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जैव विविधता और पर्यावरण

विलुप्त होती प्रजातियों पर जैव विविधता रिपोर्ट

  • 09 May 2019
  • 9 min read

चर्चा में क्यों?

जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के लिये अंतर-सरकारी विज्ञान नीति मंच (Intergovernmental Science-Policy Platform On Biodiversity and Ecosystem Services- IPBES) द्वारा प्रजातियों के विलुप्त होने के संदर्भ में रिपोर्ट जारी की गई है।

  • उल्लेखनीय है कि इस रिपोर्ट के अंतर्गत हमारी प्रकृति की स्थिति पर अब तक का सबसे व्यापक वैज्ञानिक मूल्यांकन किया गया है। इस रिपोर्ट में धरती पर निवास करने वाली प्रजातियों के स्वास्थ्य एवं इनके आवासों की स्थिति का विस्तृत विवरण है।

प्रमुख बिंदु

  • इस रिपोर्ट में संभावना जताई जा रही है कि आने वाले दशक के भीतर पृथ्वी पर अनुमानित 8 मिलियन पौधों और जानवरों की प्रजातियों में से लगभग 1 मिलियन के विलुप्त होने की संभावना है।
  • प्रजातियों के विलुप्त होने की संभावना पिछले सभी समय की तुलना में सबसे अधिक है जिसका कारण मानव गतिविधियों द्वारा प्राकृतिक वातावरण में परिवर्तन लाना है।
  • रिपोर्ट के अनुसार, पृथ्वी की 75% भूमि वातावरण (Land Environment) और 66% समुद्री वातावरण (Marine Environment) में काफी परिवर्तन हुआ है, साथ ही आर्द्रभूमि क्षेत्र (Wetland Area) का 85% से अधिक क्षेत्र समाप्त हो गया है।
  • रिपोर्ट में यह बात सामने आई है कि देशज लोगों और स्थानीय समुदायों (जैसे भारत में आदिवासी समुदायों) द्वारा नियंत्रित या प्रबंधित क्षेत्रों पर विलुप्ति का प्रभाव कम है।

रिपोर्ट के कुछ उल्लेखनीय निष्कर्ष
Some of the report's notable findings

प्रजातियाँ

  • पृथ्वी पर लगभग 8 मिलियन जंतुओं एवं वनस्पतियों की प्रजातियाँ पाई जाती हैं।
  • रिपोर्ट के अनुसार, 40% उभयचर तथा 33% जलीय स्तनधारी प्रजातियाँ विलुप्त होने के कगार पर हैं। 16वीं शताब्दी से 680 कशेरुकी प्रजातियाँ मानवीय गतिविधियों के कारण विलुप्त होने के कगार पर हैं।
  • कुल ज्ञात 5.5 मिलियन कीटों की प्रजातियों में से लगभग 10 प्रतिशत विलुप्त होने के कगार पर हैं। 3.5 प्रतिशत घरेलू प्रजाति के पक्षी लुप्त हो गए हैं।

वन

  • कृषि तथा औद्योगीकरण के लिये वनों को काटा जा रहा है परिणाम स्वरुप वनों का क्षेत्रफल कम होता जा रहा है जिससे पर्यावरण एवं मौसम में परिवर्तन आदि विषम परिस्थियाँ उत्पन्न हो रही हैं।
  • 50 प्रतिशत से अधिक कृषि क्षेत्रों का विस्तार हुआ है। प्री-औद्योगिक स्तर से वर्तमान तक 68 प्रतिशत वैश्विक वन कम हुए हैं।  

शहरीकरण

  • वर्ष 1992 से शहरी क्षेत्रों का विकास हुआ, वर्ष 1970 से मानव जनसंख्या में तीव्र वृद्धि हुई है। फलस्वरूप जीवाश्म ईंधन, जल, भोजन और भूमि के लिये वैश्विक स्तर पर विवाद बढ़े हैं।

समुद्र और इनमें पाई जाने वाली मछलियाँ

  • जलवायु परिवर्तन के कारण शताब्दी के अंत तक मछलियों के उत्पादन में 3-10 प्रतिशत तक की कमी आने का अनुमान है क्योंकि वैश्विक तापन के कारण समुद्र से लगभग 3-25 प्रतिशत बायोमास के नष्ट हो जाने है संभावना है।
  • 100-300 मिलियन लोग जो तटीय क्षेत्रों पर रहते हैं, पर जोखिम बढ़ने की संभावना है, क्योंकि तटीय आवास और सुरक्षा के नुकसान के कारण बाढ़ (Floods) और तूफान (Hurricanes) का खतरा बढ़ गया है।

स्वास्थ्य

  • वैश्विक आबादी के लगभग 40 प्रतिशत लोग साफ़ और सुरक्षित जल से वंचित हैं जिससे जीव-जंतुओं के स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है।

प्रदूषण और अपशिष्ट

  • वर्ष 1980 से प्लास्टिक प्रदूषण लगभग दस गुना बढ़ गया है।
  • 300-400 मिलियन टन भारी धातुओं (Heavy Metals), विलायक (Solvents), विषाक्त मल (Toxic Sludge) और अन्य औद्योगिक अपशिष्ट को विश्व की जल प्रणालियों में बहा दिया जाता है।

जलवायु परिवर्तन

  • औद्योगीकरण के पूर्व से लेकर 2017 तक वैश्विक तापमान लगभग 1 प्रतिशत बढ़ गया है।
  • पिछले दो दशकों में समुद्र का जल-स्तर लगभग 3 मिलीमीटर बढ़ गया है।

human
nature

रिपोर्ट का महत्त्व (Significance of the report)

  • रिपोर्ट में किया गया मूल्यांकन विलुप्ति पर अब तक का सबसे सटीक और व्यापक आकलन है जिसमें प्रकृति के ‘अभूतपूर्व’ (Unprecedented) दर से घटने तथा उससे होने वाले परिवर्तन से लोगों पर पड़ने वाले जोखिमपूर्ण प्रभावों के संदर्भ में चेतावनी दी गई है।
  • रिपोर्ट में खाद्य फसलों के परागण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले कीटों के गायब होने, प्रवाल भित्तियों का विनाश तथा इससे मछलियों पर पड़ने वाले प्रभावों एवं अन्य औषधीय पौधों के नुकसान सहित कई जोखिमों की पहचान की गई है।
  • 1900 के बाद से अधिकांशतः भूमि आधारित आवासों में देशी प्रजातियों की गिरावट कम-से-कम 20% तक पाई गई है।
  • इसके अनुसार, व्यापार और वित्तीय चिंताओं पर भी खतरा व्याप्त है, क्योंकि दुनिया भर में लोग अपनी अर्थव्यवस्थाओं, आजीविका, खाद्य सुरक्षा, स्वास्थ्य और जीवन की गुणवत्ता की नींव को समाप्त कर रहे हैं।
  • प्रमुख वैश्विक खतरे: भूमि और समुद्री संसाधनों का मानव द्वारा उपयोग, जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण और आक्रामक प्रजातियाँ आदि हैं।
  • तापमान के बढ़ने के साथ महासागर का पारिस्थितिकी तंत्र 2 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाता है। महासागरों के तापमान एवं अम्लीयता बढ़ने के फलस्वरूप प्रवाल भित्तियों की हानि होती है, साथ ही वाणिज्यिक और स्वदेशी मत्स्य पालन में गिरावट आ सकती है।

IPBES क्या है?

  • IPBES जलवायु परिवर्तन पर बेहतर जानकारी हेतु एक वैश्विक वैज्ञानिक निकाय है।
  • यह अंतर-सरकारी पैनल (Intergovernmental Panel on Climate Change- IPCC) की रचना और कार्यप्रणाली जैसा ही है।
  • इसके अंतर्गत वैज्ञानिकों द्वारा पृथ्वी के जलवायु में होने वाले परिवर्तन संबंधी अनुमान लगाने तथा इसकी समय-समय पर समीक्षा की जाती है।
  • IPBES, प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र और जैव विविधता के संदर्भ में  कार्य करने के लिये प्रतिबद्ध है।
  • वर्ष 2012 में गठित IPBES द्वारा पेश की गई यह पहली वैश्विक मूल्यांकन रिपोर्ट है।

भारत से संबंध

  • रिपोर्ट में किसी देश-विशेष की जानकारी नहीं दी गई है लेकिन रिपोर्ट में दिये गए विवरणों से भारत भी संबंधित है क्योंकि भारत में प्रमुख जैव विविधता हॉटस्पॉट, विस्तृत क्षेत्र, विशेष रूप से समुद्र तट अवस्थित हैं।
  • रिपोर्ट के अनुसार, 23% वैश्विक भूमि क्षेत्र में गिरावट के कारण उत्पादकता में कमी देखी गई, साथ ही तटीय निवास और सुरक्षा के नुकसान के कारण 100 से 300 मिलियन लोग बाढ़ और तूफान के बढ़ते जोखिम के अंतर्गत पाए गए।
  • ये सभी प्रवृत्तियाँ भारत में स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं और रिपोर्ट में उजागर प्राकृतिक पारिस्थितिकी प्रणालियों से संबंधित जोखिम भारत में भी परिलक्षित हैं।

स्रोत- इंडियन एक्सप्रेस

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