साथी का चयन व्यक्ति का मौलिक अधिकार है | 11 Jul 2018
चर्चा में क्यों?
भारतीय दंड संहिता की धारा 377 (SECTION 377) की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिका पर संविधान पीठ द्वारा सुनवाई के पहले दिन न्यायमूर्ति वाई.डी.चंद्रचूड ने माना कि साथी (partener) का चयन एक व्यक्ति का मौलिक अधिकार है और पार्टनर समलैंगिक भी हो सकता है| भारतीय दंड संहिता की धारा 377 जो कि औपनिवेशिक युग का प्रावधान है, वयस्कों के बीच निजी सहमति से बनाए गए समलैगिक यौन संबंध को अपराध मानता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि न्यायालय आईपीसी की धारा 377 को बनाए रखने वाले 2013 के उस फैसले की शुद्धता की जाँच करेगा जिसमें समलैंगिक यौन संबंधों को अपराध बताया गया है।
निजता का उल्लंघन
- मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की अगुवाई वाली पाँच न्यायाधीशों की पीठ का हिस्सा न्यायमूर्ति चंद्रचूड वरिष्ठ वकील अरविंद डाटर की दलीलों पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि यौन उन्मुखीकरण (sexual orientation) का अधिकार पार्टनर चुनने के अधिकार के बिना व्यर्थ है।
- न्यायमूर्ति चंद्रचूड ने हाडिया मामले में मार्च 2018 में दिये गए अपने विचारों पर ध्यान आकर्षित किया, जिसमें कहा गया था कि न तो राज्य और न ही किसी पार्टनर के माता-पिता वयस्कों की पसंद के पक्ष को प्रभावित कर सकते हैं। यह निजता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगा।
- केरल की हिंदू लड़की हाडिया ने इस्लाम धर्म को अपनाते हुए एक मुस्लिम युवक से शादी करने का फैसला किया था।
अलग-अलग विचार
- मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने कहा कि यह जाँच का विषय है कि धारा 377 संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार), 19 (स्वतंत्रता का अधिकार) और 14 (समानता का अधिकार) के अनुरूप है। इस मामले में कुछ बिंदुओं पर न्यायाधीशों के दृष्टिकोण में भिन्नता दिखाई दी।
- न्यायमूर्ति चंद्रचूड ने कहा कि अदालत को केवल घोषणा तक ही सीमित नहीं होना चाहिये कि धारा 377 संवैधानिक थी या नहीं। इसमें सह-जीवन (co-habitation) आदि को शामिल करते हुए "कामुकता" (sexuality) की व्यापक अवधारणा की जाँच की जानी चाहिये|
- लेकिन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने कहा कि बेंच को सबसे पहले धारा 377 की संवैधानिकता पर विचार करना चाहिये।
क्या है मामला?
- आईपीसी की धारा 377 में अप्राकृतिक यौनाचार को अपराध माना गया है| इसमें 10 वर्ष से लेकर उम्रकैद और जुर्माने की सजा हो सकती है|
- सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएँ लंबित हैं जिनमें इस धारा की वैधानिकता और सुप्रीम कोर्ट के 2013 के फैसले को चुनौती दी गई है|
- इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाई कोर्ट के 2009 के फैसले को रद्द कर दिया था जिसमें दो वयस्कों द्वारा सहमति से एकांत में बनाए गए समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया था| हाई कोर्ट ने नाज फाउंडेशन की याचिका पर यह फैसला सुनाया था|