुणवत्ता युक्त उपकरणों की अपनी अहमियत होती है लेकिन भारत जैसी मानसून आधारित कृषि में इसका महत्त्व और भी बढ़ जाता है।
- इस संदर्भ में राष्ट्रीय कृषि विज्ञान अकादमी की ओर से प्रकाशित एक नीतिगत पत्र में निहित किया गया है कि बेहतर एवं उन्नत कृषि उपकरणों के इस्तेमाल से 20 से 30 फीसदी समय और श्रम की बचत की जा सकती है।
- इतना ही नहीं इससे उपज में भी लगभग 10 से 15 फीसदी की वृद्धि होने की संभावना बढ़ जाती है।
- आधुनिक उन्नत मशीनों के प्रयोग से फसलों की आवृत्ति में भी 5 से 10 फीसदी तक की वृद्धि की जा सकती है। इसके अतिरिक्त उर्वरकों. बीजों और रसायनों पर होने वाले खर्च में भी तकरीबन 15 से 20 फीसदी तक की कमी लाई जा सकती है।
एकीकृत खेती से अधिकतम लाभ
- जैसा कि हम सभी जानते हैं कि वर्तमान समय में फसलों के ज़रिये मुनाफा कमाना बेहद मुश्किल हो गया है। ऐसी स्थिति में यदि खेती के साथ-साथ इससे संबद्ध अन्य गतिविधियों को भी इसमें शामिल किया जाए तो खेती को आर्थिक रूप से व्यावहारिक बनाया जा सकता है. इतना ही नहीं इस क्षेत्र में संलग्न किसानों की शुद्ध आय में भी उल्लेखनीय वृद्धि की जा सकती है।
- यदि इस कार्य को अमली जमा पहनाने के लिये एकीकृत खेती के मॉडल को अपनाया जाए, जिसमें जमीन के एक ही टुकड़े से खाद्यान्न, चारा, खाद और ईंधन भी पैदा किया जा सकता है, तो लाभ मिलने की संभावना काफी बढ़ जाती है।
- हालाँकि इस प्रकार के मॉडल के अंतर्गत शामिल किये जा सकने वाले कृषि उद्यमों का चयन बेहद सावधानीपूर्वक किया जाना चाहिये। इन कार्यों में पशुपालन, बागवानी, मशरूम उत्पादन, मधुमक्खी पालन, रेशम उत्पादन, मत्स्य पालन और कृषि-वानिकी आदि को शामिल किया जा सकता हैं।
- वर्तमान में हमारे देश में तकरीबन 80 फीसदी किसान नियमित तौर पर खेती के साथ मवेशी पालन भी करते हैं जिनमें गाय, भैंस, बकरियों और भेड़ों के साथ-साथ मुर्गिी पालन प्रमुख है।
- स्पष्ट रूप से मवेशी पालन में किसानों का कृषि से संबंधित जोखिम तो कम होता ही है साथ ही उनकी आय एवं पोषण स्तर में भी बढ़ोतरी होती है।
- तथापि मिश्रित खेती और एकीकृत खेती की अवधारणा काफी अलग है। दरअसल, मिश्रित खेती में विभिन्न सहयोगी गतिविधियों को इस तरह से समाहित किया जाता है कि वे संबंधित क्षेत्रों के लिये लाभदायक साबित हो सकें।
- जबकि, एकीकृत खेती प्रणाली के तहत एक अवयव के अपशिष्टों, अनुत्पादों और अनुपयोगी जैव ईंधन का इस तरह से पुनर्चक्रण किया जाता है कि वह दूसरे अवयव के लिये इनपुट का काम करता है। ऐसा करने पर लागत में भी कमी आती है और उत्पादकता के साथ-साथ लाभदायकता में भी उल्लेखनीय वृद्धि होती है।
- एक खेती प्रणाली में आवश्यकता के 70 फीसदी पोषक तत्त्व बहुत आसानी से अपशिष्ट पुनर्चक्रण और अन्य तरीकों से हासिल किये जा सकते हैं। उदाहरण के तौर पर, मवेशियों के मल-मूत्र से बनी देसी खाद से हमें नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटाश का एक-चौथाई हिस्सा प्राप्त होता है।
- एक और फायदा यह है कि रासायनिक उर्वरकों की बजाय देशी खाद का इस्तेमाल करने से मिटटी की उत्पादकता और गुणवत्ता में सुधार होता है, जिससे कृषि उत्पादकता में वृद्धि होती है जो किसान की आय में होने वाली वृद्धि का द्योतक है।
- यदि वैज्ञानिक तरीके से एकीकृत खेती प्रणाली को अपनाया जाए तो इससे किसान की आय में बढ़ोतरी होने के साथ-साथ कृषि अवशिष्टों का पुनर्चक्रण करके पर्यावरण की भी रक्षा की जा सकती है।
- एकीकृत खेती प्रणाली में अगर एक अवयव नाकाम भी होता है तो दूसरे अवयवों के कारगर होने से किसान अपनी आवश्यकताओं को पूरा कर सकता है।
- एकीकृत खेती प्रणाली के लिये खेत का आकार अधिक मायने नहीं रखता है। इस प्रकार की प्रणाली छोटे एवं सीमांत किसानों के लिये बहुत अधिक कारगर साबित होती है। दरअसल एकीकृत खेती का मूल यह है कि किसान की जमीन का अधिकतम इस्तेमाल किया जाए।
- कृषि कार्यों के साथ अगर मत्स्य पालन को भी इससे संबद्ध कर दिया जाए तो किसान की आय में उल्लेखनीय वृद्धि की जा सकती है। मछली उत्पादन में प्रयुक्त होने वाले तालाबों के तटबंधों का इस्तेमाल फलदार या जलावन वाले वृक्षों का रोपण करने के लिये किया जा सकता है।
- इतना ही नहीं इन तालाबों के पानी का इस्तेमाल खेतों में सिंचाई हेतु भी किया जा सकता है।
कृषि और पोषण
- विदित हो कि इस बात के पर्याप्त साक्ष्य मौजूद हैं कि भारत की कुल जनसंख्या का 1/6 भाग अल्पपोषित है| एक ओर, जहाँ तकरीबन 190 मिलियन लोग प्रतिदिन भूखे रहते हैं, वहीं दूसरी ओर, लगभग 3000 बच्चों की प्रतिदिन अधूरे पोषण के कारण उत्पन्न हुई बीमारियों के चलते मृत्यु हो जाती है, जबकि तकरीबन एक-तिहाई बच्चे औसत से कम वज़न वाले हैं|
- ध्यातव्य है कि देश के ग्रामीण क्षेत्रों में अल्पपोषण (जिसमें प्रोटीन तथा ऊर्जा कुपोषण शामिल हैं) की व्यापक समस्या है|
- ऐसे में, देश की सरकारी नीतियों में कैलोरी की उपयुक्त मात्रा नियंत्रित करने पर तो ध्यान दिया गया है परन्तु प्रोटीन की मात्रा पर कोई विशेष ध्यान नही दिया जाता है|
- प्रोटीन के उत्पादन में उपयुक्त वृद्धि होने पर भी पिछले बीस वर्षों में भारत के प्रोटीन के उपयोग में निरंतर कमी दर्ज की गयी है|
- उल्लेखनीय है कि भारत पोषण में असुरक्षा के जोखिम से जूझ रहा है| इतना ही नहीं भोजन में पोषण के स्तर के विषय में विभिन्न राज्यों की स्थितियाँ भी भिन्न-भिन्न पाई गई हैं|
समाधान हेतु सुझाव
- ध्यातव्य है कि कृषि नीतियाँ, खाद्य पदार्थों की उपलब्धता तथा मूल्य को भी प्रभावित करती हैं| हालाँकि, भारत के पास कुपोषण से लड़ने के लिये पर्याप्त संसाधन उपलब्ध हैं, तथापि विभिन्न विभागों के मध्य समन्वय के अभाव में भारत इन संसाधनों का उचित तरीके से उपयोग कर पाने में असमर्थ है|
- यद्यपि सरकार हमेशा से ही कुपोषण को प्राथमिकता देने का दावा करती रही है, किंतु योजनाओं एवं कार्यक्रमों का क्रियान्वयन विकेन्द्रित होने के कारण ऐसा नही हो पाया हैं| अतः स्पष्ट है कि पोषण को बढ़ावा देने की गति पूरे देश में एक समान नहीं है|
- हाल के वर्षों में भारत की कृषि तथा अनाज नीतियों ने अपना ध्यान दो अनाजों (विशेषकर धान तथा गेहूँ) पर ही केन्द्रित किया है| इन नीतियों द्वारा प्राय: पोषणीय अनाजों जैसे दालों तथा तिलहन की उपेक्षा ही की जाती रही है|
- यद्यपि देश में प्रोटीन स्रोतों (जीव तथा सब्जियों) का वृहत् स्तर पर उत्पादन किया जाता है, लेकिन फिर भी प्रोटीन की प्रति व्यक्ति उपलब्धता में अक्सर कमी ही देखी दर्ज की गई है|
निष्कर्ष
जैसा कि स्पष्ट है, वैश्विक मानकों की तुलना में भारत में इन अनाजों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता बहुत ही कम है| अत: इस जटिल समस्या के समाधान के लिये भारत सरकार को सर्वप्रथम कृषि, पोषण तथा स्वास्थ्य के मध्य के नज़दीकी संबंध को समझने की आवश्यकता है| चूँकि, कृषि भोजन का प्रमुख स्रोत है, अतः यह पोषण का भी प्रमुख स्रोत है| इतना ही नहीं, यह उस आय का भी स्रोत है जिससे देश को पोषणीय भोजन प्राप्त होता है| हालाँकि, इस दिशा में सरकारी पहलों के तहत किये गए प्रयासों के परिणामस्वरूप आने वाले समय में नीति समर्थन, शोध समर्थन तथा निवेश समर्थन के माध्यम से भारत में भोजन तथा पोषण सुरक्षा को उन्नत बनाने में सहयता प्राप्त होगी|