अंतर्राष्ट्रीय संबंध
इज़राइल-फिलिस्तीन संघर्ष
इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में इज़राइल-फिलिस्तीन संघर्ष से संबंधित विभिन्न महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।
संदर्भ:
वैश्विक परिदृश्य में संघर्ष का इतिहास अत्यंत पुराना है जहाँ मानव हड़प्पा काल से ही अपनी सामरिक और भू-राजनीतिक शक्तियों को लेकर संघर्ष के मार्ग का चयन करता आ रहा है। ये सामरिक व्यवस्थाएँ काल पर्यंत अपने स्वरूप और आयामों को बदलती रहीं, इसमें कभी सामरिक बढ़त के लिये संघर्ष किया गया तो कभी धार्मिक, नस्लीय उन्माद जैसे उत्प्रेरक बलों की संवेदना से प्रभावित मानव ने संघर्ष के मार्ग को अनवरत जारी रखा। उदाहरणस्वरूप शक-सातवाहन जैसे संघर्ष कई शादाब्दियों तक अनवरत जारी रहे तथा आज भी इन विजयों को अतिसम्मान की दृष्टि से देखा जाता है किंतु हम इन्हीं उपलब्धियों के परिप्रेक्ष्य में यह भूल जाते हैं कि इन संघर्षों की पृष्ठभूमि में मानव ने मानवता को कुचलकर अपनी कुछ क्षुद्र महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति की है। इसके विपरीत सम्राट अशोक द्वारा युद्ध का मार्ग छोड़कर बौद्ध धर्म को अंगीकार करने जैसे उदाहरण भी इतिहास में संकलित हैं लेकिन इन उदाहरणों की संख्या कम होने के साथ ही इनको लेकर वर्तमान मानव की भावनाओं की प्रबलता भी धीमी है। ऐतिहासिकता की इस पृष्ठभूमि में मानव संघर्षों के उन्मूलन हेतु स्थापित विनियमन और संस्थाओं की उपस्थिति के बावजूद इज़राइल-फिलिस्तीन संघर्ष जैसे मानवता की प्रगति को सीमित करने वाले उदाहरण बने हुए हैं।
वर्तमान परिदृश्य:
हाल ही में अमेरिका द्वारा मध्य पूर्व शांति योजना (Middle East Peace Plan) की घोषणा की गई थी। अमेरिका द्वारा घोषित इस इस योजना का मुख्य उद्देश्य इज़राइल-फिलिस्तीन संघर्ष से संबंधित विभिन्न मुद्दों जैसे- इज़राइल की सीमा, फिलिस्तीनी शरणार्थियों की स्थिति, सुरक्षा संबंधी चिंताएँ और येरुशलम आदि को संबोधित कर क्षेत्र विशेष में शांति स्थापित करना है। जहाँ एक ओर इज़राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने इस शांति योजना को ‘स्थायी शांति का यथार्थवादी मार्ग बताया है, वहीं फिलिस्तीन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास ने इसे ‘साजिश’ करार देते हुए इसका विरोध किया है और इसके जवाब में फिलिस्तीन ने स्वयं को ओस्लो समझौते से अलग कर लिया है।
अमेरिका की मध्य पूर्व शांति योजना
- येरुशलम पर इज़राइल और फिलिस्तीन दोनों ही अपना-अपना दावा प्रस्तुत करते हैं और दोनों ही उसे छोड़ने को तैयार नहीं हैं। अमेरिका की शांति योजना के अनुसार, येरुशलम को विभाजित नहीं किया जाएगा और यह ‘इज़राइल की संप्रभु राजधानी’ होगी।
- शांति योजना के अनुसार, फिलिस्तीन येरुशलम के पूर्व में अपनी राजधानी स्थापित करेगा, जिसका नाम बदलकर ‘अल कुद्स’ (Al Quds) रखा जा सकता है, जो कि येरुशलम का अरबी अनुवाद है।
- योजना के मुताबिक, ‘येरुशलम की पवित्र धरती उसी मौजूदा शासन व्यवस्था (यानी इज़राइल) के अधीन होगी’ और ‘इसे सभी धर्मों के शांतिपूर्ण उपासकों एवं पर्यटकों के लिये खुला रखा जाएगा’।
- फिलीस्तीनी क्षेत्र के अंदर स्थित इज़राइली इलाके इज़राइल राज्य का हिस्सा बन जाएंगे और एक प्रभावी परिवहन प्रणाली के माध्यम से उन्हें इज़राइल से जोड़ा जाएगा। वेस्ट बैंक में अवैध इज़राइली बस्तियों को कानूनी और स्थायी बनाने का विचार फिलीस्तीनी सरकार के लिये एक चिंता का विषय है।
- शांति योजना के अनुसार, जॉर्डन घाटी जो कि इज़राइल की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, इज़राइल की संप्रभुता के तहत बनी रहेगी।
- यदि फिलीस्तीन इस योजना को स्वीकार करता है तो अमेरिका वहाँ आगामी 10 वर्षों में 50 बिलियन डॉलर का निवेश करेगा, जिसे वहाँ के निजी क्षेत्र के विकास को बढ़ावा मिलेगा तथा शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार हो सकेगा, इससे फिलीस्तीन के नागरिकों के जीवन स्तर की गुणवत्ता भी सुधरेगी।
- अमेरिका द्वारा प्रस्तुत शांति योजना प्रथम दृष्टया इज़राइल के पक्ष में झुकी हुई दिखाई देती है, जिसके कारण फिलीस्तीन ने इसका समर्थन करने से इनकार कर दिया है।
ओस्लो समझौता
- ओस्लो समझौता 1990 के दशक में इज़राइल और फिलीस्तीन के बीच हुए समझौतों की एक शृंखला है।
- पहला ओस्लो समझौता वर्ष 1993 में हुआ जिसके अंतर्गत इज़राइल और फिलिस्तीन मुक्ति संगठन ने एक-दूसरे को आधिकारिक मान्यता देने तथा हिंसक गतिविधियों को त्यागने पर सहमति प्रकट की। ओस्लो समझौते के तहत एक फिलिस्तीनी प्राधिकरण की भी स्थापना की गई थी। हालाँकि इस प्राधिकरण को गाजा पट्टी और वेस्ट बैंक के भागों में सीमित स्वायत्तता ही प्राप्त हुई थी।
- इसके पश्चात् वर्ष 1995 में दूसरा ओस्लो समझौता किया गया जिसमें वेस्ट बैंक के 6 शहरों और लगभग 450 कस्बों से इज़राइली सैनिकों की पूर्ण वापसी का प्रावधान शामिल था।
इज़राइल-फिलिस्तीन संघर्ष की पृष्ठभूमि
- इज़राइल और फिलिस्तीन के मध्य संघर्ष का इतिहास लगभग 100 वर्ष पुराना है, जिसकी शुरुआत वर्ष 1917 में उस समय हुई जब तत्कालीन ब्रिटिश विदेश सचिव आर्थर जेम्स बल्फौर ने ‘बल्फौर घोषणा’ (Balfour Declaration) के तहत फिलिस्तीन में एक यहूदी ‘राष्ट्रीय घर’ (National Home) के निर्माण के लिये ब्रिटेन का आधिकारिक समर्थन व्यक्त किया।
- अरब और यहूदियों के बीच संघर्ष को समाप्त करने में असफल रहे ब्रिटेन ने वर्ष 1948 में फिलिस्तीन से अपने सुरक्षा बलों को हटा लिया और अरब तथा यहूदियों के दावों का समाधान करने के लिये इस मुद्दे को नवनिर्मित संगठन संयुक्त राष्ट्र (UN) के विचारार्थ प्रस्तुत किया।
- संयुक्त राष्ट्र ने फिलिस्तीन में स्वतंत्र यहूदी और अरब राज्यों की स्थापना करने के लिये एक विभाजन योजना (Partition Plan) प्रस्तुत की जिसे फिलिस्तीन में रह रहे अधिकांश यहूदियों ने स्वीकार कर लिया किंतु अरबों ने इस पर अपनी सहमति प्रकट नहीं की।
- वर्ष 1948 में यहूदियों ने स्वतंत्र इज़राइल की घोषणा कर दी और इज़राइल एक देश बन गया, इसके परिणामस्वरूप आस-पास के अरब राज्यों (इजिप्ट, जॉर्डन, इराक और सीरिया) ने इज़राइल पर आक्रमण कर दिया। युद्ध के अंत में इज़राइल ने संयुक्त राष्ट्र की विभाजन योजना के आदेशानुसार प्राप्त भूमि से भी अधिक भूमि पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया।
- इसके पश्चात् दोनों देशों के मध्य संघर्ष तेज़ होने लगा और वर्ष 1967 में प्रसिद्ध ‘सिक्स डे वॉर’ (Six-Day War) हुआ, जिसमें इज़राइली सेना ने गोलन हाइट्स, वेस्ट बैंक तथा पूर्वी येरुशलम को भी अपने अधिकार क्षेत्र में कर लिया।
- वर्ष 1987 में मुस्लिम भाईचारे की मांग हेतु फिलिस्तीन में ‘हमास’ नाम से एक हिंसक संगठन का गठन किया गया। इसका गठन हिंसक जिहाद के माध्यम से फिलिस्तीन के प्रत्येक भाग पर मुस्लिम धर्म का विस्तार करने के उद्देश्य से किया गया था।
- समय के साथ वेस्ट बैंक और गाजा पट्टी के अधिगृहीत क्षेत्रों में तनाव व्याप्त हो गया जिसके परिणामस्वरूप वर्ष 1987 में प्रथम इंतिफादा (Intifida) अथवा फिलिस्तीन विद्रोह हुआ, जो कि फिलिस्तीनी सैनिकों और इज़राइली सेना के मध्य एक छोटे युद्ध में परिवर्तित हो गया।
दोनों देशों के बीच विवाद
- वेस्ट बैंक
वेस्ट बैंक इज़राइल और जॉर्डन के मध्य अवस्थित है। इसका एक सबसे बड़ा शहर ‘रामल्लाह’ (Ramallah) है, जो कि फिलिस्तीन की वास्तविक प्रशासनिक राजधानी है। इज़राइल ने वर्ष 1967 के युद्ध में इस पर अपना नियंत्रण स्थापित किया। - गाजा पट्टी
गाजा पट्टी इज़राइल और मिस्र के मध्य स्थित है। इज़राइल ने वर्ष 1967 में गाजा पट्टी का अधिग्रहण किया था, किंतु गाजा शहर के अधिकांश क्षेत्रों के नियंत्रण तथा इनके प्रतिदिन के प्रशासन पर नियंत्रण का निर्णय ओस्लो समझौते के दौरान किया गया था। वर्ष 2005 में इज़राइल ने इस क्षेत्र से यहूदी बस्तियों को हटा दिया यद्यपि वह अभी भी इस क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय पहुँच को नियंत्रित करता है। - गोलन हाइट्स
गोलन हाइट्स एक सामरिक पठार है जिसे इज़राइल ने वर्ष 1967 के युद्ध में सीरिया से छीन लिया था। ज्ञात हो कि हाल ही में अमेरिका ने आधिकारिक तौर पर येरुशलम और गोलान हाइट्स को इज़राइल का एक हिस्सा माना है।
येरुशलम- विवादित अतीत पर बसा शहर
येरुशलम यहूदियों, मुस्लिमों और ईसाइयों की समान आस्था का केंद्र है। यहाँ ईसाईयों के लिये पवित्र सेपुलकर चर्च, मुस्लिमों की पवित्र मस्जिद और यहूदियों की पवित्र दीवार पवित्र दीवार स्थित है।
होली चर्च
येरुशलम में पवित्र सेपुलकर चर्च है, जो दुनिया भर के ईसाइयों के लिये विशिष्ट स्थान है। ईसाई मतावलंबी मानते हैं कि ईसा मसीह को यहीं सूली पर लटकाया गया था और यही वह स्थान भी है जहाँ ईसा फिर जीवित हुए थे। यह दुनिया भर के लाखों ईसाइयों का मुख्य तीर्थस्थल है, जो ईसा के खाली मकबरे की यात्रा करते हैं। इस चर्च का प्रबंध संयुक्त तौर पर ईसाइयों के अलग-अलग संप्रदाय करते हैं।
पवित्र मस्जिद
येरुशलम में ही पवित्र गुंबदाकार 'डोम ऑफ रॉक' यानी कुव्वतुल सखरह और अल-अक्सा मस्जिद है। यह एक पठार पर स्थित है जिसे मुस्लिम 'हरम अल शरीफ' या पवित्र स्थान कहते हैं। यह मस्जिद इस्लाम की तीसरी सबसे पवित्र जगह है, इसकी देखरेख और प्रशासन का ज़िम्मा एक इस्लामिक ट्रस्ट करता है, जिसे वक्फ भी कहा जाता है। मुसलमान मानते हैं कि पैगंबर अपनी यात्रा में मक्का से यहीं आए थे और उन्होंने आत्मिक तौर पर सभी पैगंबरों से दुआ की थी। कुव्वतुल सखरह से कुछ ही दूरी पर एक आधारशिला रखी गई है जिसके बारे में मुसलमान मानते हैं कि मोहम्मद यहीं से स्वर्ग की ओर गए थे।
पवित्र दीवार
येरुशलम का कोटेल या पश्चिमी दीवार का हिस्सा यहूदी बहुल माना जाता है क्योंकि यहाँ कभी उनका पवित्र मंदिर था और यह दीवार उसी की बची हुई निशानी है। यहाँ मंदिर के अंदर यहूदियों की सबसे पवित्रतम जगह 'होली ऑफ होलीज़' है। यहूदी मानते हैं यहीं पर सबसे पहले उस शिला की नींव रखी गई थी, जिस पर दुनिया का निर्माण हुआ और जहाँ अब्राहम ने अपने बेटे इसाक की कुरबानी दी थी। पश्चिमी दीवार, 'होली ऑफ होलीज़' की वह सबसे करीबी जगह है, जहाँ से यहूदी प्रार्थना कर सकते हैं। इसका प्रबंध पश्चिमी दीवार के रब्बी करते हैं।
फिलिस्तीन की मांग
- फिलिस्तीन की मांग है कि इज़राइल वर्ष 1967 से पूर्व की अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं तक सीमित हो जाए और वेस्ट बैंक तथा गाजा पट्टी में स्वतंत्र फिलिस्तीन राज्य की स्थापना करे। साथ ही इज़राइल को किसी भी प्रकार की शांति वार्ता में शामिल होने से पूर्व अपने अवैध विस्तार को रोकना होगा।
- फिलिस्तीन चाहता है कि वर्ष 1948 में अपना घर खो चुके फिलिस्तीन के शरणार्थी वापस फिलिस्तीन आ सकें।
- फिलिस्तीन पूर्वी येरुशलम को स्वतंत्र फिलिस्तीन राष्ट्र की राजधानी बनाना चाहता है।
इज़राइल की मांग
- इज़राइल येरुशलम को अपना अभिन्न अंग मानता है और इसीलिये येरुशलम पर अपनी संप्रभुता चाहता है।
- इज़राइल की मांग है कि संपूर्ण विश्व इज़राइल को एक यहूदी राष्ट्र के रूप में मान्यता दे। ज्ञात हो कि इज़राइल दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है जो धार्मिक समुदाय के लिये बनाया गया है।
इज़राइल-फिलिस्तीन संघर्ष और अमेरिका
- विदित है कि अमेरिका इज़राइल-फिलिस्तीन संघर्ष में मध्यस्थ के रूप में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। हालाँकि एक मध्यस्थ के रूप में अमेरिका की भूमिका को फिलिस्तीन ने सदैव संदेह की दृष्टि से देखा है। इस संदर्भ में कई मौकों पर इस्लामिक सहयोग संगठन (OIC) और अरब संगठनों द्वारा अमेरिका की आलोचना की गई है।
- अमेरिका में इज़राइल की तुलना में अधिक यहूदी रहते हैं, जिसके कारण अमेरिका की राजनीति पर उनका काफी प्रभाव है।
- ओबामा प्रशासन के दूसरे कार्यकाल में अमेरिका-इज़राइल संबंधों में गिरावट देखी गई थी। वर्ष 2015 के परमाणु समझौते ने इज़राइल को खासा चिंतित किया था और इसके लिये इज़राइल ने अमेरिका की आलोचना भी की थी।
- हालाँकि अमेरिका के मौजूदा प्रशासन के तहत अमेरिका-इज़राइल संबंधों का काफी तेज़ी से विकास हुआ है। ज्ञात हो कि कुछ वर्षों पूर्व ही अमेरिका ने येरुशलम को इज़राइल की आधिकारिक राजधानी की मान्यता दे दी थी, जिसका अरब जगत के कई नेताओं ने विरोध किया था।
इज़राइल-फिलिस्तीन संघर्ष और भारत
- भारत ने आज़ादी के पश्चात् लंबे समय तक इज़राइल के साथ कूटनीतिक संबंध नहीं रखे, जिससे यह स्पष्ट था कि भारत फिलिस्तीन की मांगों का समर्थन करता है, किंतु वर्ष 1992 में इज़राइल से भारत के औपचारिक कूटनीतिक संबंध बने और अब यह रणनीतिक संबंध में परिवर्तित हो गए हैं तथा अपने उच्च स्तर पर हैं।
- दूसरी ओर, भारत-फिलिस्तीन संबंध प्रारंभ से ही काफी घनिष्ठ रहे हैं तथा भारत फिलिस्तीन की समस्याओं के प्रति काफी संवेदनशील रहा है। फिलिस्तीन मुद्दे के साथ भारत की सहानुभूति और फिलिस्तीनियों के साथ मित्रता बनी रहे, यह सदैव ही भारतीय विदेश नीति का अभिन्न अंग रहा है।
- ज्ञात हो कि वर्ष 1947 में भारत ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में फिलिस्तीन के विभाजन के विरुद्ध मतदान किया था।
- भारत पहला गैर-अरब देश था, जिसने वर्ष 1974 में फिलिस्तीनी जनता के एकमात्र और कानूनी प्रतिनिधि के रूप में फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन को मान्यता प्रदान की थी। साथ ही भारत वर्ष 1988 में फिलिस्तीनी राज्य को मान्यता देने वाले शुरुआती देशों में शामिल था।
- भारत ने फिलिस्तीन से संबंधित कई प्रस्तावों का समर्थन किया है, जिनमें सितंबर 2015 में सदस्य राज्यों के ध्वज की तरह अन्य प्रेक्षक राज्यों के साथ संयुक्त राष्ट्र परिसर में फिलिस्तीनी ध्वज लगाने का भारत का समर्थन प्रमुख है।
- फिलिस्तीन का समर्थन करने के अलावा भारत ने इज़राइल का भी काफी समर्थन किया है और दोनों देशों के साथ अपनी संतुलित नीति बरकरार रखी है।
निष्कर्ष
शांतिपूर्ण समाधान के लिये वैश्विक समाज को एक साथ आने की ज़रूरत है किंतु इस मुद्दे से संबंधित विभिन्न हितधारकों की अनिच्छा ने इसे और अधिक जटिल बना दिया है। आवश्यक है कि सभी हितधारक एक मंच पर उपस्थित होकर समस्या का समाधान खोजने का प्रयास करें।
प्रश्न: इज़राइल-फिलिस्तीन संघर्ष पर चर्चा करते हुए बताइये कि क्या अमेरिका की मध्य-पूर्व शांति योजना इस संघर्ष को समाप्त करने में सफल हो सकेगी?