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  • 31 Dec, 2020
  • 11 min read
सामाजिक न्याय

जैव विविधता संरक्षण और जनजातीय आबादी

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में वनों पर आश्रित आदिवासी समुदायों की चुनौतियों और वन अधिकार अधिनियम, 2006 के शिथिल कार्यान्वयन व इससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ:   

भारत अपनी विशाल आबादी और विकास की चुनौतियों के बावजूद वन्यजीवों की एक वृहत विविधता का संरक्षण करने में सफल रहा है। प्रकृति के प्रति स्थानीय समुदायों की आस्था सरकार की निरंतर सफलता और अन्य एजेंसियों द्वारा किये गए संरक्षण के प्रयासों के कारण महत्त्वपूर्ण रही है। हालाँकि सरकार द्वारा चलाए जा रहे संरक्षण के प्रयासों ने आदिवासी लोगों के मन में उस भूमि को खोने का भय उत्पन्न कर दिया है जिस पर वे दशकों से रहते आए थे। 

इस संदर्भ में ‘वन अधिकार अधिनियम,2006’ का उचित कार्यान्वयन आवश्यक है, क्योंकि यह अधिनियम आदिवासी लोगों के हितों की रक्षा करने के साथ ही उनके जीवन और आजीविका के अधिकार तथा पर्यावरण संरक्षण के अधिकार के बीच संतुलन स्थापित करने की परिकल्पना करता है।

संरक्षण में आदिवासी लोगों की भूमिका:    

  • प्राकृतिक वनस्पतियों का संरक्षण:  आदिवासी समुदायों द्वारा पेड़ों को देवी-देवताओं के निवास स्थान के रूप में देखे जाने से जुड़ा धार्मिक विश्वास वनस्पतियों के प्राकृतिक संरक्षण को बढ़ावा देता है।    
    • इसके अलावा, कई फसलों, जंगली फलों, बीज, कंद-मूल आदि विभिन्न प्रकार के पौधों का जनजातीय और आदिवासी लोगों द्वारा संरक्षण किया जाता है क्योंकि वे अपनी खाद्य ज़रूरतों के लिये इन स्रोतों पर निर्भर हैं।
  • पारंपरिक ज्ञान का अनुप्रयोग:  आदिवासी लोग और जैव विविधता एक-दूसरे के पूरक हैं। 
    • समय के साथ ग्रामीण समुदायों ने औषधीय पौधों की खेती और उनके प्रचार के लिये आदिवासी लोगों के स्वदेशी ज्ञान का उपयोग  किया है।
    • इन संरक्षित पौधों में कई साँप और बिच्छू के काटने या टूटी हड्डियों व आर्थोपेडिक उपचार के लिये प्रयोग में लाए जाने पौधे भी शामिल हैं। 

आदिवासी समुदाय की चुनौतियाँ: 

  • प्रकृति और स्थानीय लोगों के बीच व्यवधान: जैव विविधता की रक्षा हेतु आदिवासी लोगों को उनके प्राकृतिक आवास से अलग करने से जुड़ा दृष्टिकोण ही उनके और संरक्षणवादियों के बीच संघर्ष का मूल कारण है।  
    • किसी भी प्राकृतिक आवास को एक विश्व धरोहर स्थल (World Heritage Site) के रूप में चिह्नित किये जाने के  साथ ही यूनेस्को (UNESCO) उस क्षेत्र के संरक्षण का प्रभार ले लेता है। 
    • यह संबंधित क्षेत्रों में बाहरी लोगों और तकनीकी उपकरणों के प्रवेश (संरक्षण के उद्देश्य से) को बढ़ावा देता है, जो स्थानीय लोगों के जीवन को बाधित करता है। 
  • वन अधिकार अधिनियम का शिथिल कार्यान्वयन: वन अधिकार अधिनियम (FRA) को लागू करने में भारत के कई राज्यों का प्रदर्शन बहुत ही निराशाजनक रहा है।
    • इसके अलावा विभिन्न संरक्षण संगठनों द्वारा FRA की संवैधानिकता को कई बार उच्चतम न्यायालय में चुनौती भी दी गई है।
      • एक याचिकाकर्त्ता द्वारा उच्चतम न्यायालय में यह तर्क दिया गया कि क्योंकि संविधान के अनुच्छेद-246 के तहत भूमि को राज्य सूची का विषय माना गया है, ऐसे में FRA को लागू करना संसद के अधिकार क्षेत्र के बाहर है।
  • विकास बनाम संरक्षण: अधिकांशतः ऐसा देखा गया है कि सरकार द्वारा विकास के नाम पर बाँध, रेलवे लाइन, सड़क विद्युत संयंत्र आदि के निर्माण के लिये आदिवासी समुदाय के पारंपरिक प्रवास क्षेत्र की भूमि को ले लिये जाता है।
    • इसके अलावा इस प्रकार के विकास कार्यों के लिये आदिवासी लोगों को उनकी भूमि से ज़बरन हटाने से पर्यावरण को क्षति होने के साथ-साथ मानव अधिकारों का उल्लंघन होता है।  
  • भूमि का अवैध अतिक्रमण: सरकारी आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 1980 में वन संरक्षण अधिनियम के लागू होने के पहले लगभग 43 लाख हेक्टेयर भूमि पर कानूनी अथवा गैर-कानूनी तरीके से अतिक्रमण किया जा चुका था।

वन अधिकार अधिनियम (FRA):

  • वर्ष 2006 में भारतीय वन संरक्षण परिदृश्य में व्यापक बदलाव देखने को मिला जब वन अधिकार अधिनियम के माध्यम से आदिवासियों को स्थानीय उपयोग से आगे बढ़ते हुए वन्य भूमि और वनोत्पाद पर अधिकार प्रदान किया गया।
    • इस अधिनियम के कार्यान्वयन का उत्तरदायित्त्व केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्रालय को सौंपा गया, जबकि संरक्षण का कार्य केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के अधीन ही रहा।
  • वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) कानून का उद्देश्य व्यक्तिगत अधिकारों के माध्यम से खेती और आवास के लिये भूमि की सुरक्षा करते हुए वनवासी समुदायों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय (जिसका सामना उन्हें लगभग 150 वर्षों तक करना पड़ा ) को दूर करना है।
  • यह 12  से अधिक प्रकार के सामुदायिक वन अधिकारों के माध्यम से वनवासी समुदायों को विभिन्न संसाधनों तक पहुँच प्रदान करता है।
  • FRA वनवासी समुदायों को ऐसे किसी भी सामुदायिक वन संसाधन की रक्षा, पुनर्जीवन, संरक्षण और प्रबंधन का अधिकार देता है, जिसे वे स्थायी उपयोग के लिये पारंपरिक रूप से सुरक्षित और संरक्षित करते रहे हैं।    
  • इसमें संरक्षित क्षेत्रों के भीतर ‘महत्त्वपूर्ण वन्यजीव आवास’ को चिह्नित करने का प्रावधान है जो वर्तमान में देश के मौजूदा कानूनों में  संरक्षण का सबसे मज़बूत प्रावधान है।
  • FRA के तहत वनों के संदर्भ में किसी नए क्लियरेंस को मंज़ूरी नहीं दी जाती है, क्योंकि भूमि पर व्यक्तिगत अधिकार केवल तभी दिया जाएगा जब व्यक्ति (वनवासी) के पास 13 दिसंबर, 2005 को संबंधित भू-भाग का स्वामित्व रहा हो।

आगे की राह:  

  • आदिवासी लोगों के अधिकारों को मान्यता: किसी भी क्षेत्र की बहुमूल्य जैव विविधता के संरक्षण के लिये वनों पर निर्भर रहने वाले वनवासियों के अधिकारों को मान्यता देना उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना कि विश्व धरोहर के रूप में किसी प्राकृतिक निवास स्थान को चिह्नित करना। 
  • वन अधिकार अधिनियम का प्रभावी कार्यान्वयन: सरकार को वनवासियों के साथ देश के बाकी सभी लोगों के समान ही व्यवहार करते हुए अपनी एजेंसियों और लोगों के प्रति उनका विश्वास मज़बूत करने का प्रयास करना चाहिये। 
    • वर्तमान में वन अधिकार अधिनियम में व्याप्त कई कमियों की पहचान की जा चुकी है, ऐसे में सरकार को शीघ्र ही इनको दूर करने की दिशा में आवश्यक कदम उठाने चाहिये।
  •  जैव विविधता अधिनियम-2002 में जैव संसाधनों के प्रयोग और इससे जुड़ी महत्त्वपूर्ण जानकारी से होने वाले लाभ को आदिवासी समुदायों के साथ समान रूप से साझा करने की बात कही गई है।
    • ऐसे में सभी हितधारकों को यह समझना होगा कि आदिवासी लोगों का पारंपरिक ज्ञान जैव विविधता संरक्षण को अधिक प्रभावी बनाने का एक उपयुक्त विकल्प है।
  • आमतौर पर आदिवासी लोगों को सबसे अच्छा संरक्षणवादी माना जाता है, क्योंकि वे आध्यात्मिक रूप से प्रकृति से अधिक जुड़ाव रखते हैं। 
    • उच्च जैव विविधता के क्षेत्रों के संरक्षण का सबसे सस्ता और तेज़ तरीका आदिवासी लोगों के अधिकारों का सम्मान करना है।

निष्कर्ष:  

आदिवासी लोग संरक्षण प्रक्रिया के अभिन्न अंग हैं क्योंकि वे प्रकृति से अधिक एकीकृत और आध्यात्मिक तरीके से जुड़ पाते हैं, आदिवासी  लोगों के लिये सम्मान की भावना विकसित करने की आवश्यकता है क्योंकि वन्य क्षेत्रों में आदिवासियों की उपस्थिति जैव विविधता के संरक्षण में सहायक होती है। 

अभ्यास प्रश्न: पर्यावरण और जैव विविधता के संरक्षण में आदिवासी लोगों की भूमिका और चुनौतियों पर चर्चा कीजिये।


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