चरम जलवायु घटनाएँ और भारत | 12 Dec 2020
चर्चा में क्यों?
काउंसिल ऑन एनर्जी, एन्वायरनमेंट एंड वाटर (CEEW) द्वारा जारी एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक, भारत के 75 प्रतिशत से अधिक ज़िले चक्रवात, बाढ़, सूखा, हीट वेव और कोल्ड वेव जैसी चरम जलवायु घटनाओं के मुख्य हॉटस्पॉट हैं।
- यह रिपोर्ट ‘प्रिपेयरिंग इंडिया फॉर एक्सट्रीम क्लाइमेट इवेंट्स’ के नाम से प्रकाशित की गई है।
- यह पहली बार है जब देश में चरम जलवायु घटनाओं के हॉटस्पॉट का मानचित्रण किया गया है।
- CEEW सभी प्रकार के संसाधनों के उपयोग, पुनरुपयोग और दुरुपयोग को प्रभावित करने वाले सभी विषयों पर अनुसंधान हेतु समर्पित एक स्वतंत्र और गैर-लाभकारी नीति अनुसंधान संस्थान है।
- यह रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) की उत्सर्जन गैप रिपोर्ट, 2020 के बाद जारी की गई है, ज्ञात हो कि संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) ने अपनी रिपोर्ट में चेताया है कि विश्व मौजूदा सदी में 3°C से अधिक तापमान वृद्धि की ओर बढ़ रहा है।
प्रमुख बिंदु
रिपोर्ट के निष्कर्ष
- बीते दशकों में चरम जलवायु घटनाएँ जैसे- बाढ़ और सूखा आदि की आवृत्ति, तीव्रता और अप्रत्याशितता काफी तेज़ी से बढ़ी हैं।
- जहाँ एक ओर भारत में वर्ष 1970-2005 के बीच 35 वर्षों में 250 चरम जलवायु घटनाएँ दर्ज की गईं, वहीं वर्ष 2005-2020 के बीच मात्र 15 वर्षों में इस तरह की 310 घटनाएँ दर्ज की गईं।
- वर्ष 2005 के बाद से चरम जलवायु घटनाओं में हुई वृद्धि के कारण भारत के 75 प्रतिशत से अधिक ज़िलों को संपत्ति, आजीविका और जीवन के नुकसान के साथ-साथ माइक्रो-क्लाइमेट में होने वाले बदलावों को वहन करना पड़ रहा है।
- यह पैटर्न वैश्विक परिवर्तन को भी प्रदर्शित करता है।
- जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप चरम जलवायु घटनाओं के चलते वर्ष 1999-2018 के बीच विश्व भर में 4,95,000 से अधिक लोगों की मृत्यु हुई।
- रिपोर्ट के मुताबिक, इस अवधि के दौरान संपूर्ण विश्व में 12000 से अधिक चरम जलवायु घटनाएँ दर्ज की गईं और इसके कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था को 3.54 बिलियन अमेरिकी डॉलर (क्रय शक्ति समता या PPP के संदर्भ में) के नुकसान का सामना करना पड़ा।
- मौजूदा भयावह जलवायु परिवर्तन घटनाएँ बीते 100 वर्षों में केवल 0.6 डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि का परिणाम हैं, इस तरह यदि भविष्य में तापमान में और अधिक वृद्धि होती है तो हमें इससे भी भयानक घटनाएँ देखने को मिल सकती हैं।
- भारत पहले से ही चरम जलवायु घटनाओं के मामले में वैश्विक स्तर पर 5वाँ सबसे संवेदनशील देश है।
चक्रवात
- आँकड़ों के विश्लेषण से ज्ञात होता है कि वर्ष 2005 के बाद से चक्रवातों से प्रभावित ज़िलों की वार्षिक औसत संख्या तथा चक्रवातों की आवृत्ति तकरीबन दोगुनी हो गई है।
- बीते एक दशक में पूर्वी तट के लगभग 258 ज़िले चक्रवात से प्रभावित हुए हैं।
- पूर्वी तट में लगातार गर्म होते क्षेत्रीय माइक्रो-क्लाइमेट, भूमि-उपयोग में परिवर्तन और निर्वनीकरण ने चक्रवातों की संख्या में बढ़ोतरी करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है।
बाढ़
- वर्ष 2000-2009 के बीच भीषण बाढ़ और उससे संबंधित अन्य घटनाओं में तीव्र वृद्धि दर्ज की गई और इस दौरान बाढ़ के कारण तकरीबन 473 ज़िले प्रभावित हुए।
- बाढ़ से संबंधित अन्य घटनाओं जैसे- भूस्खलन, भारी वर्षा, ओलावृष्टि, गरज और बादल फटने आदि घटनाओं में 20 गुना से अधिक की वृद्धि हुई है।
- भूस्खलन, ‘अर्बन हीट लैंड’ और हिमनदों के पिघलने के कारण समुद्र स्तर में हो रही वृद्धि के प्रभावस्वरूप बाढ़ की घटनाओं में भी बढ़ोतरी हो रही है।
- ‘अर्बन हीट लैंड’ वह सघन जनसंख्या वाला नगरीय क्षेत्र होता है, जिसका तापमान उपनगरीय या ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में 2°C अधिक होता है।
- जहाँ एक ओर मानसून के दौरान वर्षा वाले दिनों की संख्या में कमी आई है, वहीं दूसरी ओर चरम वर्षा की घटनाओं में वृद्धि हो रही है, जिससे बाढ़ की घटनाओं में भी बढ़ोतरी हो रही है।
- पिछले एक दशक में भारत के आठ सबसे अधिक बाढ़ प्रभावित ज़िलों में से छह ज़िले (बारपेटा, दारंग, धेमाजी, गोवालपारा, गोलाघाट और शिवसागर) अकेले असम में स्थित हैं।
सूखा
- रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्ष 2005 के बाद सूखा प्रभावित ज़िलों का वार्षिक औसत 13 गुना अधिक बढ़ गया है।
- वर्ष 2005 तक भारत में सूखे से प्रभावित ज़िलों की संख्या मात्र छह थी, जो कि वर्ष 2005 के बाद से बढ़कर 79 हो गई है।
- यद्यपि सूखे के कारण होने वाले जनजीवन के नुकसान में काफी कमी आई है, किंतु इस प्रकार की घटनाओं के चलते कृषि और ग्रामीण आजीविका के क्षेत्र में अनिश्चितता की स्थिति पैदा हो गई है।
- पिछले एक दशक में भारत के सूखा प्रभावित ज़िलों में अहमदनगर, औरंगाबाद (दोनों महाराष्ट्र), अनंतपुर, चित्तूर (दोनों आंध्र प्रदेश), बागलकोट, बीजापुर, चिक्काबल्लापुर, गुलबर्गा, और हासन (सभी कर्नाटक) आदि शामिल हैं।
कमज़ोर मानसून
- विश्लेषण से माइक्रो-तापमान में वृद्धि और मानसून के कमज़ोर होने के संबंध का पता चलता है।
- इस तथ्य की पुष्टि इस बात से की जा सकती है कि महाराष्ट्र, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों को वर्ष 2015 में भीषण गर्मी और कमज़ोर मानसून के कारण पानी की भारी कमी का सामना करना पड़ा था।
चरम जलवायु घटनाओं के पैटर्न में बदलाव
- इस अध्ययन के दौरान चरम जलवायु घटनाओं के पैटर्न में बदलाव भी पाया गया है, उदाहरण के लिये भारत के 40 प्रतिशत बाढ़-ग्रस्त ज़िलों की स्थिति अब सूखाग्रस्त है, जबकि सूखाग्रस्त ज़िलों के बाढ़-ग्रस्त होने की जानकारी मिल रही है।
- यह बदलाव दो प्रकार से देखा जा रहा है-
- कुछ मामलों में जिन ज़िलों में बाढ़ की आशंका थी, वे अब सूखाग्रस्त हो रहे हैं और जहाँ सूखे की आशंका थी वे अब बाढ़ से प्रभावित हो रहे हैं।
- वहीं भारत के कई ज़िलों को बाढ़ और सूखा दोनों ही घटनाओं का सामना करना पड़ रहा है। विश्लेषकों के मुताबिक, यह प्रवृत्ति काफी गंभीर है और इस विषय पर आगे अनुसंधान किये जाने की आवश्यकता है।
- भारत के तटीय दक्षिणी राज्यों में सूखे की घटनाएँ काफी तेज़ी से दर्ज की जा रही हैं।
- इसके अलावा बिहार, उत्तर प्रदेश, ओडिशा और तमिलनाडु के कई ज़िलों में बाढ़ और सूखे की स्थिति एक ही मौसम के दौरान दर्ज जा रही है।
सुझाव
- अर्बन हीट स्ट्रेस, जल तनाव और जैव विविधता के नुकसान जैसी महत्त्वपूर्ण सुभेद्यताओं का प्रतिचित्रण करने के लिये एक जलवायु जोखिम एटलस (Develop a Climate Risk Atlas) विकसित किया जाना चाहिये।
- आपात स्थितियों के प्रति व्यवस्थित और निरंतर प्रतिक्रिया सुनिश्चित करने के लिये एक एकीकृत आपातकालीन निगरानी प्रणाली विकसित की जानी चाहिये।
- स्थानीय, क्षेत्रीय, मैक्रो और माइक्रो-क्लाइमैटिक स्तर सहित सभी स्तरों पर जोखिम मूल्यांकन किया जाना चाहिये।
- जोखिम मूल्यांकन प्रक्रिया में सभी हितधारकों की भागीदारी अनिवार्य हो।
- स्थानीय, उप-राष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर की योजनाओं में जोखिम मूल्यांकन को एकीकृत किया जाना चाहिये।
माइक्रो-क्लाइमैटिक ज़ोन शिफ्टिंग
- माइक्रो-क्लाइमैटिक ज़ोन का आशय ऐसे क्षेत्र से है, जहाँ का मौसम आस-पास के क्षेत्रों से भिन्न होता है। भारत के अलग-अलग ज़िलों में माइक्रो-क्लाइमैटिक ज़ोन की स्थिति में परिवर्तन आ रहा है।
- माइक्रो-क्लाइमैटिक ज़ोन में बदलाव के कारण संपूर्ण क्षेत्र में व्यवधान पैदा हो सकता है।
- उदाहरण के लिये वार्षिक औसत तापमान में मात्र 2 डिग्री सेल्सियस वृद्धि के कारण कृषि उत्पादकता में 15-20 प्रतिशत की कमी आ सकती है।
- कारण: इसके कारणों में भूमि उपयोग में बदलाव, निर्वनीकरण, अतिक्रमण के कारण आर्द्रभूमि एवं प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्रों को होने वाला नुकसान और अर्बन हीट लैंड आदि शामिल हैं।