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एडिटोरियल

  • 29 Mar, 2022
  • 11 min read
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

खाद्य आत्मनिर्भरता

यह एडिटोरियल 28/03/2022 को इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित “Budgeting for a well-fed, self-reliant India” लेख पर आधारित है। इसमें न केवल रक्षा उपकरणों बल्कि खाद्य के मामले में भी भारत के आत्मनिर्भर होने की आवश्यकता की चर्चा की गई है।

संदर्भ

रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध की पृष्ठभूमि में भारत के प्रधानमंत्री ने रक्षा उपकरणों के मामले में देश के आत्मनिर्भर बनने की आवश्यकता पर बल दिया है। हालाँकि हमें न केवल रक्षा उपकरणों के मामले में बल्कि खाद्य के मामले में भी आत्मनिर्भर होने की आवश्यकता है ।

एक पुरानी कहावत है कि खाली पेट कोई सेना आगे नहीं बढ़ सकती। पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री द्वारा ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा दिया गया था जिसमें बाद में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने ‘जय विज्ञान’ भी जोड़ दिया था। खाद्य से लेकर रक्षा उपकरणों तक आत्मनिर्भरता (‘Self-Reliance In Meals to Missiles’) प्राप्त करने के लिये विज्ञान और वैज्ञानिकों पर ध्यान केंद्रित करना महत्त्वपूर्ण है।

खाद्य में आत्मनिर्भर बनने का अभिप्राय

  • खाद्य के मामले में आत्मनिर्भर होने का अर्थ यह नहीं है कि हमें हर चीज़ का उत्पादन स्वदेश में ही करना होगा, चाहे उसकी जो भी लागत आए। इसका वास्तविक अर्थ है उन वस्तुओं में विशेषज्ञता हासिल करना जिनमें हमें तुलनात्मक रूप से अधिक लाभ प्राप्त है, उनका निर्यात करना और उन वस्तुओं का आयात करना जिनमें हमें कोई महत्त्वपूर्ण तुलनात्मक लाभ प्राप्त नहीं है।
  • यह दो मौजूद विकल्पों में से एक को चुनने की स्थिति नहीं है, बल्कि यह तुलनात्मक लाभ के सिद्धांतों का पालन करते हुए किसी देश की इस इच्छा का प्रकटीकरण है कि वह किस स्तर तक आत्मनिर्भरता चाहता है। यदि नवीन क्षेत्रों के विकास के लिये कुछ सुरक्षा की आवश्यकता है (‘infant industry argument’ के दृष्टिकोण से) तो यह उपयुक्त हो सकता है। लेकिन उच्च ‘टैरिफ वाल’ के पीछे आत्मनिर्भर होने की आकांक्षा नहीं रखनी चाहिये। यह केवल अक्षम और उच्च लागत वाली संरचनाओं का ही पोषण करेगी जो वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्द्धा नहीं कर सकेंगी।
  • कृषि और खाद्य के क्षेत्र में अध्ययनों से पता चलता है कि कृषि-अनुसंधान एवं विकास, प्रयोगशाला से खेतों तक इसके विस्तार, पैदावार बढ़ाने के लिये सिंचाई में निवेश, विपणन में दक्षता एवं उपज का प्रसंस्करण और इसे किसानों के खेतों से उपभोक्ताओं तक या निर्यात स्थलों तक ले जाने में किसी देश द्वारा किये गए प्रयासों तथा संसाधनों के निवेश से उसे लाभ की स्थिति प्राप्त होती है।

खाद्य आत्मनिर्भरता के मार्ग की चुनौतियाँ

  • खाद्य तेल आयात पर निर्भरता: भारत ने बड़ी मात्रा में खाद्य उत्पादन के साथ कृषि क्षेत्र में आत्मनिर्भरता हासिल की है, साथ ही कृषि-उत्पादों का शुद्ध निर्यातक भी बना है। लेकिन खाद्य तेलों के लिये आयात पर उच्च निर्भरता (उपभोग का लगभग 55 से 60%) चिंता का विषय बना हुआ है। कृषि-उत्पादों के एक महत्त्वपूर्ण निर्यातक के रूप में उभर सकने की भारत की क्षमता का अभी तक पूर्ण रूप से दोहन नहीं हो सका है।
  • निम्न-मूल्य निर्यात: भारत में अधिकांश प्रसंस्करण को प्राथमिक प्रसंस्करण के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है, जिसमें द्वितीयक प्रसंस्करण की तुलना में कम मूल्यवर्द्धन होता है।
    • इसके कारण, भारत के विश्व में कृषि उत्पादों के सबसे बड़े उत्पादकों में से एक होने के बावजूद, इसके सकल घरेलू उत्पाद में कृषि निर्यात की हिस्सेदारी शेष विश्व की तुलना में पर्याप्त कम है।
    • यह अनुपात जहाँ ब्राजील के लिये लगभग 4%, अर्जेंटीना के लिये 7% और थाईलैंड के लिये 9% है, वहीं भारत के लिये मात्र 2% है।
  • प्रभावी विकेंद्रीकरण का अभाव: एक प्रभावी विकेंद्रीकृत प्रणाली- यानी प्रयोग, एक दूसरे से सीखना और सर्वोत्तम प्रथाओं एवं नीतियों को अपनाना काफी हद तक विफल ही रहा है।
    • इसके बजाय, स्वतंत्रता के बाद से भारतीय कृषि क्षेत्र/खेतों का आकार अत्यधिक विखंडित रहा है।

खाद्य आत्मनिर्भरता के लिये आगे की राह

  • कृषि अनुसंधान एवं विकास पर ध्यान देना: इस तथ्य के पर्याप्त अध्ययन मौजूद है कि कृषि में अनुसंधान और विकास कुल कारक उत्पादकता की वृद्धि करता है और कृषि को विश्व स्तर पर अधिक प्रतिस्पर्द्धी बनाता है। कई बार ‘चमत्कारी बीज’ (miracle seeds) विकसित करने का बुनियादी अनुसंधान एवं विकास देश के बाहर संपन्न होता है, लेकिन उन बीजों का आयात किया जा सकता है और देश में R&D के माध्यम से उन्हें स्थानीय परिस्थितियों के लिये अनुकूलित बनाते हुए स्थानीय प्रयोग के लिये किसानों को प्रेरित किया जा सकता है। देश में हरित क्रांति इसी रूप में आगे बढ़ी थी।
    • आर्थिक सर्वेक्षण (2021-22) ने agri-R&D पर व्यय और कृषि विकास के बीच के संबंध को स्पष्ट रूप से उजागर किया है। कई शोधों से यह भी पता चलता है कि कृषि में अनुसंधान और विकास पर व्यय किया गया प्रत्येक रुपया उर्वरक सब्सिडी (0.88) या बिजली सब्सिडी (0.79) जैसे विषयों पर व्यय किये गए प्रत्येक रुपए की तुलना में बेहतर लाभ (11.2) प्रदान करता है।
    • लेकिन भारतीय लोकतंत्र में प्रतिस्पर्द्धी लोकलुभावनवाद दुर्लभ संसाधनों के आवंटन के मामले में उप-इष्टतम विकल्पों की ओर ले जाता है। खाद्य सब्सिडी एवं मनरेगा (MGNREGA) जैसे सुरक्षा जाल पर अथवा किसानों के लिये आय समर्थन एवं सब्सिडी पर तो अधिक व्यय किया जाता है लेकिन कृषि में अनुसंधान और विकास की अनदेखी की जाती है।
  • कृषि क्षेत्र में निवेश बढ़ाना: यदि भारत खाद्य के मामले में पूरी तरह से आत्मनिर्भर होना चाहता है तो इस पर आम तौर पर सहमति है कि उसे अपने कृषि-जीडीपी का कम से कम 1% कृषि में अनुसंधान और विकास में निवेश करना होगा। लेकिन केंद्र सरकार और राज्य सरकारों दोनों के बजट से पता चलता है कि कृषि में अनुसंधान और विकास और शिक्षा पर यह व्यय कृषि-जीडीपी का मात्र 0.6% है, जिसमें केंद्र एवं राज्यों (संयुक्त रूप से सभी राज्य) की लगभग बराबर हिस्सेदारी है।
    • यह 1% के न्यूनतम ‘कट ऑफ पॉइंट’ से पर्याप्त नीचे है और सरकारी नीति को इसे पर्याप्त रूप से बढ़ाने की दिशा में तत्काल कार्रवाई करनी चाहिये।
  • निजी क्षेत्र की भागीदारी: इसके अलावा, सरकार को ऐसी नीतियाँ बनानी चाहिये जो निजी कंपनियों को अपने अनुसंधान एवं विकास कार्यक्रमों का विस्तार करने और उन विकास परियोजनाओं पर अधिकाधिक वित्तीय संसाधनों का निवेश करने के लिये प्रोत्साहित करें जिनमें भारत की वर्तमान कृषि व्यवस्था की चुनौतियों को दूर करने की क्षमता हो।
    • Bayer, Syngenta, MAHYCO, Jain Irrigation और Mahindra and Mahindra जैसी कुछ वैश्विक एवं स्थानीय कंपनियाँ हैं जो अनुसंधान एवं विकास कार्यक्रमों तथा उच्च-तकनीकी इनपुट के विकास पर उल्लेखनीय राशि व्यय करती हैं।
    • इन कंपनियों की विशेष बात यह है कि वे ऐसी प्रौद्योगिकी का विकास करती हैं जो सीमित शुद्ध बुआई क्षेत्र, जल संसाधनों की कमी, जलवायु परिवर्तन के प्रति भेद्यता और पोषक तत्वों से समृद्ध खाद्य पदार्थों के उत्पादन की आवश्यकता जैसी वर्तमान चुनौतियों को संबोधित करते हुए उत्पादकता में वृद्धि करती हैं।
  • कृषि-खाद्य क्षेत्र में भारत के बजट आवंटन को ‘कम से अधिक’ के सृजन की ओर लक्षित होना चाहिये। वित्तपोषण को भुखमरी एवं कुपोषण की मौजूदा उच्च स्थिति में परिवर्तन लाने, प्राकृतिक संसाधनों के कुप्रबंधन पर नियंत्रण रखने और जलवायु परिवर्तन की समस्याओं के शमन पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये।
  • दीर्घकालिक स्थायी समाधानों के निर्माण की दिशा में कार्य किये जाने की आवश्यकता है जहाँ प्रासंगिक नीतियों के प्रवर्तन और नई नीतियों के विकास के प्रति एक आक्रामक दृष्टिकोण मौजूद हो।

अभ्यास प्रश्न: ‘‘न केवल रक्षा उपकरणों बल्कि खाद्य के मामले में भी भारत के आत्मनिर्भर होने की आवश्यकता है।’’ चर्चा कीजिये।


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