आर्थिक पूंजी फ्रेमवर्क और जालान समिति | 29 Aug 2019
चर्चा में क्यों?
भारतीय रिज़र्व बैंक के आर्थिक पूंजी फ्रेमवर्क की समीक्षा के लिये गठित बिमल जालान समिति के सुझाव पर केंद्रीय बैंक ने केंद्र सरकार को 1.76 लाख करोड़ रुपए दिये, साथ ही इस समिति ने प्रत्येक पाँच वर्षों में आर्थिक पूंजी फ्रेमवर्क की समीक्षा करने की सिफारिश भी की है।
संबंधित मुद्दे:
- भारतीय रिज़र्व बैंक की स्थापना वर्ष 1935 में हुई थी, स्थापना के समय इस बैंक में निजी भागीदारी की अनुमति थी। वर्ष 1949 में भारतीय रिज़र्व बैंक के राष्ट्रीयकरण के बाद यह पूर्णतः सरकार के अंतर्गत कार्य करने लगा था।
- भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम, 1934 की धारा 47 के तहत सरकार RBI के अधिशेष वित्त (Surplus Fund) का उपयोग कर सकती है। भारतीय रिज़र्व बैंक इस अधिशेष का किसी तात्कालिक और भविष्य के जोखिमों के लिये प्रयोग करता है।
- भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर पिछले तीन वर्षों के दौरान 8.2% से घटकर 6.8% हो गई, साथ ही RBI की वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर वर्ष 2019 की पहली तिमाही में पिछले 5 वर्षों की तुलना में सबसे कम (5.8%) दर्ज की गई है।
- भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर के लिये जहाँ एक ओर अर्थव्यवस्था में तरलता बढ़ाने की आवश्यकता है, वहीं दूसरी ओर भारतीय रिज़र्व बैंक की नीतिगत स्वतंत्रता और स्वायत्तता का मामला भी अत्यंत गंभीर है।
सरकार का पक्ष:
- केंद्र सरकार बैंकिंग व्यवस्था में रिकैपिटलाइज़ेशन के माध्यम से वित्त की आपूर्ति बढ़ाना चाहती है जिससे आर्थिक गतिविधियों को बढ़ाया जा सके।
- भारत में मंदी के कारण आर्थिक गतिविधियाँ धीमी हुई हैं, साथ ही रोज़गार के अवसरों में भी कमी आई है।
- भारत में रियल एस्टेट सेक्टर और विनिर्माण सेक्टर वित्त की कमी की समस्या से जूझ रहा है, वहीं ऑटोमोबाइल सेक्टर में मांग की कमी के कारण हज़ारों की संख्या में लोग बेरोज़गार हो गए हैं।
- ऑटोमोबाइल सेक्टर में जहाँ वित्त की कमी के कारण विनिर्माण गतिविधियाँ ठीक से संचालित नहीं हो पा रही हैं, वहीं दूसरी ओर बाज़ार में मुद्रा की तरलता कम होने के कारण लोगों के पास पैसे नहीं हैं जिसकी वजह से लोग इन उत्पादों को कम खरीद पा रहे हैं। अर्थव्यवस्था में इस प्रकार के दुष्चक्र के कारण आर्थिक गतिविधियाँ बुरी तरह प्रभावित हुई हैं जिससे इस क्षेत्र में काम करने वाले हज़ारों लोग बेरोज़गार हो गए हैं।
- मार्केट रिसर्च कंपनी नील्सन के अनुसार भारतीय अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी समस्या खर्च में कमी है।
- भारतीय अर्थव्यवस्था का वैश्विक स्थान छठे से सातवाँ हो गया है।
- एशियन डेवलपमेंट बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (International Monetary Fund- IMF) के नए अनुमान के अनुसार भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर वर्ष 2019 में 6.8% रहेगी।
उपरोक्त कारणों के परिप्रेक्ष्य में सरकार अर्थव्यवस्था में मुद्रा की तरलता बढ़ाकर मंदी की स्थिति को खत्म करके रोज़गार और आर्थिक गतिविधियों को तेज़ करना चाहती है।
भारतीय रिज़र्व बैंक का पक्ष:
- पिछले कुछ समय में RBI की स्वायत्तता के मुद्दे पर इसके कई अधिकारी इस्तीफा दे चुके हैं। इस स्वायत्तता को लेकर डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने अप्रत्यक्ष रूप से कहा कि केंद्रीय बैंक के नीतिगत निर्णयों में सरकार का हस्तक्षेप उचित नहीं है।
- केंद्रीय बैंक द्वारा अपने अधिशेष वित्त को सरकार को देना ठीक नहीं हैं क्योंकि बेसल जैसे अंतर्राष्ट्रीय मानकों के साथ ही स्थानीय अर्थव्यवस्था के जोखिमों की प्रतिपूर्ति करना उसका दायित्व है, वित्त के अभाव में उसकी कार्य निष्पादन क्षमता प्रभावित होगी।
- अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं की प्रभावशीलता को कम करना केंद्रीय बैंक का ही दायित्व है। वर्तमान में संरक्षणवादी नीतियों और करेंसी वार जैसी स्थितियों में भारतीय रिज़र्व बैंक के पास पर्याप्त वित्त होना अतिआवश्यक है। भारत के विपरीत चीन जैसे देशों द्वारा केंद्रीय बैंकों के पास पर्याप्त वित्त संरक्षित किया जा रहा है।
- अंतर्राष्ट्रीय मुद्राओं के सापेक्ष भारतीय रूपए की परिवर्तनीयता भी महत्त्वपूर्ण है। वर्तमान में एक अमेरिकी डॉलर 72 भारतीय रुपए के सापेक्ष है। मुद्रा परिवर्तनीयता से आयात-निर्यात भी प्रभावित होता रहता है, इसलिये केंद्रीय बैंक के पास इन परिस्थितियों से निपटने हेतु पर्याप्त वित्त और स्वायत्तता का होना आवश्यक है। इस प्रकार की घटनाओं से निपटने हेतु चीन आदि देशों के केंद्रीय बैंकों के पास डॉलर की पर्याप्त आपूर्ति है।
उपरोक्त परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में केंद्रीय बैंक ने बिमल जालान समिति का गठन किया था। बिमल जालान समिति की सिफारिशें निम्नलिखित हैं:
- समिति ने आर्थिक पूंजी फ्रेमवर्क की समीक्षा बाद इस फ्रेमवर्क के तहत RBI के पास उपलब्ध अतिरिक्त धनराशि को केंद्र सरकार को हस्तांतरित करने का सुझाव दिया है।
आर्थिक पूंजी फ्रेमवर्क
(Economic Capital Framework):
- आर्थिक पूंजी फ्रेमवर्क का तात्पर्य केंद्रीय बैंक के पास रखी गई आवश्यक जोखिम पूंजी से है।
- केंद्रीय बैंक इस पूंजी के माध्यम से भविष्य के अप्रत्याशित जोखिम, घटना या नुकसान के खिलाफ स्वयं को संरक्षित करता है।
- समिति ने आर्थिक पूंजी के दो घटकों- वसूल की गई इक्विटी (Realized Equity) और पुनर्मूल्यन शेष (Revaluation Balances) के बीच एक स्पष्ट अंतर किये जाने की सिफारिश की।
- समिति ने यह भी अनुशंसा की थी कि वसूल की गई इक्विटी (Realized Equity) का उपयोग प्राथमिक जोखिमों को पूरा करने के लिये किया जाए क्योंकि यह आय का मुख्य साधन है। इसके अतिरिक्त पुनर्मूल्यन शेष (Revaluation Balances) को केवल बाज़ार जोखिमों के लिये जोखिम बफर के रूप में रखा जाए क्योंकि वे सत्यापित मूल्यांकन लाभ नहीं होते हैं।
- रिस्क प्रोविज़निंग (Risk Provisioning) राशि जिसे काॅटिंजेंट रिस्क बफ़र (Contingent Risk Buffer- CRB) भी कहा जाता है, को RBI की बैलेंस शीट के 6.5%- 5.5% के बीच बनाए रखा जाए।
- CRB 6.5% से 5.5% के मानक में से मौद्रिक तथा वित्तीय स्थिरता जोखिम 5.5%-4.5% और क्रेडिट तथा परिचालन जोखिम 1.0% शामिल होता है।
- सरप्लस डिस्ट्रीब्यूशन पॉलिसी (Surplus Distribution Policy) के अनुसार, वसूल की गई इक्विटी (Realized Equity) के आवश्यकता से अधिक होने पर पूरी शुद्ध आय सरकार को हस्तांतरित कर दी जाएगी।
आगे की राह:
- जालान समिति ने अधिशेष वित्त को केंद्र सरकार को हस्तांतरित करने की सिफारिश की है। इसलिये केंद्र सरकार को रिज़र्व बैंक की स्वायत्तता कम किये बिना इस वित्त का बेहतर इस्तेमाल करना चाहिये।
- इस प्रकार के वित्त के प्रयोग से संबंधित नीतियों के निर्माण में केंद्रीय बैंक को शामिल करना एक बेहतर विकल्प हो सकता है।
- भारत सरकार आर्थिक विकास हेतु बचत रणनीति के बजाय खर्च रणनीति पर ज़ोर दे रही है।
इसलिये इस रणनीति हेतु पर्याप्त वित्त की आपूर्ति की जानी चाहिये।
भारतीय अर्थव्यवस्था को वर्ष 2025 तक 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने की महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति और वर्तमान आर्थिक मंदी तथा बेरोज़गारी के दुष्चक्र से निकलने हेतु अर्थव्यवस्था में मुद्रा की तरलता बढ़ाया जाना आवश्यक है लेकिन साथ ही भारतीय रिज़र्व बैंक की स्वायत्तता भी आवश्यक है, इसलिये दोनों स्थितियों के सामंजस्य से ही बेहतर परिणाम हासिल किये जा सकते हैं।