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एडिटोरियल

  • 31 Jul, 2019
  • 15 min read
शासन व्यवस्था

पोषण एवं शिक्षा के मध्य संबंध

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण शामिल है। इस आलेख में बच्चों में अधिगम क्षमता के विकास के लिये ‘प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल एवं शिक्षा’ की चर्चा की गई है, साथ ही इसमें शिक्षा हेतु पोषण स्तर की भूमिका के बारे में भी उल्लेख किया गया है तथा आवश्यकतानुसार यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ

हाल में जारी प्रारूप नई शिक्षा नीति (NEP), 2019 बाल्यावस्था अधिगम (Learning) व विकास को वृहत संवेग प्रदान कर भारत के शिक्षा क्षेत्र में सुधार का उद्देश्य रखती है। इस नीति में छोटे बच्चों के लिये एक व्यापक कार्यक्रम आरंभ करने की सिफारिश की गई है जिसे ‘प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल एवं शिक्षा’ (Early Childhood Care and Education- ECCE) कहा गया है। इसने ECCE का कार्यान्वयन एक रणनीतिक दृष्टिकोण के आधार पर करने का प्रस्ताव किया है जो NCERT द्वारा प्रारंभिक बाल्यावस्था की शिक्षा के लिये एक उत्कृष्ट पाठ्यक्रम और शैक्षणिक ढाँचा विकसित करने पर केंद्रित हो। साथ ही इसकी पहुँच प्रारंभिक बाल्यावस्था के लिये शैक्षणिक संस्थानों की एक विस्तृत और सशक्त प्रणाली के माध्यम से मुमकिन की जाए। इसके अतिरिक्त प्रशिक्षित शिक्षकों के माध्यम से शिक्षा प्रदान करने के लिये एक कुशल तंत्र का विकास किया जाएगा। ‘प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल एवं शिक्षा’ को सार्वभौमिक बनाने के लिये प्रारूप नई शिक्षा नीति ने इसे शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 में समाविष्ट करने की सिफारिश की है।

‘प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल एवं शिक्षा’

(Early Childhood Care and Education- ECCE)

उद्देश्य

वर्ष 2025 तक 3 से 6 वर्ष की आयु के प्रत्येक बच्चे के लिये मुफ्त, सुरक्षित, उच्च गुणवत्तापूर्ण, विकासात्मक स्तर के अनुरूप देखभाल और शिक्षा की पहुँच को सुनिश्चित करना।

प्रावधान

  • तीन वर्ष से पहले की उम्र के दौरान गुणवत्तापूर्ण ECCE में माँ और बच्चे दोनों के स्वास्थ और पोषण पर ध्यान देना आवश्यक है।
  • इस कार्यक्रम के दो भाग होंगे, पहला भाग 0-3 वर्ष की आयु वर्ष के बच्चों हेतु दिशा-निर्देशों की रुपरेखा से संबंधित होगा। इस आयु वर्ग के शिशुओं और बच्चों में उचित संज्ञानात्मक उद्दीपन पैदा करने हेतु माता-पिता तथा आँगनवाड़ी कार्यकर्त्ताओं का उपयोग किया जाएगा।
  • दूसरा भाग 3-8 वर्ष की आयु-वर्ग के बच्चों (बुनियादी स्तर) से जुड़े शैक्षणिक रुपरेखा से संबंधित होगा। यह भाग अभिभावकों के साथ-साथ आँगनवाड़ी केंद्रों, पूर्व-प्राथमिक स्कूलों तथा कक्षा 1 और 2 के बच्चों के उपयोग के लिये होगा। इसके अंतर्गत एक लचीली, बहुस्तरीय, खेल, गतिविधि और शोध-आधारित सीखने की प्रणाली विकसित करने पर ज़ोर दिया जाएगा, जिसका उद्देश्य छोटे बच्चों को अक्षरों, संख्याओं, स्थानीय भाषा/मातृ-भाषा आदि सिखाने पर ज़ोर दिया जाएगा। इसके साथ ही जिज्ञासा, धैर्य, टीम-वर्क, सहयोग, संवाद और समानुभूति जैसे सामाजिक-भावनात्मक कौशलों का विकास भी करना होगा जो स्कूल जाने से पूर्व की तैयारी की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।
  • शैक्षिक घटक को बल प्रदान करने के लिये आँगनवाड़ी प्रणाली को मज़बूत करना।
  • आँगनवाड़ी केंद्रों तथा पूर्व प्राथमिक पाठशालाओं को प्राथमिक स्कूलों के साथ स्थापित करना।

अधिगम संकट (Learning Crisis)

अधिगम संकट की स्थिति तब उत्पन्न होती है जब किसी बच्चे के अधिगम परिणाम उसकी अपेक्षित शैक्षणिक योग्यता के अनुरूप नहीं होते। नई शिक्षा नीति के मसौदे के अनुसार, अधिगम संकट बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा के अंतराल में निहित होता है जो सीखने की क्षमता और विद्यालय में प्रवेश हेतु योग्यता के आधार का निर्माण करता है। नई शिक्षा नीति ने विद्यमान प्रणाली में अधिगम संकट के अस्तित्व की पहचान की है। वस्तुतः राष्ट्रीय उपलब्धि सर्वेक्षण (National Achievement Survey- NAS), 2014 के निष्कर्षों से इसकी पुष्टि हुई है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा 1,10,000 विद्यालयों को दायरे में लेते हुए कराए गए इस सर्वेक्षण में भाषा और गणित विषय में तीसरी कक्षा के छात्रों का राष्ट्रीय औसत प्रतिशत अंक क्रमशः मात्र 64 प्रतिशत और 66 प्रतिशत रहा जो गंभीर अधिगम योग्यता की कमी का संकेत देता है।

अधिगम संकट-कारक

  • ऐतिहासिक रूप से भारत की शिक्षा प्रणाली अधिकांशतः विद्यालय में प्रवेश पूर्व की अधिगम योग्यता और देखभाल के लिये उत्तरदायी नहीं रही है। भारत में प्राथमिक विद्यालय में प्रवेश के बाद से अधिगम परिणामों पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। आँगनवाड़ी केंद्रों में आयोजित बुनियादी शिक्षण गतिविधियों के अतिरिक्त बच्चों को उनकी प्रारंभिक बाल्यावस्था में आधारभूत ज्ञान प्रदान करने की एक मज़बूत अवसंरचना प्रायः अनुपस्थित ही रही है।
  • अल्पपोषण की समस्या बदतर अधिगम परिणामों और उत्पादकता की हानि, दोनों ही अर्थों में उच्च आर्थिक लागत का कारण बनती है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (2015-16) के आँकड़े स्टंटेड (आयु अनुरूप छोटा कद), वेस्टेड (कद अनुरूप कम वज़न) और अंडरवेट (आयु अनुरूप कम वज़न) बच्चों के संबंध में क्रमशः 38.4 प्रतिशत, 21 प्रतिशत और 35.8 प्रतिशत के अनुपात के साथ एक निराशाजनक रुझान दर्शाते हैं। यह गंभीर चिंताजनक परिदृश्य है। इसलिये बच्चों के आधारभूत विकास के लिये शिक्षा और पोषण के बीच एक मजबूत गठजोड़ का होना अति आवश्यक है। 0-6 वर्ष की आयु वर्ग के भारत के 158.79 मिलियन बच्चे और भी अधिक संकटपूर्ण स्थिति में हैं। उनका सामना अधिगम योग्यता में भारी कमी और अल्पपोषण की दोधारी तलवार से हो रहा है।

अधिगम सुधार आवश्यक क्यों ?

प्रारूप नीति ने न्यूरोसाइंस के साक्ष्य के आधार पर इस बात को स्वयं चिह्नित किया है कि बच्चे के मस्तिष्क का 85 प्रतिशत विकास 6 वर्ष की आयु से पहले हो जाता है। आरंभिक बाल्यावस्था की शिक्षा में निवेश करना इसलिये भी आवश्यक है कि तब बच्चे की शिक्षा में किये गए निवेश का भविष्य में दस गुना लाभ पाया जा सकता है। शैक्षणिक परिणामों और अधिगम पर पर्याप्त ध्यान देना भविष्य की पीढ़ियों और अर्थव्यवस्था की उत्पादकता में निवेश करना है। इसके अतिरिक्त बच्चों के सीखने की क्षमता शैक्षणिक स्तर एवं भविष्य की संभावनाओं को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है। सरकार के लिये यह आवश्यक है कि बच्चों के शारीरिक एवं मानसिक विकास पर ध्यान दे ताकि लेवल प्लेइंग फ़ील्ड का निर्माण किया जा सके जिससे सभी के लिये अवसरों को समावेशी बनाया जा सकेगा।

थाईलैंड का समेकित पोषण और समुदाय विकास कार्यक्रम- केस स्टडी

विकासशील देशों में कई राष्ट्रीय कार्यक्रम योजनाओं का मुख्य उद्देश्य है- गरीबी उन्मूलन। थाईलैंड में गरीबी का उन्मूलन करने के लिये एक कार्यक्रम के साथ-साथ समुदाय आधारित प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा (Primary Health Care), पोषण शिक्षा, पूरक आहार और बच्चों की शारीरिक वृद्धि जैसे कार्यक्रम को भी जोड़ा गया। पोषण शिक्षा के बाद अंतःवैयक्तिक और मनो-सामाजिक ब्योरों, खासतौर से पालनकर्त्ता और बाल गतिविधियों, की ओर ध्यान दिया जाता था। ये सभी गतिविधियाँ समुदाय की संस्कृति के मूल्यों व परंपराओं के अनुकूल थीं, जिसके कारण परायेपन की भावना पैदा नहीं होती थी। स्वास्थ्य व पोषण संबंधी संदेशों को देने के लिये वीडियों कैसेटों का प्रयोग किया जाता था जिससे निरक्षर माताएँ भी आसानी से इन संदेशों को ग्रहण कर सकीं। इस प्रकार कार्यक्रम के परिचालन की लागत कम रही, साथ ही यह कार्यक्रम सफल सिद्ध हुआ।

उपाय

प्रारूप नई शिक्षा नीति इस दिशा में बढ़ाया गया उपयुक्त कदम है। बेहतर शैक्षणिक प्रदर्शन के लिये शिक्षा में निवेश एक आवश्यक शर्त है लेकिन इतना भर ही पर्याप्त नहीं है। अभिप्राय यह है कि शैक्षणिक परिणामों से संबद्ध स्वास्थ्य व पोषण जैसे कारकों पर ध्यान दिये बिना अधिगम योग्यता में कमी को संबोधित करने के प्रयास अपेक्षित परिणाम नहीं देंगे। बच्चों के सुपोषण और उनकी शैक्षणिक उपलब्धियों के बीच के अंतर्संबंध को लेकर विश्व में पर्याप्त अध्ययन हुआ है। पोषण की कमी बच्चे के मानसिक, शारीरिक और संज्ञानात्मक विकास को प्रभावित करती है, उनकी प्रतिरक्षण क्षमता को कम करती है और इसका उनके अधिगम परिणामों पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है। शिक्षा में किसी भी सुधार के वास्तविक रूप से प्रभावी होने के लिये आवश्यक होगा कि आगे बढ़ने का रास्ता ठोस, सहयोगात्मक और बहुआयामी हो जहाँ आधारभूत शिक्षा एवं स्वास्थ्य व पोषण, दोनों पर समान ध्यान केंद्रित किया जाए। निश्चय ही यह एक महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य है। प्रारंभिक बाल्यावस्था में अधिगम और पोषण, दोनों को साथ लेकर आगे बढ़ने वाली व्यापक नीति ही सबसे उपयुक्त होगी। इस दृष्टिकोण से प्रारूप नीति एक सराहनीय कदम है और यह छोटे बच्चों के लिये आधारभूत साक्षरता व अंक-ज्ञान का एक ढाँचा प्रदान करती है। इसके साथ-साथ एक एकीकृत बाल विकास योजना (Integrated Child Development Scheme) की भी आवश्यकता है ताकि संतुलित आहार, पूरक आहार और शारीरिक अभ्यासों के माध्यम से पर्याप्त पोषण संबंधी सहायता प्रदान की जा सके जो नई शिक्षा नीति के उद्देश्यों की पूर्ति में सहयोग करेगा। आरंभिक बाल्यावस्था के शुरुआती चरण में किया गया निवेश भविष्य में एक स्वस्थ व उत्पादक कार्यशील आबादी के सृजन के रूप में दीर्घकालिक लाभ देगा।

निष्कर्ष

प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा ऐसी होनी चाहिये जो बच्चों की सुरक्षा, भोजन, स्वास्थ्य देखभाल जैसी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके, साथ ही उनको स्नेह, रक्षा, प्रेरण और सीखने के अवसर भी प्रदान करे। उच्च कोटि की प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल एवं शिक्षा यह सुनिश्चित करती है कि बच्चे अपनी पूर्ण क्षमता विकसित कर सकें और बड़े होकर उत्पादनशील मानव बन सकें। इसके अतिरिक्त संयुक्त परिवार से नाभिकीय परिवार में बदलता पारिवारिक ढाँचा, प्रवास और बढ़ती हुई संख्या में महिलाओं का घर से बाहर निकलकर काम पर जाना आदि कारकों के कारण प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा कार्यक्रम एक प्रासंगिक मुद्दा बन गया है। यह अत्यावश्यक है कि भारत अपने बच्चों की आरंभिक आयु के दौरान उचित देखभाल करे। ऐसा सिर्फ आर्थिक कारणों से ही नहीं बल्कि सामाजिक न्याय और मानव अधिकारों के दृष्टिकोण से भी किया जाना चाहिये, क्योंकि प्रत्येक बच्चे का अधिकार है कि उसकी देखभाल उचित ढंग से हो। प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल एवं शिक्षा के कार्यक्रम पोषण, स्वास्थ्य और शिक्षा सेवाओं में खंडित न होकर, समग्र स्वरूप के होने चाहिये।

प्रश्न: उचित पोषण स्तर बच्चों में अधिगम क्षमता के निर्माण हेतु क्यों ज़रूरी है? ‘प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल एवं शिक्षा’ अधिगम क्षमता के विकास में किस प्रकार योगदान दे सकती है?


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