बच्चों की सुरक्षा किसकी ज़िम्मेदारी है? | 25 Nov 2017
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में हुए एक सर्वेक्षण में स्पष्ट किया गया कि "अपने जीवन काल में प्रत्येक दो में से एक भारतीय बच्चा यौन शोषण का शिकार होता है। भारत जैसे देश के लिये यह एक गंभीर एवं बहुत ही चिंताजनक तथ्य है क्योंकि यहाँ विश्व के 19 फीसदी बच्चे निवास करते हैं।
- हालाँकि, भारत सरकार द्वारा इस संदर्भ में बहुत से प्रयास किये गए हैं, और इन्हीं प्रयासों में से एक है- बच्चों के लिये राष्ट्रीय नीति 2013.
- इस नीति के अंतर्गत "एक निवारक और जवाबदेह बाल संरक्षण प्रणाली के निर्माण के साथ-साथ बाल शोषण एवं उपेक्षा के सभी स्वरूपों के विरुद्ध दंडात्मक प्रकृति के विधिक और प्रशासनिक उपायों के प्रभावी प्रवर्तन को बढ़ावा देने" की बात कही गई है।
स्कूलों में संरक्षण व्यवस्था कैसी होनी चाहिये ?
- भारत के लगभग 1.6 मिलियन स्कूलों में बच्चों की संख्या दुनिया के अधिकांश देशों की आबादी की तुलना में काफी अधिक है। स्पष्ट रूप से यह आँकड़ा हमें सभी स्कूलों, चाहे वे देश के दूर-दराज़ के इलाकों में स्थित हों, या कि निजी अथवा सरकार स्कूल या फिर आदिवासी आश्रमशालाएँ (आवासीय विद्यालय) हों, इन सभी के संदर्भ में एक समान बाल संरक्षण नीति विकसित करने की आवश्यकता पर बल देता है।
- इस संदर्भ में मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा व्यापक दिशा-निर्देश भी जारी किये गए हैं। इन दिशा-निर्देशों के अंतर्गत स्कूलों के अंतर्गत बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये विभिन्न सुविधाओं के साथ-साथ बच्चों की उम्र के हिसाब से उनके लिये उचित शौचालय व्यवस्था जैसे बुनियादी ढाँचे को ध्यान में रखा गया है।
- इसके अंतर्गत स्कूल के कर्मचारियों संबंधी विषयों पर भी विशेष ध्यान दिया गया है; उदाहरण के तौर पर, स्कूल में नए कर्मचारियों को उनकी पूर्व पृष्ठभूमि और मानसिक स्थिति की आवश्यक जाँच के बाद ही नियुक्त किया जा सकता है।
- लेकिन इन दिशा-निर्देशों को अनिवार्य किये बिना इनमें निहित उद्देश्यों को प्राप्त कर पाना असंभव है। स्पष्ट रूप से इन सभी दिशा-निर्देशों का अनुपालन इस प्रकार से सुनिश्चित किया जाय कि इनके क्रियान्वयन में किसी भी प्रकार की मनमानी को पूर्णतः प्रतिबंधित कर दिया जाय।
- इसके अंतर्गत शिक्षकों के साथ-साथ सभी स्कूल कर्मचारियों की पुलिस जाँच किये जाने की बात भी कही गई है।
- इसके अतिरिक्त, स्कूलों के लिये प्रशिक्षित काउंसलरों के नामांकन को भी अनिवार्य बनाया जाना चाहिये, ताकि बाल-शोषण को रोकने के साथ-साथ इस प्रकार की समस्याओं के विषय में आवश्यक जानकारी प्राप्त करके उनका समय से समाधान किया जा सके।
- इसके अलावा, सभी शिक्षकों को बाल शोषण से संबद्ध सभी पक्षों के बारे में विस्तृत रूप से समझाने की आवश्यकता है, ताकि समाज को इस बुराई से बचाने के साथ-साथ बच्चों पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव के संदर्भ में भी आवश्यक कार्यवाही की जा सके।
- वस्तुतः बच्चों की सुरक्षा और शोषण संबंधी रोकथाम हेतु सबसे बेहतर विकल्प यह होगा कि इस विषय को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाना चाहिये, ताकि इससे संबंधित कानूनी पक्षों के विषय में प्रत्येक बच्चे, माता-पिता एवं शिक्षकों को शिक्षित किया जा सके।
- इसके अतिरिक्त, ऐसी किसी स्थिति में (बाल शोषण अथवा दुर्व्यवहार की स्थिति में) संपर्क स्थापित करने के लिये एक उचित संपर्क व्यवस्था भी सुनिश्चित की जानी चाहिये, ताकि बच्चे बिना डरे अपनी बात रख सकें।
सलाहकारी दृष्टिकोण
- जब कभी बच्चों के खिलाफ हिंसा अथवा दुर्व्यवहार या शोषण जैसी घटना घटित होती है, ऐसे में गैर सरकारी संगठन, माता-पिता, स्कूल संघ यहाँ तक कि सरकार के प्रतिनिधि भी रक्षात्मक या टकराव की स्थिति में आ जाते हैं।
- स्पष्ट रूप से इसका कारण यह है कि उक्त घटना की ज़िम्मेदारी किसके सर डाली जाए, यह यक्ष प्रश्न होता है। यदि गंभीरता से विचार करें तो ऐसी स्थितियों के लिये कोई एक कारक ज़िम्मेदार नहीं होता है बल्कि अपने-अपने स्तर पर थोड़ी-बहुत भूमिका सभी की होती है।
- तथापि ऐसी घटनाएँ स्कूल प्रशासन, माता-पिता और सरकार के बीच विश्वास की कमी का परिणाम होती हैं। जहाँ एक ओर इसके लिये किसी भी व्यक्ति की पारिवारिक पृष्ठभूमि ज़िम्मेदार होती है, वहीं दूसरी ओर इसके लिये सामाजिक स्थिति भी उत्तरदायी होती है।
निष्कर्ष
बच्चों की सुरक्षा इन तीनों पक्षों (स्कूल प्रशासन, माता-पिता एवं सरकार) की एक साझी ज़िम्मेदारी है। इसे पृथक रूप से केवल स्कूल अथवा माता-पिता या फिर सरकार द्वारा अकेले नहीं निभाया जा सकता है। इस समस्या का हल निकालने के लिये इस दिशा में आवश्यक एवं उचित कदम उठाए जाने की आवश्यकता है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि अब कोई बच्चा बाल दुर्व्यवहार अथवा शोषण का शिकार न होने पाए।