आरटीआई के दायरे में शीर्ष न्यायपालिका? | 13 Dec 2017
भूमिका
- गोपनीयता से अनिश्चितता को बढ़ावा मिलता है और यह अनिश्चितता भारत की न्यायिक प्रणाली को कमज़ोर बनाती है।
- गौरतलब है कि शीर्ष न्यायपालिका ने अब तक स्वयं को आरटीआई के दायरे से बाहर रखा है, जबकि आरटीआई अर्थात् सूचना के अधिकार ने भारत में लोकतंत्र को मज़बूत करने का काम किया है।
- पारदर्शी न्यायिक व्यवस्था भारतीय लोकतंत्र का एक मज़बूत स्तंभ है जिस पर कि देश के 130 करोड़ लोगों की उम्मीदों का भार टिका हुआ है।
- अब जब न्यायपालिका की भूमिका इतनी महत्त्वपूर्ण है तो क्यों न इसे आरटीआई के दायरे में लाकर और प्रभावी बनाया जाए?
इस लेख में हम इन्हीं प्रश्नों पर विचार करेंगे कि क्यों न्यायपालिका आरटीआई के अंतर्गत नहीं आती और इस संबंध में क्या किया जाना चाहिये।
क्या है आरटीआई अधिनियम?
- सूचना का अधिकार (right to information-RTI) अधिनियम, 2005 भारत सरकार का एक अधिनियम है, जिसे नागरिकों को सूचना का अधिकार उपलब्ध कराने के लिये लागू किया गया है।
- इस अधिनियम के प्रावधानों के तहत भारत का कोई भी नागरिक किसी भी सरकारी प्राधिकरण से सूचना प्राप्त करने का अनुरोध कर सकता है जो उसे 30 दिन के अंदर मिल जानी चाहिये।
- इस अधिनियम में यह भी कहा गया है कि सभी सार्वजानिक प्राधिकरण अपने दस्तावेज़ों का संरक्षण करते हुए उन्हें कंप्यूटर में सुरक्षित रखेंगे।
- यह अधिनियम जम्मू और कश्मीर (यहाँ जम्मू और कश्मीर सूचना का अधिकार अधिनियम प्रभावी है) को छोड़कर अन्य सभी राज्यों पर लागू होता है।
- इसके अंतर्गत सभी संवैधानिक निकाय, संसद अथवा राज्य विधानसभा के अधिनियमों द्वारा गठित संस्थान और निकाय शामिल हैं।
हाल ही में चर्चा में क्यों?
- हाल ही में दिल्ली हाईकोर्ट ने शीर्ष न्यायपालिका को आरटीआई के दायरे में लाने संबंधी एक मामले में अपना निर्णय दिया है।
- वर्ष 2010 में आर. के. मिश्रा नाम के एक स्कूल मास्टर ने ‘सुप्रीम कोर्ट रजिस्ट्री’ के समक्ष एक आरटीआई याचिका दायर कर यह पूछा था कि न्यायालय ने उनके द्वारा पूर्व में भेजे पत्रों के संदर्भ में क्या कार्रवाई की है?
- दरअसल, श्री मिश्रा ने पहले सुप्रीम कोर्ट के दो अलग-अलग जजों को पत्र लिखे थे, जिनमें उन्होंने एक मामले की दुबारा सुनवाई आरंभ करने का आग्रह किया था; जिसे कि वे पहले हार चुके थे।
- यह आरटीआई की मदद से न्यायिक लड़ाई लड़ने का एक प्रयास था और सुप्रीम कोर्ट रजिस्ट्री आसानी से यह कह सकता था कि उसके पास इस संबंध में कोई जानकरी नहीं है। लेकिन, रजिस्ट्री ने इस आरटीआई को ही खारिज़ कर दिया।
- अब इस संबंध में दिल्ली हाईकोर्ट ने क्या निर्णय दिया है कि सुप्रीम कोर्ट को आरटीआई के दायरे में नहीं लाया जा सकता है।
क्या है न्यायपालिका का पक्ष?
- जैसा कि हम जानते हैं आरटीआई अधिनियम के तहत मांगी गई जानकारियों के संबंध में यदि लोक सूचना अधिकारी या अपीलीय प्राधिकारी से निर्धारित समय सीमा के भीतर कोई जवाब नहीं मिलता है, तो आवेदक सीधे राज्य सूचना आयोगों (एसआईसी) या केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) से शिकायत कर सकता है।
- आर. के मिश्रा मामले में भी यही हुआ और मामले को केंद्रीय सूचना आयोग में ले जाया गया, जहाँ:
⇒ आयोग के समक्ष सुप्रीम कोर्ट रजिस्ट्री द्वारा सूचना देने में नहीं बल्कि आरटीआई के तहत सूचना प्रदान करने के संबंध में आपत्ति दर्ज़ कराई गई।
⇒ रजिस्ट्री द्वारा यह भी कहा गया कि सुप्रीम कोर्ट के नियमों में सूचनाओं के साझा किये जाने की व्यवस्था मौजूद और ये नियम आरटीआई के अनुरूप हैं।
⇒ शीर्ष न्यायपालिका द्वारा यह भी कहा गया कि आरटीआई के ऊपर सर्वोच्च न्यायालय के नियमों की प्राथमिकता को बहाल करना आवश्यक है।
केन्द्रीय सूचना आयोग का पक्ष
आरटीआई के दायरे में क्यों नहीं आना चाहती है न्यायपालिका?
- न्यायपालिका स्वयं को आरटीआई के दायरे में नहीं लाना चाहती, जबकि आरटीआई लागू करने में इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।
- दरअसल, वो इसलिये आरटीआई के दायरे में नहीं आना चाहती, क्योंकि उसे यह महसूस होता है कि यदि शीर्ष न्यायपलिका में आरटीआई की अनुमति दे दी गई तो न्यायिक नियुक्तियों के सन्दर्भ में सूचनाएँ मांगी जाएंगी।
- न्यायपालिका अभी भी कॉलेजियम व्यवस्था के तहत नियुक्तियाँ कर रही है और इसकी कार्यप्रणाली को लेकर हमेशा से एक गोपनीयता बनाकर रखी गई है।
- न्यायपालिका की स्वतंत्रता का हवाला देकर भी सुप्रीम कोर्ट आरटीआई को खारिज़ करता रहा है।
न्यायिक नियुक्तियाँ और आरटीआई
- वर्ष 2005 में पारित सूचना का अधिकार अधिनियम (आरटीआई) ने भारत में शासन की प्रकृति को बदल दिया। इससे प्रशासन में अभूतपूर्व पारदर्शिता तथा उत्तरदायित्व की भावना का संचार हुआ।
- हालाँकि, कुछ ऐसी भी संस्थाएँ हैं जहाँ आरटीआई लागू किये जाने को लेकर विवाद होते रहे हैं और ऐसी ही ऐसी एक संस्था है शीर्ष न्यायपालिका।
- वर्ष 2010 में केन्द्रीय सूचना आयोग ने निर्देश दिया था कि तीन जजों की नियुक्ति से संबंधित सभी प्रक्रियाओं एवं इस संबंध में सरकार तथा शीर्ष न्यायपालिका के मध्य हुए पत्राचार से संबंधित जानकरियाँ आरटीआई के तहत उपलब्ध कराई जाएँ।
- लेकिन सुप्रीम कोर्ट में इसके विपक्ष में दायर एक याचिका पर अगले 6 वर्षों तक कोई भी निर्णय नहीं लिया जा सका। तत्पपश्चात् वर्ष 2016 से इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ सुनवाई कर रही है।
क्यों न्यायपालिका को आरटीआई के अंतर्गत आना चाहिये?
- बिना प्रावधानों के आरटीआई से अलग रहने की कवायद :
⇒ गौरतलब है कि आरटीआई अधिनियम में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो न्यायपालिका को स्वयं के दायरे से बाहर रखने की अनुमति देता हो।
⇒ दरअसल, न्यायपालिका ने स्वयं ही खुद को आरटीआई से बाहर रखा हुआ है। - आरटीआई अधिनियम के अनुच्छेद 8(1)(J) के तर्कसंगत नहीं :
⇒ विदित हो आरटीआई अधिनियम का अनुच्छेद 8(1)(J) के अनुसार आरटीआई के तहत व्यक्तिगत जानकारियाँ नहीं मांगी जा सकती।
⇒ लेकिन, न्यायाधीशों का चयन, स्थानांतरण या उनके खिलाफ दर्ज़ शिकायतें व्यक्तिगत मामलों के अंतर्गत नहीं आते हैं। - आरटीआई अधिनियम की धारा 24 में कोई जिक्र नहीं :
⇒ आरटीआई अधिनियम की धारा 24 में इंटेलिजेंस ब्यूरो, रॉ, सीआरपीएफ, सीआईएसएफ आदि जैसे कुछ संस्थानों को इसके दायरे से बाहर रखा गया है।
⇒ लेकिन इनमें न्यायपालिका का कोई जिक्र नहीं है इसलिये न्यायपालिका को आरटीआई के दायरे में आना चाहिये।
निष्कर्ष
- आरटीआई ने यह मिसाल कायम की है कि पारदर्शिता सुनिश्चित कर संस्थाओं को कैसे मज़बूत बनाया जा सकता है।
- यहाँ तक कि पी. जे. थोमस मामले में स्वयं न्यायपालिका यह कह चुकी है कि देश में सभी संस्थाओं को पारदर्शिता बहाल करने पर विशेष ध्यान देना होगा।
- ऐसे में स्वयं न्यायपालिका का आरटीआई के दायरे में आने से इंकार करना एक विडंबना ही कही जाएगी।
- दरअसल, यह तभी संभव है जब न्यायिक नियुक्तियों के मुद्दे का समाधान हो। यदि राष्ट्रीय न्यायिक आयोग को मंज़ूरी मिलती है तो शायद न्यायपालिका के पास आरटीआई के विरोध करने की कोई वज़ह न हो।
- न्यायपालिका की स्वतंत्रता के नाम पर न्यायाधीशों के नियुक्ति से संबंधित मानदंड या हस्तांतरण की प्रक्रिया आदि के बारे में जानकारियाँ गोपनीय नहीं रखी जानी चाहिये।