शासन व्यवस्था
हर उम्र की महिलाओं के लिये खुले सबरीमाला मंदिर के दरवाज़े
- 29 Sep 2018
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चर्चा में क्यों?
सर्वोच्च न्यायालय ने केरल के सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के मुद्दे पर ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए हर उम्र की महिला को मंदिर में प्रवेश करने की अनुमति दे दी है। 4:1 के बहुमत से हुए फैसले में पाँच जजों की संविधान पीठ ने स्पष्ट किया है कि हर उम्र की महिलाएँ अब मंदिर में प्रवेश कर सकेंगी। इसके साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने केरल उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ द्वारा वर्ष 1991 में दिये गए उस फैसले को भी निरस्त कर दिया जिसमें कहा गया था कि सबरीमाला मंदिर में महिलाओं को प्रवेश करने से रोकना असंवैधानिक नहीं है।
सर्वोच्च न्यायालय का फैसला
- सबरीमाला मंदिर की सैंकडों साल पुरानी परंपरा जिसमें 10 से 50 साल की उम्र की महिलाओं के लिये मंदिर में प्रवेश करना वर्जित था, पूरी तरह से असंवैधानिक है।
- देश की संस्कृति में महिलाओं का स्थान आदरणीय है। जहाँ एक ओर देवी के रूप में महिलाओं को पूजा जाता है वहीँ दूसरी ओर उन्हें मंदिर में प्रवेश से रोका जा रहा है। धर्म के नाम पर इस तरह की पुरुषवादी सोच उचित नहीं है और उम्र के आधार पर महिलाओं को मंदिर में प्रवेश करने से रोकना धर्म का अभिन्न हिस्सा नहीं है।
- रजोनिवृत्ति जैसे जैविक और शारीरिक विशेषताओं के आधार पर महिलाओं को मंदिर में प्रवेश करने से रोकना असंवैधानिक है। यह महिलाओं के समानता के अधिकार और उनकी गरिमा का उल्लंघन है।
- मंदिर में महिलाओं का पूजा करने का अधिकार समानता का अधिकार है, अतः महिलाओं को मंदिर में प्रवेश करने का अधिकार देना मौलिक अधिकार है।
- सबरीमाला में महिलाओं को प्रवेश करने से रोकना महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रह मात्र था यह धर्म का एक अनिवार्य हिस्सा नहीं था।
- सर्वोच्च न्यायालय ने ‘केरल हिंदू प्लेस ऑफ पब्लिक वर्शिप रूल’, 1965 (Kerala Hindu Places of Public Worship Rules, 1965) के नियम संख्या 3 (b) जो मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाता है को संविधान की कानूनी शक्ति से परे घोषित किया है।
- महिलाओं को मंदिर में प्रवेश करने से रोकना अस्पृश्यता का एक रूप है जो कि संविधान के अनुच्छेद 17 का उल्लंघन है।
संविधान पीठ द्वारा किन प्रश्नों की जाँच की गई?
- सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2006 में एक गैर-लाभकारी संगठन ‘इंडियन यंग लॉयर्स एसोसिएशन’ द्वारा दायर जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए वर्ष 2017 में मामले को पाँच न्यायाधीशों की एक संविधान पीठ के हवाले कर दिया था।
- धार्मिक आज़ादी का अधिकार और महिलाओं के साथ लिंग आधारित भेदभाव तथा मौलिक अधिकारों के हनन से संबंधित कई महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर सर्वोच्च न्यायालय की पाँच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने निम्नलिखित प्रश्नों की जाँच की –
- क्या शारीरिक बदलाव के चलते महिलाओं के प्रवेश पर रोक लगाने की प्रथा लिंग आधारित भेदभाव तो नहीं है?
- क्या 10 से 50 वर्ष की महिलाओं को बाहर रखना अनुच्छेद 25 के तहत धार्मिक रीति-रिवाज़ का अभिन्न हिस्सा माना जा सकता है?
- क्या धार्मिक संस्था अपने मामलों का प्रबंधन करने की धार्मिक आज़ादी के तहत इस तरह के रीति-रिवाज़ों का दावा कर सकती है?
- क्या अयप्पा मंदिर को धार्मिक संस्था माना जाएगा, जबकि उसका प्रबंधन विधायी बोर्ड, केरल और तमिलनाडु सरकार के बजट से होता है?
- क्या ऐसी संस्था संविधान के अनुच्छेद 14, 15(3), 39(ए) और 51 ए(ई) के सिद्धांतों का उल्लंघन करते हुए इस तरह के प्रचलन को बनाए रख सकती है?
- क्या कोई धार्मिक संस्था 10 से 50 वर्ष की महिलाओं के प्रवेश को ‘केरल हिंदू प्लेस ऑफ पब्लिक वर्शिप रूल’, 1965 (Kerala Hindu Places of Public Worship Rules, 1965) के नियम संख्या 3 के आधार पर प्रतिबंधित कर सकती है?
पृष्ठभूमि
- सबरीमाला मंदिर में परंपरा के अनुसार, 10 से 50 साल की महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध है|
- मंदिर ट्रस्ट के अनुसार, यहाँ 1500 साल से महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध है| इसके लिये कुछ धार्मिक कारण बताए जाते हैं|
- केरल के ‘यंग लॉयर्स एसोसिएशन’ ने इस प्रतिबंध के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में 2006 में जनहित याचिका दायर की थी|
- सबरीमाला मंदिर में हर साल नवंबर से जनवरी तक श्रद्धालु भगवान अयप्पा के दर्शन के लिये आते हैं, इसके अलावा पूरे साल यह मंदिर आम भक्तों के लिये बंद रहता है।
- भगवान अयप्पा के भक्तों के लिये मकर संक्रांति का दिन बहुत खास होता है, इसीलिये उस दिन यहाँ सबसे ज़्यादा भक्त पहुँचते हैं।
- पौराणिक कथाओं के अनुसार, अयप्पा को भगवान शिव और मोहिनी (विष्णु जी का एक रूप) का पुत्र माना जाता है।
निष्कर्ष
- निश्चित रूप से सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर दिया गया फैसला ऐतिहासिक है। इस फैसले के माध्यम से न्यायालय ने न केवल समानता को धर्म से ऊपर रखा है बल्कि आधुनिक सोच वाले समाज में रूढ़िवादी सोच के आधार पर किये जाने वाले भेदभाव को खारिज कर दिया है।