पुलिस हिरासत में हिंसा मानवाधिकारों के लिये खतरा | 09 Aug 2021
प्रिलिम्स के लियेभारत के मुख्य न्यायाधीश, राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो मेन्स के लियेपुलिस हिरासत में हिंसा और संबंधित प्रावधान |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) ने कहा कि संवैधानिक गारंटी के बावजूद हिरासत में यातना/हिंसा और पुलिस अत्याचारों को जारी रख पुलिस स्टेशन मानवाधिकारों एवं गरिमा पर सबसे बड़ा संकट उत्पन्न कर रहे हैं।
- उन्होंने एक कानूनी सेवा मोबाइल एप्लीकेशन एवं ‘राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण’ (NALSA) की कानूनी सेवाओं के विज़न एवं मिशन स्टेटमेंट के शुभारंभ पर यह बयान दिया।
राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण
- इसका गठन कानूनी सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 के तहत किया गया था, जो समाज के संवेदनशील वर्गों को मुफ्त एवं सक्षम कानूनी सेवाएँ प्रदान करने हेतु एक राष्ट्रव्यापी यूनिफार्म नेटवर्क स्थापित करने के उद्देश्य से नवंबर 1995 में लागू हुआ था।
- सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश इसका मुख्य संरक्षक होता है और भारत के सर्वोच्च न्यायालय का वरिष्ठतम न्यायाधीश प्राधिकरण का कार्यकारी अध्यक्ष होता है।
- संविधान का अनुच्छेद-39A समाज के गरीब एवं संवेदनशील वर्गों को समान अवसर के आधार पर न्याय को बढ़ावा देने हेतु मुफ्त कानूनी सहायता का प्रावधान करता है।
- अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 22(1), राज्य को कानून के समक्ष समानता सुनिश्चित करने के लिये बाध्य करते हैं।
- गौरतलब है कि नालसा और उसके नेटवर्क द्वारा निभाई गई भूमिका सतत् विकास लक्ष्य-16 को प्राप्त करने हेतु काफी प्रासंगिक है, जिसका लक्ष्य सतत् विकास हेतु शांतिपूर्ण और समावेशी समाजों को बढ़ावा देना, सभी के लिये न्याय तक पहुँच सुनिश्चित करना और प्रभावी, जवाबदेह एवं सभी स्तरों पर समावेशी संस्थान का निर्माण सुनिश्चित करना है।
प्रमुख बिंदु
विज़न और मिशन स्टेटमेंट
- यह एक समावेशी कानूनी प्रणाली को बढ़ावा देने और हाशिये पर और वंचित क्षेत्र के लिये निष्पक्ष एवं सार्थक न्याय सुनिश्चित करने हेतु नालसा के दृष्टिकोण को समाहित करती है।
- यह कानूनी रूप से उपलब्ध लाभों और लाभार्थियों के बीच की खाई को कम करने के लिये प्रभावी कानूनी प्रतिनिधित्व, कानूनी साक्षरता और जागरूकता प्रदान करके समाज के हाशिये पर और बहिष्कृत समूहों को कानूनी रूप से सशक्त बनाने के लिये नालसा के मिशन को बढ़ावा देती है।
कानूनी सेवाएँ मोबाइल एप्लीकेशन:
- इसमें कानूनी सहायता, कानूनी सलाह और अन्य शिकायतों के पंजीकरण आदि की सुविधा होगी।
- एप्लीकेशन ट्रैकिंग सुविधाएँ और स्पष्टीकरण की मांग जैसी कुछ अतिरिक्त सुविधाएँ भी हैं, जो कानूनी सहायता के लाभार्थियों और कानूनी सेवा प्राधिकरणों दोनों के लिये उपलब्ध हैं।
- लाभार्थी एप के माध्यम से पूर्व-संस्थान मध्यस्थता के लिये आवेदन कर सकते हैं। पीड़ित एप के माध्यम से मुआवज़े के लिये भी आवेदन कर सकते हैं।
हिरासत में हिंसा
संबंधित डेटा:
- राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आंँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2001 और वर्ष 2018 के मध्य भारत में 1,727 ऐसी मौतें दर्ज़ होने के बावज़ूद केवल 26 पुलिसकर्मियों को हिरासत में हिंसा का दोषी ठहराया गया था।
- वर्ष 2018 में 70 मौतों में से केवल 4.3% में पुलिस द्वारा शारीरिक हमले के कारण हिरासत के दौरान चोटों के लिये ज़िम्मेदार ठहराया गया था।
- उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और ओडिशा को छोड़कर पूरे देश में इस तरह की मौतों के लिये किसी भी पुलिसकर्मी को दोषी नहीं ठहराया गया था।
- हिरासत में हुई मौतों के अलावा वर्ष 2000 और वर्ष 2018 के मध्य पुलिस के खिलाफ 2,000 से अधिक मानवाधिकार उल्लंघन के मामले भी दर्ज किये गए थे और उन मामलों में केवल 344 पुलिसकर्मियों को दोषी ठहराया गया था।
प्रमुख कारण:
- कानूनी प्रतिनिधित्व का अभाव:
- पुलिस थानों में प्रभावी कानूनी प्रतिनिधित्व के अभाव के कारण गिरफ्तार या हिरासत में लिये गए व्यक्तियों को बड़ा नुकसान सहना पड़ता है। गिरफ्तारी या नज़रबंदी के पहले घंटे अक्सर आरोपी के मामले के भाग्य का फैसला करते हैं।
- लंबी न्यायिक प्रक्रियाएंँ:
- न्यायालयों द्वारा अपनाई जाने वाली लंबी, महंँगी औपचारिक प्रक्रियाएंँ गरीबों और कमज़ोरों को हतोत्साहित करती हैं।
- मज़बूत कानून का अभाव:
- भारत में अत्याचार विरोधी कानून नहीं है और अभी तक हिरासत में हिंसा को अपराध घोषित नहीं किया गया है, जबकि दोषी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई भ्रामक है।
- संस्थागत चुनौतियांँ:
- पूरी जेल प्रणाली प्रक्रिया में स्वाभाविक रूप से अपारदर्शी है तथा इसमें पारदर्शिता का अभाव है।
- भारत कारागारों में वांछित सुधार लाने में भी विफल रहता है और जेलें खराब परिस्थितियों, भीड़भाड़, अधिक लोगों का दबाव एवं जेलों में होने वाले नुकसान के खिलाफ न्यूनतम सुरक्षा उपायों से नही प्रभावित होती रहती हैं।
- अधिक दबाव:
- हाशिये के समुदायों को लक्षित करने के लिये यातना सहित अत्यधिक बल का उपयोग और आंदोलनों में भाग लेने वाले लोगों को नियंत्रित करना या विचारधाराओं का प्रचार करना, जिसे राज्य अपने अधिकार के विपरीत मानता है।
- अंतर्राष्ट्रीय मानकों का पालन न करना:
- हालांँकि भारत ने वर्ष 1997 में अत्याचार के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन पर हस्ताक्षर किये थे, लेकिन इसके अनुसमर्थन का मुद्दा अभी भी बना हुआ है।
- जबकि हस्ताक्षर केवल संधि में निर्धारित दायित्वों को पूरा करने के लिये देश के इरादे को इंगित करता है, दूसरी ओर अनुसमर्थन, प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिये कानूनों और तंत्रों के निर्माण पर ज़ोर देता है।
संवैधानिक और कानूनी प्रावधान:
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) के तहत यातना से सुरक्षा एक मौलिक अधिकार है।
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 22(1) के तहत सलाह का अधिकार भी एक मौलिक अधिकार है।
- दण्ड प्रक्रिया संहिता (Criminal Procedure Code -CrPC) की धारा 41 को वर्ष 2009 में 41ए, 41बी, 41सी और 41डी के तहत सुरक्षा उपायों को शामिल करने के लिये संशोधित किया गया था, ताकि पूछताछ के लिये गिरफ्तारी और हिरासत में उचित आधार तथा दस्तावेज़ी प्रक्रिया सुनिश्चित हो, गिरफ्तारी को परिवार, दोस्तों और जनता के लिये पारदर्शी बनाया जा सके एवं कानूनी प्रतिनिधित्व के माध्यम से सुरक्षा प्राप्त हो।
आगे की राह:
- पुलिस की ज़्यादतियों पर अंकुश लगाने के लिये कानूनी सहायता के संवैधानिक अधिकार और मुफ्त कानूनी सहायता सेवाओं की उपलब्धता के बारे में जानकारी का प्रसार करना आवश्यक है।
- हर थाने/जेल में डिस्प्ले बोर्ड और आउटडोर होर्डिंग लगाना इसी दिशा में एक कदम है।
- यदि भारत कानून के शासन द्वारा शासित समाज के रूप में बना रहना चाहता है, तो न्यायपालिका के लिये अनिवार्य है कि वह अत्यधिक विशेषाधिकार प्राप्त और सबसे कमज़ोर लोगों के बीच न्याय तक पहुँच के अंतर को पाट दे।
- भारत में न्याय प्राप्त करना केवल एक आकांक्षी लक्ष्य नहीं है। न्यायपालिका को इसे व्यावहारिक रूप देने के लिये सरकार के विभिन्न अंगों के साथ मिलकर काम करने की आवश्यकता है।