सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 377 को अपराधमुक्त घोषित किया | 07 Sep 2018
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय की पाँच न्यायाधीशीय संवैधानिक खंडपीठ ने चार अलग-अलग लेकिन समेकित निर्णयों में आपसी सहमति से दो समान लिंग वाले व्यक्तियों के बीच बनने वाले यौन संबंधों को वैध घोषित किया।
प्रमुख बिंदु
- इसने 2013 के फैसले को संवैधानिक रूप से अस्वीकार कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय समलैंगिकता को अपराध मानने को चुनौती देने वाली याचिकाओं के एक समूह पर सुनवाई कर रहा था।
- पाँच न्यायाधीशीय खंडपीठ की अध्यक्षता भारत के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने की और इसमें जस्टिस आर.एफ. नरीमन, ए.एम. खानविलकर, डी.वाई. चंद्रचूड़ और इंदु मल्होत्रा शामिल थे।
- यह फैसला नर्तक जौहर, पत्रकार सुनील मेहरा, शेफ रितु डालमिया, होटल उद्यमी अमन नाथ और केशव सूरी तथा बिज़नेस एक्जीक्यूटिव आयशा कपूर द्वारा दायर की गई पाँच याचिकाओं के संबंध में था।
- इस वर्ष की शुरुआत में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की गई चार दिवसीय सुनवाई के दौरान केंद्र ने कहा था कि वह याचिकाओं का प्रतिरोध नहीं करेगा और फैसले को "न्यायालय की बुद्धिमत्ता" पर छोड़ देगा।
क्या है धारा 377?
- भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 377 का संबंध अप्राकृतिक शारीरिक संबंधों से है। इसके अनुसार यदि दो लोग आपसी सहमति अथवा असहमति से आपस में अप्राकृतिक संबंध बनाते हैं और दोषी करार दिये जाते हैं तो उनको 10 वर्ष से लेकर उम्रकैद तक की सज़ा हो सकती है। अधिनियम में इस अपराध को संज्ञेय तथा गैर-जमानती अपराध माना गया है।
- यद्यपि व्यक्ति के चयन की स्वतंत्रता को महत्त्व देते हुए 2009 में हाईकोर्ट ने आपसी सहमति से एकांत में बनाए जाने वाले समलैंगिक संबंधों को अपराध के दायरे से बाहर करने का निर्णय दिया था। किंतु 2013 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समलैंगिकता की स्थिति में उम्रकैद के प्रावधान को पुनः बहाल करने का फैसला दिया गया।