अभियुक्त को आवाज का नमूना देने का आदेश दिया जा सकता है: SC | 03 Aug 2019
चर्चा में क्यों?
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने नवीनतम फैसले में कहा कि एक व्यक्ति को अपराध जाँच के लिये आवाज़ का नमूना देने के लिये मज़बूर (compelled) किया जा सकता है।
प्रमुख बिंदु:
- आपराधिक प्रक्रिया संहिता में एक सदी से अधिक पुराने शून्य को भरने वाले एक ऐतिहासिक फैसले में, सर्वोच्च न्यायालय ने यह फैसला सुनाया कि एक व्यक्ति को अपराध जाँच के लिये आवाज़ का नमूना देने के लिये विवश किया जा सकता है और यह संविधान के अनुच्छेद 20 के तहत आत्म-दोषारोपण संबंधी मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं माना जाएगा।
- न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 20 (3) पर कोई प्रत्यक्ष अवलोकन नहीं दिया, जो एक अभियुक्त को खुद के खिलाफ गवाह बनने के लिये मज़बूर होने से बचाता है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने यह आदेश भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत जारी किया है।
- न्यायालय ने संसद से आपराधिक प्रक्रिया संहिता में अपेक्षित परिवर्तन करने का आह्वान किया है, ऐसा होने तक मजिस्ट्रेट के पास आदेश देने की शक्ति होगी।
- न्यायालय के अनुसार निजता के मौलिक अधिकार (अनुच्छेद 21) को निरपेक्ष नहीं माना जा सकता है और इसे सार्वजनिक हित के लिये सहज होना चाहिये।
अनुच्छेद 142
- जब तक किसी अन्य कानून को लागू नहीं किया जाता तब तक सर्वोच्च न्यायालय का आदेश सर्वोपरि।
- अपने न्यायिक निर्णय देते समय न्यायालय ऐसे निर्णय दे सकता है जो इसके समक्ष लंबित पड़े किसी भी मामले को पूर्ण करने के लिये आवश्यक हों और इसके द्वारा दिये गए आदेश सम्पूर्ण भारत संघ में तब तक लागू होंगे जब तक इससे संबंधित किसी अन्य प्रावधान को लागू नहीं कर दिया जाता है।
- संसद द्वारा बनाए गए कानून के प्रावधानों के तहत सर्वोच्च न्यायालय को सम्पूर्ण भारत के लिये ऐसे निर्णय लेने की शक्ति है जो किसी भी व्यक्ति की मौजूदगी, किसी दस्तावेज़ अथवा स्वयं की अवमानना की जाँच और दंड को सुरक्षित करते हैं।
यह अनुच्छेद इतना महत्त्वपूर्ण क्यों है?
- अनुच्छेद 142 सर्वोच्च न्यायालय का वह साधन है जिसके माध्यम से वह ऐसी महत्त्वपूर्ण नीतियों में परिवर्तन कर सकता है जो जनता को प्रभावित करती हैं।
- दरअसल, जब अनुछेद 142 को संविधान में शामिल किया गया था तो इसे इसलिये वरीयता दी गई थी क्योंकि सभी का यह मानना था कि इससे देश के विभिन्न वंचित वर्गों अथवा पर्यावरण का संरक्षण करने में सहायता मिलेगी।
- सर्वोच्च न्यायालय ने यूनियन कार्बाइड मामले को भी अनुच्छेद 142 से संबंधित बताया था।
- यह मामला भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों से जुड़ा हुआ है। इस मामले में न्यायालय ने यह महसूस किया कि गैस के रिसाव से पीड़ित हज़ारों लोगों के लिये मौज़ूदा कानून से अलग निर्णय देना होगा।
- इस निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पीड़ितों को 470 मिलियन डॉलर का मुआवज़ा दिलाए जाने के साथ न्यायालय द्वारा यह कहा गया था कि अभी पूर्ण न्याय नहीं हुआ है।
- न्यायालय के अनुसार, सामान्य कानूनों में शामिल की गई सीमाएँ अथवा प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत संवैधानिक शक्तियों के प्रतिबंध और सीमाओं के रूप में कार्य करते हैं। अपने इस कथन से सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं को संसद अथवा विधायिका द्वारा बनाए गए कानून से सर्वोपरि माना था।
- संयोग से इसी तथ्य को बाद में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ‘बार एसोसिएशन बनाम भारत संघ’ मामले में भी दोहराया गया।
- इस मामले में यह कहा गया कि इस अनुच्छेद का उपयोग मौज़ूदा कानून को प्रतिस्थापित करने के लिये नहीं, बल्कि एक विकल्प के तौर पर किया जा सकता है।
- हालाँकि हाल के वर्षों में सर्वोच्च न्यायालय ने कई ऐसे निर्णय दिये हैं जिनमें यह अनुच्छेद उन क्षेत्रों में भी हस्तक्षेप करता है जिन्हें न्यायालय द्वारा शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत के माध्यम से भुला दिया गया है। उल्लेखनीय है कि ‘शक्तियों के पृथक्करण’ का सिद्धांत भारतीय संविधान के मूल ढाँचे का एक भाग है।
- वस्तुतः इन सभी न्यायिक निर्णयों ने अनुच्छेद 142 के विषय में एक अलग ही विचार दिया। इन मामलों में व्यक्तियों के मूल अधिकारों को नजरअंदाज किया गया था।
- दरअसल, यह पाया गया है कि न्यायालय किसी निश्चित मामले में केवल अपना निर्णय सुनाता है परंतु वह उस निर्णय के दीर्घावधिक परिणामों से अनजान रहता है जिनके चलते उस व्यक्ति के मूल अधिकारों का भी उल्लंघन हो जाता है जो उस वक्त न्यायालय के समक्ष उपस्थित नहीं होता है।
यह सत्य है कि अनुच्छेद 142 को संविधान में इस उद्देश्य से शामिल किया गया था कि इससे जनसंख्या के एक बड़े हिस्से तथा वास्तव में राष्ट्र को लाभ प्राप्त होगा। इसके अतिरिक्त सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी माना था कि इससे सभी वंचित वर्गों के दुःख दूर हो जाएंगे; परंतु यह उचित समय है कि इस अनुच्छेद के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही पक्षों पर भी गौर किया जाए।