प्रारंभिक परीक्षा
प्रीलिम्स फैक्ट्स: 25 अप्रैल, 2020
देहिंग पटकाई वन्यजीव अभयारण्य
Dehing Patkai Wildlife Sanctuary
हाल ही में नेशनल बोर्ड फॉर वाइल्ड लाइफ (National Board for Wild Life- NBWL) ने असम में देहिंग पटकाई वन्यजीव अभयारण्य (Dehing Patkai Wildlife Sanctuary) के एक हिस्से सालेकी (Saleki) में कोयला खनन की सिफारिश की।
मुख्य बिंदु:
- नेशनल बोर्ड फॉर वाइल्ड लाइफ (NBWL) ने जुलाई 2019 में खनन क्षेत्र का आकलन करने के लिये एक समिति बनाई थी।
- नेशनल बोर्ड फॉर वाइल्ड लाइफ (NBWL) भारत सरकार के पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (Ministry of Environment, Forest and Climate Change- MoEFCC) के अंतर्गत कार्य करता है।
- सालेकी में कोयला खनन कोल इंडिया लिमिटेड (Coal India Limited) की एक इकाई नार्थ-ईस्टर कोल फील्ड (North-Easter Coal Field- NECF) द्वारा किया जायेगा।
- सालेकी, देहिंग पटकाई एलीफेंट रिज़र्व (Dehing Patkai Elephant Reserve) का एक हिस्सा है जिसमें देहिंग पटकाई वन्यजीव अभयारण्य के 111.19 वर्ग किमी क्षेत्र में फैले वर्षा वन और शिवसागर, डिब्रूगढ़ एवं तिनसुकिया ज़िलों में कई आरक्षित वन शामिल हैं।
देहिंग पटकाई वन्यजीव अभयारण्य
(Dehing Patkai Wildlife Sanctuary):
- देहिंग पटकाई वन्यजीव अभयारण्य असम के डिब्रूगढ़ और तिनसुकिया ज़िलों में स्थित है और 111.19 वर्ग किमी (42.93 वर्ग मील) वर्षा वन क्षेत्र को कवर करता है।
- यह असम घाटी के उष्णकटिबंधीय आर्द्र सदाबहार वन का एक हिस्सा है और इसमें तीन भाग- जेयपोर (Jeypore), ऊपरी देहिंग नदी (Upper Dehing River) और डिरोक वर्षावन (Dirok Rainforest) शामिल हैं।
- इसे जून, 2004 को एक अभयारण्य घोषित किया गया था। यह अभयारण्य देहिंग पटकाई एलीफेंट रिज़र्व का भी हिस्सा है।
- असम में वर्षा वन डिब्रूगढ़, तिनसुकिया और शिवसागर ज़िलों में 575 वर्ग किमी (222 वर्ग मील) से अधिक क्षेत्र में फैले हुए हैं।
- इन वनों के एक हिस्से को असम सरकार द्वारा वन्यजीव अभयारण्य के रूप में घोषित किया गया था जबकि एक अन्य हिस्सा डिब्रू डोमाली एलीफेंट रिज़र्व (Dibru Deomali Elephant Reserve) के अंतर्गत आता है।
- इन वर्षा वनों का विस्तार अरुणाचल प्रदेश के तिरप एवं चांगलांग ज़िलों में भी है। विस्तृत क्षेत्र और घने जंगलों के कारण इन वनों को अक्सर ‘पूर्व का अमेज़न’ कहा जाता है।
- उल्लेखनीय है कि देहिंग पटकाई भारत में उष्णकटिबंधीय तराई वर्षा वनों का सबसे बड़ा क्षेत्र है।
कृषि कल्याण अभियान
Krishi Kalyan Abhiyaan
23 अप्रैल, 2020 को केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री (Union Minister for Agriculture & Farmers Welfare) ने बताया कि कृषि कल्याण अभियान (Krishi Kalyan Abhiyaan) के तीसरे चरण में किसानों की आय दोगुनी करने हेतु विविध कृषि पद्यतियों के लिये लगभग 17 लाख किसानों को प्रशिक्षित करने की योजना बनाई गई है।
मुख्य बिंदु:
- कृषि कल्याण अभियान को देश के 112 आकांक्षी ज़िलों में लागू किया जा रहा है। कृषि कल्याण अभियान के अब तक दो चरण पूरे हो चुके हैं जिसमें 11.05 लाख किसानों को कृषि विज्ञान केंद्र (KVK) द्वारा प्रशिक्षित किया गया है।
- केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय ने वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने तथा कृषि की तकनीकों में सुधार करने के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए वर्ष 2018 में कृषि कल्याण अभियान (Krishi kalyan Abhiyaan) की शुरूआत की थी।
- कृषि कल्याण अभियान आकांक्षी ज़िलों (Aspirational Districts) के 1000 से अधिक आबादी वाले प्रत्येक 25 गाँवों में चलाया जा रहा है। इन गाँवों का चयन ग्रामीण विकास मंत्रालय ने नीति आयोग के दिशा-निर्देशों के अनुसार किया है।
- जिन ज़िलों में गाँवों की संख्या 25 से कम है, वहाँ के सभी गाँवों को (1000 से अधिक आबादी वाले) इस योजना के तहत कवर किया जा रहा है।
- एक ज़िले के 25 गाँवों में समग्र समन्वय और कार्यान्वयन उस ज़िले के कृषि विज्ञान केंद्र (Krishi Vigyan Kendra) द्वारा किया जा रहा है।
रिवर्स वैक्सीनोलॉजी
Reverse Vaccinology
हाल ही में ‘द तमिलनाडु डॉ. एम.जी.आर मेडिकल यूनिवर्सिटी’ (The Tamil Nadu Dr. MGR Medical University), चेन्नई ने ‘रिवर्स वैक्सीनोलॉजी’ (Reverse Vaccinology) के माध्यम से सार्स-CoV-2 (COVID-19) से निपटने के लिये एक संभावित वैक्सीन को विकसित करने का प्रयास किया है।
मुख्य बिंदु:
- शोध के पहले चरण में, एक सिंथेटिक पॉलीपेप्टाइड विकसित किया गया है जो वायरल जीनोम को बाँध सकता है और अनुसंधान के अगले चरण में जाने के लिये पूरी तरह से तैयार है। यह प्रक्रिया रिवर्स वैक्सीनोलॉजी (Reverse Vaccinology) कहलाती है।
- इसमें जैव सूचना विज्ञान का उपयोग करते हुए वायरल जीनोम अनुक्रम के साथ काम किया जाता है। जिसके तहत एक सिंथेटिक पॉलीपेप्टाइड की पहचान की गई है जो वायरल जीनोम को बाँध सकता है।
- अगले चरण में, ऊतक सेल लाइनों पर इस पॉलीपेप्टाइड का परीक्षण किया जाएगा।
- शोधकर्त्ताओं का मानना है कि यह केवल पहला चरण है किंतु अध्ययन से पता चला है कि यह वैक्सीन 70% तक सही है। किंतु इसको अंतिम चरण तक पहुँचने में अभी कम-से- कम एक वर्ष लगेगा।
- विश्व भर में, इससे पहले रिवर्स वैक्सीनोलॉजी का उपयोग करके मेनिंगोकोकल (Meningococcal) और स्टाफ्यलोकोकल (Staphylococcal) संक्रमणों के लिये वैक्सीन निर्मित की गई थी।
मोबाइल वायरोलॉजी रिसर्च एवं डायग्नोस्टिक्स लैबोरेटरी
Mobile Virology Research and Diagnostics Laboratory
भारत के रक्षा मंत्री (Defence Minister) ने 23 अप्रैल, 2020 को एक मोबाइल वायरोलॉजी रिसर्च एंड डायग्नोस्टिक्स लैबोरेटरी (Mobile Virology Research and Diagnostics Laboratory- MVRLL) का वीडियो काॅन्फ्रेंसिंग के जरिये उद्घाटन किया।
मुख्य बिंदु:
- इस मोबाइल वायरोलॉजी रिसर्च लैब का विकास रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (Defence Research and Development Organisation- DRDO) ने हैदराबाद के ESIC हॉस्पिटल, और निजी उद्योगों के साथ मिलकर विकसित किया है।
- MVRDL जैव-सुरक्षा स्तर (Bio-Safety Level) अर्थात् BSL-3 लैब और BSL-2 लैब का संयोजन है और इसे 15 दिनों के रिकॉर्ड समय में तैयार किया गया है। यह एक दिन में 1000-2000 नमूनों की जाँच कर सकता है।
- यह मोबाइल वायरोलॉजी रिसर्च लैब COVID-19 के निदान और वायरस संवर्द्धन में ड्रग स्क्रीनिंग हेतु, प्लाज्मा थेरेपी, टीके के प्रति रोगियों की व्यापक प्रतिरक्षा प्रोफाइलिंग आदि में सहायक होगी।
- यह लैबोरेटरी विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organisation- WHO) और भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (Indian Council of Medical Research- ICMR) के जैव सुरक्षा मानकों का अनुपालन करती है ताकि अंतर्राष्ट्रीय दिशा-निर्देशों को पूरा किया जा सके।
- इस तरह के पहले MVRDL को ‘ESIC हॉस्पिटल’ के परामर्श से हैदराबाद के रिसर्च सेंटर इमरत (Research Centre Imarat- RCI) द्वारा विकसित किया गया था। इसे देश में कहीं भी स्थापित किया जा सकता है।
रिसर्च सेंटर इमरत
(Research Centre Imarat- RCI):
- रिसर्च सेंटर इमरत (RCI) हैदराबाद में स्थित एक DRDO प्रयोगशाला है।
- यह प्रयोगशाला मिसाइल सिस्टम, गाइडेड हथियार और भारतीय सशस्त्र बलों के लिये उन्नत एवियोनिक्स (Avionics) के अनुसंधान एवं विकास में अहम भूमिका निभाती है।
- इसकी स्थापना डाॅ. एपीजे अब्दुल कलाम ने वर्ष 1988 में की थी।